सोमवार, 9 जून 2008

दीये जलते हैं.

भीड़ नहीं बदलती, बाज़ार नहीं बदलते।
पुराने होकर भी यहाँ सामान नहीं बदलते।
रंग रोगन से नया रूप देते है।
यहाँ तो पल पल लोग नियत बदलते हैं।

ख़ुद को नहीं खुदा को कोसते हैं।
दुआ, मन्नत काम आती है कहते हैं।
भरोसा खुदा का है ख़ुद पर यकीं नहीं।
मन्नतों से भी कभी हादसे टलते हैं??

कुछ ऐसे भी होते हैं जो दावतें लेते-देते हैं।
कुछ लोग बिन मौसम के व्रत-रोज़े रखते हैं।
किसी को मयस्सर है मखमली ज़मीन।
कुछ तो लोग धूप में नंगे पैर चलते हैं।

कौन आया कौन गया, किसको ख़बर रहती है यहाँ।
सब अपने अपने में रत रहते हैं यहाँ।
मत कर फक्र कि तू चमकता है आज तो,
यहाँ तो रोज़ ही सूरज निकल कर ढलते हैं।

खैर यह तो वक्त है, बीत ही जायेगा।
इन उम्मीदों पर कायम है इनका जहाँ।
चाहे रोएँ, चीखें, चिल्लाएं... उम्मीद नहीं छोड़ते हैं।
यहाँ तो गीली आंखों में भी सपने पलते हैं।

चाहो तो आसमान छू लो आज।
फिर भी तुम याद कल को ही करते हो।
कल को ना पकड़ो अपनी मुट्ठी में।
यहाँ तो मुट्ठी से रेत के घर फिसलते हैं।

कभी फलक, कभी चाँद तारों की बात करते हैं।
रहते हैं ज़मीन पर, आसमानों की बात करते हैं।
उनको जाकर बताओ चाँद घट जाता है एक उम्र बाद।
दीवाली पर यहाँ चाँद नही, बस दीये ही जलते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: