शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

बस ऐसे ही.....

बारिश में भीगे हुए मन को बहलाती हूँ

सावन जो बीत गया, उसकी याद दिलाती हूँ

क्या वो तुम ही थे? जो मेरे साथ थे

यह सवाल कई कई बार ख़ुद से दोहराती हूँ।


*****

फिर क्यूँ कूकी कोयल, गौरैया क्यूँ चहकी?

नहीं हैं यहाँ फूल तो क्यूँ फिर बगिया महकी?

पगली यह सावन है पतझड़ नहीं,

यही बात हर बार ख़ुद को समझाती हूँ

*****

चूड़ीवाला हांक लगाता है, बार बार बुलाता है

रंग-बिरंगी चूडियों की रंगीन कहानी सुनाता है

अब इस घर में उसका काम नही

क्यूँ नहीं उसको बतलाती हूँ??

*****

सूरज आज भी ढल गया और चाँद निकल आया है

तुम मेरे साथ नहीं, यह चाँदनी में मेरा ही साया है

अगले सूरज के साथ तुम आओ

कब से बस यही आस लगाती हूँ

*****

एक हिचकी फिर आ गयी, आँखों के पानी से रोका है

मालूम है मुझे यह मेरा भ्रम है, सिर्फ़ एक धोखा है

पर शायद तुमने मुझे याद किया

इसी आस पर हर अगली साँस ले पाती हूँ।

सोमवार, 11 अगस्त 2008

आओ किटियाएं

अब हम आपको क्या बताएं?? इधर कुछ दिनों से बहुत बोर हो रहे थे। अरे जिसको देखो, वही बिजी। बस हम हैं फुरसतिया, न काम न काज। इधर उधर बस ताकते रहते कि कोई मिले तो उसके साथ जरा बतियाएं। बहुत दिनों से पतिदेव से भी पंगा नहीं हुआ कि कुछ इंटरटेनमेंट ही हो जाता। किसी बहाने से हमें भी उनको और उनकी पिछली सात पुश्तों तक को कोसना.... ना ना अपने अमृत वचन कहने का मौका मिलता और हमारी बोरियत भी दूर होती। पर हाय!!! ऐसा हुआ नहीं....
तभी किसी देवदूत की तरह हमारी एक सहेली शशिकला का फ़ोन आया कि उसने कुछ और सहेलियों के साथ मिलकर किटीपार्टी शुरू की है और हमें भी शामिल करने का फ़ैसला किया है। उसकी पहली खेप कल उसके घर पर है तो कल मिलते हैं.... अरे अँधा क्या चाहे??? हमने उसको लाख लाख दुआएं दी। भला हो उस आत्मा का, जिसने हमारा ख्याल किया वरना आजकल कहाँ कोई किसी के बारे में सोचता है??
खैर उस दिन हम सुबह सुबह ही उठ गए। अजी उठे क्या? रात में खुशी के मारे नींद ही नहीं आई कमबख्त। पूरी रात आने वाले दिन के सपने बुनते रहे। सुबह हमने पतिदेव को बोल दिया कि आज अपने खाने का इंतज़ाम कर लें, हमारी 'मीटिंग' है हमारी सहेलियों के साथ। उनने कुछ कहने की कोशिश तो की थी पर हमने आंखों ही आंखों में उसे दबा दिया। अरे!! यह मर्द जात कब समझेगी कि हम औरतों की भी कोई पर्सनल लाइफ है भाई! अगर हफ्ते में एक दिन (कभी कभी दो या तीन दिन भी) खाना नहीं बनायेंगे तो कौन सा पहाड़ गिर जाएगा??पर नहीं बस हमेशा हम औरतों को परेशान करने के नए नए बहाने ढूंढ़तेरहते हैं। क्या हम बस खाना बनाने (कभी कभी ही सही!!) की मशीन हैं??
उंहू.....छोडो यार कहाँ अटक गए हम भी!! हाँ तो हम कह रहे थे कि सुबह सुबह हम लग गए अपने को सँवारने में!! पिछली बार बाज़ार से एक महंगा सा फेसपैक लेकर आए थे, उसका ही उदघाटन किया सबसे पहले। फिर हमने अपने मेकअप की स्ट्रेटेजी बनाई कि कैसे मेकअप किया जाए कि लगे ही नहीं कि कुछ लगाया भी है। अब आप यह मत समझना कि हम बहुत बन संवर के बाहर निकलते हैं। वह तो कभी कभी ही बस........
खैर सबसे बड़ी विडम्बना होती है मौके के हिसाब से कपडों का चयन। क्या पहनें कि अलग दिखें?? अलग यानी कि... आप समझते हैं न???
पहले हाथ साड़ी पर पड़ा। फिर सोचा कि बहनजी ना लगें कहीं? सूट से होते हुए, स्कर्ट के रास्ते जींस को चुना। आख़िर अपने को खुले विचारों का जो दिखाना था!! अब किसी अनजान को तो नहीं पता न कि आप कैसे हैं?? आपके कपडों से ही आपके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा मैं नहीं कहती, कल एक पत्रिका में पढ़ा था। (उसी पत्रिका में जिसमें से हमने "अपने ससुराल से कैसे छुटकारा पायें" की कटिंग संभाल कर रख ली है)
खैर तैयार होने के बाद हम चल पड़े अपनी सहेली के घर। वहां जाकर हमने देखा कि और भी बहुत सारी महिलायें थीं। हमारी सहेली शशिकला ने हमारा परिचय सबसे कराया। हम बहुत खुश हुए चलो बहुत दिनों के बाद नए लोगों से मिल रहे हैं। सबसे दुआ सलाम हुआ। फिर पानी वानी पीने के बाद शशिकला ने नमकीन और चाय परोसा। नमकीन की सबने तारीफ़ की। और बहुत सारे नमकीन की रेसिपी की अदला-बदली भी हुई। हम बहुत खुश हुए कि कितनी अच्छी होती है किटी-पार्टी। कितनी अच्छी अच्छी बातें सीखने को मिलती हैं। फिर शुरू हुआ घर कि सजावट के तरीकों का दौर। हमने भरपूर दिलचस्पी दिखाने की कोशिश की। हालांकि हम कुछ कुछ बोर होने लगे थे। (जब यही सब बातें करनी थीं, तो मिलने की क्या जरूरत? यह सब तो किसी भी अच्छी पत्रिका में पढ़ लो ) और हम शौकीन हैं ऐसी पत्रिकाओं के जिनमें "पति को लाइन पर लाने के १० नुस्खे", "प्रेमी को फंसाए रखने के १५ तरीके", "सास-ननद का दिमाग कैसे करें दुरुस्त?" टाईप लेख पढने को मिलें जो हमारे व्यक्तित्व को सँवारे।
खैर हम सब्र किए रहे कि कभी न कभी तो बोरियत दूर होगी। अजी लानत है ऐसी महिला-मंडली पर जिसमें पति, पूर्व-प्रेमी, सास-ससुर ननद आदि का जिक्र ना आए। खैर हमने ही बीडा उठाने का निश्चय किया। एक औरत जो कि नई नई ब्याही थी, उसे बकरा बनाने की ठानी। बात कुछ इस तरह शुरू हुई:
हम: हेल्लो, न्यूली वेड? (हलाँकि हम जानते थे, फिर भी..... )
वह: एस, आई ऍम निकिता।
हम: ओह... कोंग्रेट्स निकिता....
निकिता: थेंक्स
अब हमने सोचा कि आगे कि बात हिन्दी में करेंगे.....
हम: तो क्या करते हैं आपके पति निकी?
निकी: (जो हमें अपने करीब महसूस करने लगी थी क्यूंकि हमने उसको जानबूझकर उसके मायके वाले नाम से पुकारा था। हमें पता नहीं था लेकिन रिस्क खेला था जो कारगर सिद्ध हुआ!) वो रेलवे में हैं।
हम: अरे वह तब तो आप खूब घूमती होगी !! हनी-मून कहाँ मनाया??
निकी: नहीं अभी तक तो ज्यादा कहीं नहीं जा पाये हैं।
हम: (आश्चर्य का ड्रामा करते हुए) क्यों????????????????
निकी: जी वो सासू माँ की तबियत ख़राब थी।
अब तो बाजी हमारे हाथ में आ गयी। हम समझ गए कि निकी की दुखी रग पर हाथ रख दिया है हमने। उस दिन किस्मत हमारे साथ थी। क्यूंकि इसके बाद कमान शशिकला की एक पक्की सहेली बिन्दु ने संभाल ली। उसने निकी को समझाया कि सास की बिमारी तो बस बहाना होगी। असल में यह प्लान सास या ननद का ही बनाया हुआ होगा। निकी ने बहुत समझाने की कोशिश की। उसकी सास ऐसी नहीं है। पर हम सब औरतों ने उसे आख़िर मना ही लिया की सासें सब ऐसी ही होती हैं। उनको ज्यादा ढील नहीं देनी चाहिए। पति की लगाम जाते ही अपने हाथ में कर लेनी चाहिए।
आख़िर अंत में हम सब औरतों की जीत हुई। (सत्य कभी नही हारता)
उस दिन कसम से, हमने कई दिनों से दबाया हुए गुस्सा (पति, ससुराल का) अपनी हमदर्दनियों के बीच निकाला। ऐसा ही हाल सभी का था। सभी बेचारी बेबस-लाचार औरतें ही थीं। सबने बताया कि कितनी मुश्किल होते हुए भी वोह हफ्ते में २ दिन खाना बनाती हैं? कितनी मुश्किल से लड़-झगड़ के महीने में सिर्फ़ २० दिन ही ब्यूटी-पार्लर जा पाती हैं? उनको खर्च का हवाला दिया जाता है जबकि ननद को हर राखी भाईदूज पर गिफ्ट !!!
सच्ची में ऐसी आनंद कि अनुभूति हुई जैसे कि कई दिनों के बदहाजमे के बाद खूब सारी उलटी करने पर होती है। हमारा तो दिन ही सफल हो गया। दोपहर से शाम तक पता ही नहीं चला समय कहाँ चला गया?? फिर जब घर जाने का वक्त आया, तो सबने निश्चय किया कि अगली किटी-पार्टी हमारे घर होगी। हम तो धन्य ही हो गए जब देवी समान सहेलियों ने मुझ जैसी नाचीज़ को इस काबिल समझा।
अब अगले महीने किटी-पार्टी हमारे घर है। जो महिलायें घर में बोर हो रहीं हों यानी कई दिनों से पति के साथ पट रही है, सास-ननद से कहा-सुनी नहीं हुई हो मतलब आपके जीवन में कोई एक्साइटमेंट नहीं रहा तो उनको हमारी तरफ़ से खुला न्योता है, हमारे घर आयें और किटियाएं।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

हमारा सिविक सेंस

अभी कुछ दिनों पहले ही हम लोग नाएग्रा फाल से लौटे हैं। वहां एक दिलचस्प किस्सा हुआ। वैसे किस्सा तो क्या, मुझे ही दिलचस्प लगा और मेरे लिए लेखन का नया विषय बन गया। हुआ यूँ कि वहां ट्राम में चलते हुए जब एक जगह ट्राम रुकी तो जिनको उतरना था वो पंक्ति बना के खड़े हो गए और ट्राम के रुकने पर उतरने लगे। तभी एक व्यक्ति जिसे उस ट्राम पर चढ़ना था, चढ़ने लगा। उसे एक महिला ने टोका कि पहले उतरने वालों को उतरने दिया जाए। पीछे से किसी ने कमेन्ट भी किया "its common sense!!" मैंने मन ही मन सोचा कि ऐसा तो मेरे महान भारत में होता है। और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब देखा कि चढ़ने के लिए जल्दबाजी करने वाले सज्जन भारतीय ही थे!!!
ऐसा क्यों होता है? सोचने पर मजबूर हो गयी। क्यों हम अपने basic civic sense भूल जाते हैं?
मुझे याद है कि दिल्ली से ग्वालियर और ग्वालियर से दिल्ली आने जाने पर (नौकरी के दौरान) मेरी और सोनल (मेरी सहेली) कि हमेशा किसी न किसी से बहस होती थी। कारन होता था मूंगफली के छिलके जो लोग खाने के बाद कम्पार्टमेंट में फेंकना अपना अधिकार समझते हैं।
एक बार तो हद ही हो गयी जब इस बहस के दौरान हमें पता चला कि सामने वाला व्यक्ति डॉक्टर है। (बाद में यह भी पता चला कि उक्त सज्जन ने डाक्टरी की पढाई रशिया से की है)। हम सोचने पर मजबूर हो गए कि तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग का यह हाल है तो अनपढों को क्या बोलें?
अक्सर बस में लड़ाई होती थी कि जब धुम्रपान मना है तो कोई सिगरेट क्यूँ पी रहा है? सामने से जवाब आता था "मैडम ऑटो या टैक्सी में चला करो" या फिर कभी कभी कोई साथ दे दे और अगर वो भद्र पुरूष है तो उसे जवाब मिलता था "तेरे बाप की बस है?"
यानी कि सड़क, बस, ट्रेन मेरे बाप की नहीं है। तो मुझे क्या? खूब गन्दा करेंगे।
ऐसा एक किस्सा और याद आया बस का। सुबह सुबह दिल्ली कि बसों में खड़ा होने कि जगह मिल जाए तो बहुत है। ऐसे ही एक सुबह जब मैं office जा रही थी, तब एक स्टाप पर एक लड़की चढी। यही कोई १८-१९ साल की थी। चढ़ते साथ ही बस के बाएँ तरफ़ आ गयी जहाँ महिलाओं की सीट होती है। एक बहुत ही वृद्ध सरदारजी से जो किउस महिला सीट पर बैठे हुए थे, कहने लगी अंकल जी लेडीज सीट है, उठिए। अंकल जी चूँकि बहुत वृद्ध थे और काफ़ी देर खड़े होने के बाद उनको यह सीट मिली थी उन्होंने खड़ा होने से साफ़ इनकार कर दिया। बस मैडम को गुस्सा आ गया और अपने लेडी होने का नाजायज फायदा उठाते हुए कंडक्टर से शिकायत करने लगीं। मुझसे रहा नही गया। क्या करूँ? आदत से मजबूर हूँ। पर सुनने को खूब मिला। खैर मुझे खुशी हुई कि ना तो कंडक्टर ने, ना ही उन बूढे सरदारजी ने उसकी बातों पर गौर किया। पर मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि उस बाला में इतनी तमीज भी नहीं (मेरे आक्रामक शब्दों के लिए मुझे माफ़ करें) कि अपने दादाजी कि उम्र के व्यक्ति से कैसे बात karni चाहिए?
मुझे याद है जब हम "१९४२ अ लव स्टोरी" देखने गए थे, तब समाप्त होने पर उस फ़िल्म में जन-गन-मन था। स्कूल और माँ-डैडी की शिक्षा के कारन मैं, मेरी बहन खड़े हो गए थे और वो भी सावधान की मुद्रा में। पर हमें नही पता था की हम लोगों के आने जाने के बीच में रोड़ा बन रहे हैं। जो लोग ३ घंटे की फ़िल्म देख रहे थे, उनसे अब ३ मिनट का सब्र भी नही हो रहा था।
और अब तो हालात और पेचीदा हो गए हैं। अब अगर हम किसी को सड़क की सफाई, ट्रेन की सफाई आदि के महत्व को समझाने की कोशिश करें (और अगर समझने वाला हमारा अपना है) तो हमें सुनना पड़ता है कि विदेश क्या गयी, पूरी अँगरेज़ बन गयी। यानी कि बहुत कठिन है डगर पनघट की
घटनाएं अलग अलग हैं और शायद आपको किसी का तारतम्य समझ नही आएगा। चूँकि मैं बहुत अच्छी मंझी हुई लेखिका नहीं हूँ तो अपनी बात को interesting तरीके से कहना नही आता। पर बातों का सार आपकी समझ आ गया होगा (आप लोग तो बहुत अच्छे पाठक हैं न!!)
हमारे civic sense का क्या होता जा रहा है? किसी को अपनी बारी आने तक का सब्र नहीं है। कोई शुरुआत नही करना चाहता। मेरा मकसद मेरे भारत को नीचा दिखने का कतई नहीं है पर हाँ हम इतने पढ़े लिखे और सुलझे हुए तो हैं ही कि अपनी गलतियों को समझ सकें और ख़ास कर उन गलतियों को जिनका निदान हमारे पास है। सफाई करना और साफ़ रहना, दूसरों के समय का मूल्य समझना, पंक्ति बनाना, बेवजह कार का हार्न न बजाना यह सब कोई भ्रष्टाचार जैसी समस्या नहीं है जिसका निवारण हम अकेले नही कर सकते। कम से कम शुरुआत तो कर ही सकते हैं न!!!
तो बस एक प्रार्थना है, सिर्फ़ टिपण्णी देकर अपना फ़र्ज़ पूरा मत करिए। आज कार से बाहर कोई चीज़ फेंकते हुए, सड़क पर थूकते हुए, किसी से बस में लड़ते हुए या सिगरेट पीते हुए सिर्फ़ एक बार मुझे याद कर लीजियेगा... शायद आप अपने समाज को गन्दा करने से बच जाएँ!!
इसी आशा के साथ...........
प्रज्ञा

मेरे कथन को अन्यथा ना लें। जो मैं महसूस करती हूँ वही लिखा है। और ब्लॉग का पहला नियम भी यही है। है न??

बुधवार, 30 जुलाई 2008

बिना किसी शीर्षक के

बहुत बुरा समय आया है देश पर। असली बातें भूल कर लोग हिंदू-मुसलमान के चक्कर में पड़ गए हैं। दिल को बहुत दर्द होता है जब भी कोई आतंकी अपनी साजिश में कामयाब हो जाता है। सरकार को बहाना मिला विपक्ष पर चोट करने का और जनता को एक और "topic" मिला बहस का। हम जैसे लोगों को नयी कविता कहानियो का मुद्दा। उन लोगों का दर्द का अंदाजा भी नही लगा सकते जिनके अपने इन धमाकों में खो गए। कब ख़तम होगा यह सब???

आज फिर दिल पर चोट हुई है
आज फिर एक घर जला है
उस ने नहीं देखा किसी का धर्म
कहर तो बस अपने रास्ते चला है

सवेरे की रौशनी अलसाई है
दिन भी यहाँ आज थोड़ा मंद है
कल शाम यहाँ लाशें गिरी थीं
कल धमाकों में सूरज ढला है

मन्दिर की घंटियाँ बंद पड़ी हैं
अज़ान में भी आज आवाज़ नहीं है
मूक हो गए हैं मोहल्ले वाले
आज चुप रहना ही भला है

रहमान चाचा की बेगुनाह आँखे,
माफ़ी मांगती हैं उस राम से
जो बचपन से लेकर जवानी तक
इन बुजुर्ग हाथों में ही पला है...

बुधवार, 23 जुलाई 2008

तुम, मैं और हम

कभी कभी पुरानी बातों को याद करते हुए बहुत अच्छा लगता है। खास कर कि बारिश के मौसम में।
यह 'अमित' के लिए.....


सुबह तुम्हारे घर से जाने के बाद,
कुछ यादों ने 'मुझे' आ घेरा है।
आज उठा के फिर से कलम को,
कागज़ पर स्याही को उकेरा है।

बारिश ने दरवाज़े पर आहट की,
गीली मिटटी में कुछ निशान मिले।
पीछा किया जब उन कदमों का,
कुछ दूरी पर दो लोग दिखे।

बरसों पुरानी बारिश में,
वो हँसते और गाते थे।
कुछ और पास गयी तो पाया,
वो कोई और नहीं ख़ुद 'हम' ही थे।

'मेरे' होने से अनजान थे 'हम',
सपनों के महल सजाते थे।
कभी 'मैं' रूठ जाती थी,
तो कभी 'तुम' 'मुझे' मनाते थे।

यादों की उस बारिश में,
जब प्यार का सूरज आया था।
रिश्तों की खिली धूप से,
'हमने' अपना इन्द्रधनुष बनाया था।

उन सात रंगों के साथ,
चलो अब घर को आ जाऊं।
शाम को जब तुम घर लौटो,
'तुम' को 'मैं' फिर 'हम' से मिलवाऊँ।

गुरुवार, 17 जुलाई 2008

जामन के बहाने

एक साधारण सी बात है जो शायद भारत में हर घर में होती है। घर में दूध, आलू, प्याज, चीनी, चाय- पत्ती यहाँ तक की कभी कभी सब्जियों पर भी हम किराने वाले से ज्यादा पड़ोसी पर निर्भर रहते हैं। भाई हमने तो अपने अडोस पड़ोस का पूरा फायदा उठाया है इन मामलों में...
"चाचीजी आज दूध फट गया।" घर में मेहमान आयें हैं। माँ ने एक कप दूध मंगाया हैं।"
या फिर "मामीजी, आज घर में मेरी पसंद की सब्जी नहीं बनी।" एक कटोरी दाल दे दो मुझे।"
पड़ोस की चाचियाँ मामियां बहुत काम आती हैं।
अब ज़रा पड़ोस को बढ़ा दिया जाए। यानी कल्पना कीजिये कि एक कप दूध के लिए आप मोहल्ले की नहीं, इलाके की नहीं, शहर या प्रदेश की ही नहीं देश की सीमा को लाँघ जाएँ।
कैसा विचार है??
मुझे यहाँ अमेरिका में आए हुए ५ महीने हो चले हैं। जब आए थे तब गजब की सर्दी थी। २-३ महीने तक कहीं बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई थी। जब मौसम खुशनुमा हुआ, तब बेटी को लेकर पार्क जाना शुरू किया। तब कुछ लोगों से दोस्ती हुई। पता चला मेरे इस छोटे से शहर में ही करीब ५०० भारतीय, ५०-६० पाकिस्तानी और कुछ बंगलादेशी परिवार भी रहते हैं। यानी कि कुल मिलाकर अच्छा खासा देसियों का जमघट है।
धीरे धीरे लोगों से बात होने लगी। एक बार कुछ लोगों ने PICNIC पर जाने का कार्यक्रम बनाया। एक सहेली के पतिदेव नहीं आ पाये। कारण पता लगा कि उनका क्रिकेट का मैच था। थोड़ा और कुरेदने पर मालूम हुआ कि वह IOWA STATE CRICKET TEAM में हैं। अब अमेरिका में तो क्रिकेट खेला नहीं जाता। जाहिर है कि यह क्रिकेट टीम देसियों से ही मिलकर बनी है। यानी कि जब आप अपने STATE की टीम में हो तो हो सकता है आपको पाकिस्तानी या बंगलादेशी भाई के साथ अपने भारतीय भाई के विर्रुद्ध खेलना हो!! यानी यहाँ सब देसी भाई भाई हैं।
एक और वाकया बताना चाहूंगी। एक मेरी पाकिस्तानी सहेली है। उसके घर गयी तो उसने पूछा कि क्या कोई भारत जाने वाला है? उसे कुछ सामान मँगाना था जो कि हालाँकि अमेरिका में मिलता है पर ४-५ गुना बढे हुए दाम पर और कोई पकिस्तान नहीं जा रहा था। इसीलिए वह चाह रही थी कि कोई भारत से उसका सामान लेता आए। मैंने उसे उसे बातों बातों में बताया कि यहाँ तो जब भी कोई भारत जाता है तो वहां से दही जरूर लाता है ताकि यहाँ रहने वाले भारतीयों को घर का दही ज़माने के लिए जामन मिल जाए। (यहाँ कई देसी परिवार ऐसे हैं जो यहाँ का YOGHURT खाना पसंद नहीं करते।)
पलट कर उसने मुझे बताया कि उसके घर में जो दही रखा है, वह भारतीय जामन से ही जमा है!!! जो कि उसके पास NEW YORK से होता हुआ आया है।
यह सुनकर एक अनुभूति हुई। समझ नहीं आ रहा उसे क्या नाम दूँ?? सोचने पर मजबूर हो गयी कि ऐसा क्या है जो हमें अलग करता है?? हमारा खाना भी अहमद के अचार के बिना उतना ही फीका लगता है जितना उनकी चाय हल्दीराम कि भुजिया के बिना! हम नुसरत साहब को उसी अदब और चाव से सुनते हैं जितना कि वह शाहरुख़ को देखते हैं! हमने भी अना और मूरत (पाकिस्तानी सीरियल) को उतना ही सराहा है जितना उन्होंने क्यूंकि... और सात फेरे को!!!
फिर क्यों हम एक दूसरे के दुश्मन हैं?? काश इस सवाल का जवाब देश को अपनी जागीर समझने वाले ४७ के 'महान' नेता भी दे पाते।
आज एक बात मन में उठी है। क्या एक चम्मच दही जो सात समंदर पार करके आता है और सरहद पार के घरों के खाने का स्वाद बढ़ता है, उसमें हम अपने प्यार, विश्वास की चीनी नहीं मिला सकते?? जिससे हमारे दिलों की खटास कुछ तो कम हो जाए!!
एक चम्मच जामन के बहाने ही सही हम कुछ करीब तो आयें!!
बस इसी दुआ और आशा के साथ....

शुक्रवार, 27 जून 2008

अपने लिए....

प्रिय मैत्रेयी,
"मेरी" कहने का अधिकार नहीं है अब। कभी नहीं सोचा था कि तुम्हें इस तरह से पत्र लिखूंगा। पर कहते हैं न, मनुष्य के अन्तिम समय में वो अपने अतीत को जीने लगता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। क्या करूँ? कुछ दिनों से मेरा दिमाग मेरा साथ नहीं दे रहा। दिल तो खैर पहले ही साथ छोड़ चुका था। तुम्हारे बाद जीवन में कुछ बचा था तो बस तुम्हारी यादें। पर वो भी अब चुक गयी हैं। इससे पहले कि आँखे हमेशा के लिए मुंद जाएँ, एक बार आ जाओ। शायद कुछ यादें फिर बन जाएँ? डॉक्टर कहते हैं सिर्फ़ ५-६ महीने। पर मैं जानता हूँ कि तुमसे मिले बिना नहीं जा पाऊंगा। आजकल अपने पुश्तैनी घर में हूँ। अम्मा तो ४ साल पहले गुजर गयीं। अब अकेला ही हूँ। अगर आ सको तो देर ना करना।
तुम्हारा रंजन
जाने सुबह से कितनी ही बार पढ़ लिया पत्र को। परेशान है, हैरान है, नहीं जानती क्या भाव आए गए। सिर्फ़ अतीत झाँक रहा है। जिस अतीत को समय समय पर रौंदती चली आयी है, नहीं सोचा था कि अचानक एकदम सामने आ खड़ा होगा। क्या करे वह? उम्र के इस पड़ाव पर जबकि उसके हमव्यस्क अपने अपने नाती-पोतों में, कीर्तन भजन में व्यस्त हैं, वह अपने पहले प्यार के इस पत्र को पढ़ रही है?? सोचते हुए रौंगटे खड़े हो गए मैत्रेयी के!!
अगर मानसी ने देख लिया तो? वह भी छोड़ के चली जायेगी मानव की तरह? नहीं नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए। इस उम्र में अब और अघात नही सह पायेगी वह।
मानसी के आने का समय हो चला था। आजकल दूतावास के चक्कर काट रही थी। वीजा मिलते ही चली जायेगी वह। फिर अकेली हो जायेगी मैत्रेयी। क्या करे? मानसी को बताये सब? समझदार है, समझेगी माँ के दिल को। वह भी तो हमेशा मानसी की सहेली ही बनी है। आज उसे भी मानसी की जरूरत है।
रात को मानसी के सोने के बाद फिर एक बार पत्र पढ़ा। स्वयं ही एक चेहरा सामने आ गया, जिसे हमेशा भूलने की कोशिश करती रहती थी। उसे लगता था कि यह चेहरा उसे उसके कर्तव्य से डिगा सकता है। नहीं जानती थी कि पहला प्यार कभी नही भूल सकता कोई।
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"बिट्टो, जल्दी करो। भाई तैयार खड़ा है। उसे देर हो रही है।"
"आई अम्मा।"
भाई के साथ ही कॉलेज जाना होगा, इसी शर्त पर बाबूजी माने थे उसे कॉलेज भेजने को। बाबूजी का गुस्सा सब जानते थे और उनके आदर्श भी। आदर्श...... लड़कियों को ज्यादा लिखने पढने की जरूरत नहीं है, माँ या घर की किसी औरत को निर्णय नहीं लेने होंगे। उनका काम है घर पर आराम से बैठ कर अन्य जरूरतें पूरी करना। किसी तरह से मनाया था उसने बाबूजी को कॉलेज जाने के लिए। माँ ने भी बहुत मिन्नतें की थी कि जब तक शादी नहीं हो जाती तब तक पढ़ने में कोई हर्ज़ नहीं है। और फिर आजकल लड़के भी पढ़ी लिखी लड़की चाहते हैं। बाबूजी का कहना था कि दहेज़ हर कमी को पूरा कर सकता है। और फिर मैत्रेयी उनकी इकलौती बेटी है। उसके लिए कोई कमी नहीं। पर माँ ने किसी तरह मना ही लिया था उन्हें।
सच ही था कोई कमी नहीं थी उसे बस एक स्वतंत्रता छोड़ कर। स्कूल कॉलेज हमेशा भाइयों के संरक्षण में गयी। घर पर बाबूजी का संरक्षण। कभी कभी उसे सहेलियों के यहाँ जाने की अनुमति मिल जाती पर वहां भी लाने और ले जाने का जिम्मा किसी न किसी भाई का ही होता।
जब से कॉलेज में आयी थी, उसे लगता था कि घर के बाहर भी एक संसार है। विचारों को पर लग गए थे। अपनी छोटी छोटी बातों को काव्यमय बनाना तो उसने बचपन में ही सीखा था। जब अम्मा रसोई का काम करते हुए गुनगुनाती थी तब वह बहुत ध्यान से सुनती थी। अम्मा के पास कर काम के लिए गाना था! चाहे भूख लगी हो, या किसी देवी से रसोई को भरा पूरा रखने की मिन्नत हो, या घर में किसी को बुखार आने पर उसके ठीक होने की कामना हो, पड़ोस में किसी जचगी में गाना हो, कोई भी अवसर हो, अम्मा के पास हमेशा रेडिमेड गाना मिलता था। अम्मा से ही उसने बातों को गीतों में ढालना सीखा था। कॉलेज की पत्रिका में जब पहली बार उसने कविता लिखी तब बहुत प्रशंसा पायी थी उसने। तभी परिचय हुआ था रंजन से। उससे २ साल सीनियर था रंजन। कई पत्रिकाओं में लिखता भी था। पूरा कॉलेज उसे रंजन कवि ही कहता था। ज्यादा बड़े खानदान का नहीं था। पर अपनी योग्यता के बलबूते ही अपनी साख बनाई थी उसने। जब रंजन ने उसकी प्रशंसा की तो सकुचा गयी थी मैत्रेयी। किसी भी अनजान पुरूष से बात करने का यह पहला अवसर था। वह लड़कियों के स्कूल में पढ़ी थी। कॉलेज में किसी लड़के से मित्रता करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। बाबूजी का साया हमेशा उसके साथ चलता था। उस दिन भी घर आकर बाबूजी के सामने आने से बचती ही रही। पर रंजन इन सब बातों से अनजान था। बहुत सीधे सीधे बात कहने वाला व्यक्ति था वह। उसके बाद मैत्रेयी ने कई बार अनुभव किया कि रंजन उससे बात करने का बहाना ढूंढ़ता रहता था। हालांकि मैत्रेयी कभी भी उसे नही दर्शाती कि उसे उसकी बातों में कोई भी रूचि है, पर कहीं न कहीं उसे भी उसकी बातें अच्छी लगती थीं। धीरे धीरे उनमें औपचारिक बातचीत होने लगी। कब कैसे और कहाँ यह प्रेम में परिवर्तित हो गयी? मैत्रेयी को सोचने का अवसर ही नहीं मिला। कई देर तक दोनों बैठ कर भविष्य के सपने बुनते। उनका एक घर होता, जिसमें मैत्रेयी और रंजन रहते बिना किसी बंधन के। अक्सर दोनों बच्चों के नाम को लेकर झगड़ा कर बैठते थे। रंजन कहता कि बच्चों का नाम 'म' से रखेंगें। मैत्रेयी का कहना था कि 'र' से! तब तय होता कि एक का नाम 'र' से और दूसरे का 'म' से। समय पंख लगा कर उड़ रहा था। मैत्रेयी को पता ही नहीं चलता था कि कब दिन निकल जाता है? उसने अपनी एक अलग दुनिया बना ली थी। जहाँ सिर्फ़ प्रेम, स्वतंत्रता थी। बाबूजी उस दुनिया में नहीं थे। उनका भान तो तब हुआ जब रंजन ने उसे बताया कि उसे उसी कॉलेज में व्याख्याता का पद मिल गया है और उसने अपनी अम्मा से मैत्रेयी के बारे में बात की है। अगले महीने उसकी अम्मा मैत्रेयी के बाबूजी से बात करने जाएँगीं। मैत्रेयी ने सुना तो डर कर रह गयी। बाबूजी को वह जानती थी। वो कभी नहीं मानेंगें। उनके हिसाब से रंजन कभी भी उसे वह खुशियाँ नहीं दे पायेगा जो उसके खानदान की लड़की को मिलनी चाहिए। उसने रंजन को कहा भी पर रंजन का कहना था कि कभी न कभी तो इन सबका सामना करना ही पड़ेगा न। बात भी सच थी। क्या पता बाबूजी का दिल पिघल जाए? क्या पता वो उतने कठोर न हों जितना मैत्रेयी उन्हें समझती है? ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? मना करेंगे न? पर उसको यह अफ़सोस तो नहीं रहेगा न कि उसने कोशिश ही नहीं की।
पर मैत्रेयी क्या जानती थी कि नियति उसके साथ कुछ और ही खेल खेलना चाहती थी। रंजन की अम्मा का अपमान करके भी बाबूजी को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने मैत्रेयी का कॉलेज ही छुड़वा दिया। मैत्रेयी ने कितनी विनती की कि उसको पढ़ाई पूरी करने दो। अम्मा भी बेचारी बाबूजी को मनाती रहीं। पर बाबूजी ने तो जैसे दुर्वासा का रूप ही धारण कर लिया था। आनन फानन में उसकी शादी भी तय कर दी सुधाकर के साथ। सुधाकर के पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। बस बाबूजी को इसी बात से संतोष था। उसने कितने हाथ पैर जोड़े बाबूजी के कि अभी शादी नहीं करनी उसे। मात्र २० की ही तो थी वह! पर बाबूजी को कोई उनके निर्णय से नहीं हिला सका। आखरी बार कॉलेज गयी तो रंजन से भी नहीं मिल पायी। सुना कि वह शहर छोड़ के चला गया। कहाँ गया? किसी को नहीं पता।
विवाह करके मैत्रेयी ससुराल आ गयी। ससुर को मिलाकर ४ भाइयों का संयुक्त परिवार था। ४ ससुर, ४ सासें, जेठ-जेठानियाँ, ननदें, देवर सब मिला कर लंबा चौडा कुनबा। सुधाकर ने उसे पहले दिन ही बता दिया था कि उसे अब जिंदगी भर इन लोगों के साथ ही रहना है। अलग होने कि सपने में भी ना सोचे। सुधाकर के ३ बहनें थी। माता पिता और बहनों के बाद मैत्रेयी के बारे में सोचा जाएगा। उनके लिए माता पिता का कहा पत्थर की लकीर था। मैत्रेयी ने आने के बाद पहले ही दिन से अपने आप को परिस्तिथियों के हिसाब से ढाल लिया। जब पहली बार मायके गयी तब अम्मा की गोद में सर रखकर खूब रोई थी। पर जैसे ही बाबूजी कमरे में आए, उठकर चली गयी। उसे अपना गुस्सा दिखने का और कोई रास्ता नज़र नहीं आया। अम्मा कर भी क्या सकती थीं??
उसकी शादी के ३ साल बाद अम्मा चली गयीं। उसकी मायके से प्यार की वह डोर भी टूट गयी। अब बस राखी-भाईदूज पर एक औपचारिक चिट्ठी के साथ भाइयों को टीका भेज देती थी। बड़े भाई ने अपनी मर्जी से विवाह किया और विदेश जाकर बस गए। छोटा भी अपनी पसंद की पत्नी लाया। बाबूजी की किसी ने नहीं सुनी। छोटे भाई के बेटा होने पर जब सालों बाद मायके गयी, तब बाबूजी की हालत पर तरस आया। भाभी उनको गैरजरूरी सदस्य मानती थी घर का। बाबूजी ने आंखों आँखों में उससे क्षमा मांगी और उसने भी प्रत्युतर में बाबूजी को क्षमा कर दिया। वापस आने के १ महीने बाद उनकी मृत्यु की ख़बर आयी।
सास ससुर की सेवा, ननदों की शादी, देवरों की देखभाल और शादियाँ करते करते पता नहीं कैसे समय निकलता चला गया। पहले मानव, फिर मानसी ने उसके सूनेपन को दूर किया। सुधाकर हलाँकि कभी अपने कर्तव्य में कोताही नहीं करते थे, पर उनके लिए वह घर की एक सदस्य से ज्यादा कभी नहीं रही। मैत्रेयी कभी नहीं समझ पाई कि सुधाकर के मन में क्या है? हमेशा उनको खुश करने की कोशिश करती रहती थी पर उनके पास किसी भी भावना के लिए समय नहीं था। न ही उन्होंने मैत्रेयी से कभी कुछ माँगा न ही पूछा। मैत्रेयी ने भी नियति से समझौता कर लिया था। हाँ उसने लिखना नहीं छोड़ा था। जीवन के अनुभवों को हमेशा कुछ शब्द देती रहती थी।
सुधाकर समय समय पर उसको हिदायत देते रहते थे कि उसके केवल १ सास-ससुर या ३ ननदें ही नहीं हैं। सारा परिवार उसका है। मैत्रेयी तो उनकी सुनती थी और उस पर अमल भी करती थी। पर जैसे जैसे परिवार बढ़ रहा था, छोटे मोटे मनमुटाव भी होने लगे थे। धीरे धीरे बढ़ कर स्थिति यहाँ तक आ गयी थी कि अब सास ससुर की मृत्यु के बाद सब भाइयों के परिवार अलग हो गए थे। सुधाकर यह आघात नहीं सह पाये और मैत्रेयी को अकेला छोड़ गए। उनके जाने के बाद मानव ने व्यवसाय संभाल लिया था। मानसी तो छोटी थी। पढ़ रही थी। मैत्रेयी ने निश्चय किया था कि मानसी को खूब पढ़ाएगी। मानसी शुरू से ही उसके करीब रही थी। शायद छोटी होने के बाबजूद औरत के दिल की बात समझती थी। मानव ने अपनी पसंद से शादी की थी। मैत्रेयी ने खुशी खुशी विनीता को अपना लिया था। पर नियति अभी तक मैत्रेयी से बदला ले रही थी। विनीता स्वतंत्रता की पक्षधर थी। स्वतंत्रता से उसका मतलब मनमानी करना था और उसका मानना था कि परिवार का मतलब है वह और मानव। मानव भी विनीता के सामने मजबूर हो जाता था। जब मानव और विनीता घर छोड़ कर गए, तब मैत्रेयी बहुत अकेली हो गयी थी। पर तब मानसी ही थी जिसने उसे संभाला था।
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टन टन ............ सुबह के ६ बज गए थे। मैत्रेयी ने अपने जीवन के ४८ वर्षों का लेखा जोखा एक रात में कुछ शब्दों में कैद किया और डायरी बंद कर दी। किसके लिए?? शायद कोई नहीं है इसीलिए इस डायरी में। रंजन का पत्र भी उसने वहीँ रख दिया। मानसी को जगाना होगा। आज फिर उसे दूतावास जाना है। आज तो वीजा मिल जायेगा। मानसी ने हमेशा उसका सर गर्व से ऊँचा किया है। इंजीनियरिंग के बाद उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जा रही थी।
मानसी को १५ दिन बाद का टिकट मिल गया। १५ दिन!!! इतनी सारी तैयारी करनी होगी। बैठ के बिटिया के साथ समय गुजारे या उसको विदा करने का समान इकठ्ठा करे? पता ही नहीं चला कि १५ दिन कैसे और कहाँ निकल गए? मानव भी उसको शुभकामनाएं देने आया था। विनीता को कुछ जरूरी काम था। मानव ज्यादा रुका नहीं। मानसी ने भी नहीं कहा उसको रुकने के लिए। रात में माँ बेटी साथ ही सोये। मानसी मैत्रेयी के हाथों पर सर रखकर सोयी जैसे बचपन में सोती थी।
सुबह टैक्सी आ चुकी थी। मानसी ने मैत्रेयी को एयर पोर्ट आने से मना कर दिया था। ठीक भी था। वहां जाकर बस बाहर से विदा देनी थी मानसी को। मानसी ने जाते जाते माँ का आशीर्वाद लिया। मैत्रेयी की आँखें भर आयीं। मानसी ने उसके हाथ में एक कागज़ दिया। मैत्रेयी पहले समझ नहीं पाई, फिर सोचा की शायद बेटी ने उसे डॉक्टर की दवाइयों के साथ हिदायत दी है। बाद में पढ़ लेगी।
मानसी के जाने के बाद घर मैत्रेयी को काटने को दौड़ रहा था। हर तरफ़ बस मानसी की यादें ही फैली पड़ी थीं। कुछ देर घर को समेटना नहीं चाहती थी वह। रंजन का पत्र भी दिमाग में कौंध रहा था। पता नहीं कैसा होगा वह? शाम को बैठी तो याद आया कि मानसी ने जाते जाते उसे कागज़ पकड़ाया था। निकाल कर पढ़ने लगी। जैसे जैसे पढ़ती गयी, उसके पैरों तले धरती सरकने लगी। मानसी का पत्र था। लिखा था,
प्यारी माँ,
केवल कहने के लिए तुम्हें प्यारी नहीं कहा है। माँ तुम मुझे सबसे ज्यादा प्यारी हो। अपने बचपन से ही मैंने तुम्हें कभी परेशान नहीं देखा। हमेशा पापा के गुस्से, उनकी अवहेलना को तुम्हारे मुस्कुराते चहरे के पीछे छुपी तुम्हारी आंखों में देखा। तुम मुझे बच्ची समझती हो पर माँ मैं भी आखिर एक औरत हूँ। हमेशा सोचती थी कि पापा क्यों तुमसे ढंग से बात नहीं करते?? क्यों नहीं तुम दोनों कभी कहीं घुमने जाते हो?? क्यों नहीं तुम्हारे और पापा के बीच हँसी- ठिठोला या गिला शिकवा होता? धीरे धीरे समझ आने लगा कि पापा ऐसे ही थे। वो शायद हमसे भी ज्यादा बात ही नहीं करते थे। मैं और मानव भी उनसे जब जरूरी होता था और जितना जरूरी होता था तब और उतना ही बात करते थे। पर हमारे पास तो तुम थीं, हमारे दोस्त थे। तुम्हारे पास कौन था माँ? क्या तुम्हें कभी किसी दोस्त की कमी नहीं खली?मैं हमेशा सोचती थी कि जब मैं बड़ी हो जाऊंगी तब तुम्हारी दोस्त बनूंगी। पर मैं भूल गयी थी कि मैं चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो जाऊं, तुम्हारे लिए तो हमेशा नन्ही बच्ची ही रहूंगी न!मैं जानती हूँ माँ, पापा का जाना तुम्हें उतना नही तोड़ पाया जितना मानव का जाना। पापा तो दूसरी दुनिया में गए थे और फिर उनका होना या ना होना शायद हम तीनों के लिए कोई मायने नहीं रखता था। माँ मुझे माफ़ करना अपने स्वर्गवासी पिता के लिए ऐसे नहीं बोलना चाहिए पर क्या करूँ माँ? मैंने हमेशा तुम्हें पापा की परछाई बने देखा है और पापा!! उनके लिए तो तुम्हारा कोई अस्तित्व ही नही रहा। मैं जानती हूँ कि मानव के घर छोड़ के जाने से तुम बहुत टूट गयी थी। मानव को तुमने पाला पोसा था। बहुत आशाएं लगाईं होंगी उससे। पर उसको भी तुमने हंसकर ही विदा किया था। तुम्हें देख कर कभी कभी गुस्सा आता था। क्या तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए?? क्या तुम्हें हक जाताना नहीं आता?? फिर सोचती थी कि मैं इस लायक बनूँगी कि तुम्हें मानव और पापा की कमी महसूस नहीं होने दूँगी। माँ तुमने मुझे बहुत प्रेरणा दी है। कठिन से कठिन इम्तेहान में हमेशा मुझे उत्साहित किया है। मैं हमेशा स्तब्ध होती थी कि इतना कम पढ़ने लिखने वाली मेरी माँ कैसे मुझे पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करती है?? यह तुम्हारा आशीर्वाद और तुम्हारी तपस्या ही है जो आज मैं किसी लायक बनने जा रही हूँ । कल जब तुम बाज़ार गयीं थीं, तब मेरी नज़र तुम्हारी डायरी पर गयी। यूँ ही उत्सुकतावश उसे पढ़ना शुरू किया। हालांकि मैं जानती हूँ कि यह सही नही है। तुम्हारी डायरी बिना तुम्हारी आज्ञा के नहीं पढ़नी चाहिए। पर सच बताऊँ माँ, 1-2 कवितायें पढ़ने के बाद मुझे अच्छा लगने लगा था। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि मैं एक कम पढ़ी लिखी औरत के शब्द पढ़ रही हूँ। उस डायरी में तुम्हारा बचपन पढ़ा। सच में तुमने बहुत सहा है माँ। शायद तुमने कभी बचपन जिया ही नहीं। सीधे बुढापे को महसूस किया है। तुम्हारा जीवन पढ़ते पढ़ते मैं भगवान् को धन्यवाद दे रही थी कि मुझे इस संसार की सबसे अच्छी माँ दी है। फिर एक पत्र मिला इस डायरी से। तुम समझ गयी होगी कि किस पत्र कि बात कर रही हूँ मैं? माँ मैं तुमसे कुछ नहीं पूछूंगी। जब तुमने नहीं बताया तो जरूर ही नहीं बताना चाहोगी। बस इतना कहूँगी कि अब अपने लिए भी कुछ निर्णय लो माँ। तुमने सबकी मर्ज़ी को अपनी किस्मत बना लिया हमेशा। अब अपने बारे में सोचो। पापा नहीं रहे, मानव को भी अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। मुझे तो हमेशा तुम्हारा सहारा चाहिए पर अब मैं भी तुम्हारा संबल बनना चाहती हूँ। माँ तुम अपने लिए खुशियाँ समेटो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। आज हम सबसे ज्यादा शायद किसी और को तुम्हारी जरूरत है। किसी की अन्तिम इच्छा पूरी करो माँ। मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़कर कुछ नहीं है। तुम्हारे हर निर्णय में तुम्हारी बेटी तुम्हारे साथ है। अब तुम अकेली नहीं हो। किसी को कुछ स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है। मैं हूँ तुम्हारे साथ और हमेशा रहूंगी। तुम्हारे मुंह से "हाँ" सुनने के लिए तुम्हें पहुंचते ही फ़ोन करुँगी। तुम्हारी बेटी
मानसी
पत्र पूरा करते करते मैत्रेयी की आंखों से आंसूं रुक नहीं रहे थे। उसकी नन्ही सी बिटिया इतनी समझदार हो गयी? आज उसे लगा की जीवन की तपस्या सफल हुई है। उसे बेटी के रूप में नया दोस्त मिला है। एक नयी स्फूर्ति के साथ वह उठी। कागज़ कलम लेकर रंजन को लिखने कि वह आ रही है। उसके पास, हमेशा के लिए। कुछ अधूरे सपनों को पूरा करने। अपने सारे कर्तव्यों को निभाने के बाद। आज उसने पहली बार अपने लिए कुछ चुना है। पहली बार अपने लिए कोई निर्णय लिया है।

बुधवार, 18 जून 2008

टॉप ३ भगवान्

कल तक रामभरोसे एक आम आदमी थे। पर आज अचानक खास हो गए। हुआ यूँ कि उनके दूर के रिश्ते के चाचा स्वर्ग सिधार गए। चाचा स्वर्ग सिधार गए, वह कोई बड़ी बात नहीं, बड़ी बात तो यह है कि चाचा बहुत बड़ी ज़मीन के मालिक थे और उनके कोई वारिस नहीं था। अब रामभरोसे को ही उनकी सारी ज़मीन मिलनी थी। हालांकि रामभरोसे औए चाचा की कोई ख़ास पटती नहीं थी!!! फिर भी रामभरोसे को ज़मीन मिली और चाचा को अन्तिम क्रिया करने वाला कोई अपना। हाँ चाचा जाते जाते अपनी वसीयत में यह लिख गए कि इस ज़मीन को बेचा नहीं जा सकता। और इसका इस्तेमाल एक निश्चित अवधि तक हो जाना चाहिए। उस अवधि के बाद ज़मीन रामभरोसे के हाथ से निकल कर सरकार के पास चली जायेगी।
खैर सारा काम निपटने के बाद रामभरोसे बैठे। उनके हाथ तो लौटरी ही लगी थी। और लौटरी के साथ साथ मित्र भी एकाएक बढ़ गए थे। रामभरोसे को इस समय किसी अच्छे मित्र की सलाह की भी जरूरत थी। सोच रहे थे कि इस अचानक आई संपत्ति का कैसे उपयोग करें। पत्नी ने सलाह दी कि इस पर एक आश्रम बना दिया जाए चाचा के नाम से, जिसमें गरीब सताई हुई लडकियां और औरतें रह सकें। रामभरोसे ने पत्नी को ऐसी जलती हुई नज़र मारी कि बेचारी सीधे रसोई में ही घुसी।
सुबह शाम उनके मित्रों की मंडली बैठती। चाय पकौडी के साथ साथ कई तरह के आईडिया भी मिलते रोज़ रोज़। कोई कहता कि स्कूल खोलना चाहिए। तभी दूसरा कहता कि स्कूल में सौ झंझट है। पहले स्कूल खोलने के लिए सरकार से आज्ञा लो, यानी कि पैसा खिलाओ। फिर बच्चे ढूंढो। अब स्कूल खोलना है तो टीचर्स भी रखने होंगें। उन्हें पैसा देना होगा। यह तो घाटे का सौदा हुआ। समाजसेवा तो ठीक है पर पैसा जाएगा।
अगला प्रस्ताव आया कि अनाथ आश्रम खोल लिया जाए। इसका भी तुंरत विरोध हुआ। किसी ने कहा कि आजकल अनाथ आश्रम वाला धंधा भी घाटे का ही सौदा है। बच्चे इकट्ठे होते जाते हैं। मुफ्त की रोटियाँ तोड़ते हैं और बड़े होकर चोर उचक्के ही बनते हैं। अब चोर उचक्के ही बनाना है तो सड़क क्या बुरी चीज़ है??
इस तरह कई प्रस्ताव आए और खारिज हुए। रामभरोसे को भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। ऐसा कौन सा काम शुरू किया जाए जिसमें झंझट भी कम हो और नकद नारायण भी मिल जाए। उन्हें तो अब ज़मीन जी का जंजाल लगने लगी थी।
श्यामसुंदर रामभरोसे के बचपन के साथी थे। उनके पास आजकल कोई काम नहीं था। अतः उनके पास बहुत समय था सोचने का कि रामभरोसे की ज़मीन का कैसे इस्तेमाल किया जाए। आख़िर मित्रता भी कोई चीज़ है। वह दिन रात इसी उधेड़बुन में लगे रहते कि कैसे रामभरोसे की समस्या का समाधान किया जाए। बहुत विचार करने के बाद उन्हें समस्या का समाधान मिल गया। उन्होंने रामभरोसे को सलाह दी कि इस ज़मीन पर एक मन्दिर बनाया जाए। इससे धर्म-कर्म भी हो जायेगा और मन्दिर में आए चढावे से आमदनी भी हो जायेगी। शायद कोई सरकारी अनुदान भी मिल जाए। आख़िर चुनाव समय नजदीक आ रहा था। बस एक पुजारी रखना होगा। उसके अलावा कोई खर्चा नहीं होगा। मजदूर को भी पैसा नहीं देना होगा। आजकल तो बड़े बड़े सेठ मजदूरों को स्पोंसर कर देते है मन्दिर बनाने के लिए। आपका धेला नहीं जाता। फिर मन्दिर का उदघाटन किसी बड़े आदमी से करा लो तो मन्दिर जल्दी ही फेमस हो जाएगा।
रामभरोसे को बात जँच गयी। उन्होंने तय कर लिया कि मन्दिर ही बनेगा। अब अगली समस्या थी कि मन्दिर किसका बनेगा। इस समस्या में दम था क्यूंकि यह निश्चित करना मुश्किल था कि कौन से भगवान् के अनुयायी सबसे ज्यादा हैं जिससे कि मन्दिर को आमदनी अधिक से अधिक हो।
खैर इस समस्या को सुलझाने के लिए मित्रमंडली बैठी। पर जितने मुंह उतनी बातें! किसी को राम जंचते थे तो कोई कृष्ण का अनुयायी था। किसी के देवता हनुमान थे, तो कोई शिव का भक्त था। यानी कि फिर एक समस्या!! पत्नी ने डरते डरते कहा कि क्यों ना सारे देवी-देवता कि मूर्ति स्थापित कर दी जाए?? रामभरोसे ने इस बार पत्नी को घूरा नहीं। उन्हें भी विचार पसंद आया। उन्होंने यह प्रस्ताव मित्रों के सामने रखा। मित्रों ने भी हाँ में हाँ मिलाई। फिर भी साहब, जनतंत्र में कोई प्रस्ताव बिना विरोध के कैसे पारित हो? कुछ लोगों ने सुझाया कि अगर सारे भगवान् को रख दिया जायेगा तो मन्दिर उतना फेमस नहीं होगा। देखो न जितने भी प्रसिद्ध मन्दिर हैं किसी एक ही भगवान् के हैं। बात ठीक भी थी। मन्दिर है कोई दुकान थोड़े ही?? जहाँ विविधता देखने को मिले!! खैर तय हुआ कि किन्हीं ३ भगवानों की मूर्ति स्थापित की जायेगी।
अब घटकर केवल ३ भगवान् ही रह गए। अब प्रश्न था कि कौन से ३??? ब्रह्मा, विष्णु, महेश???? ना यह तो बहुत पुरानी सी बात हो गयी.... राम, कृष्ण, शिव..... नहीं... कौन ३???? इसका फैसला करना निहायत कठिन था। खैर तय हुआ कि वोट कर लिया जाए। जिन तीन भगवानों के नाम की चिट्ठी सबसे अधिक होगी वह टॉप ३ घोषित कर दिए जायेंगे और मन्दिर में उन्हीं को स्थान मिलेगा।
यह समाचार इन्द्र के दरबार में भी पहुँचा। अब जबकि रामभरोसे एक बड़े आदमी बन गए थे तो देवी-देवता भी उन्हें जानने लगे थे। उनकी चर्चा अक्सर होती रहती थी दरबार में। और जब से नारद जी ने यह समाचार सुनाया था कि रामभरोसे मन्दिर खोलने जा रहे हैं, तो सभी देवताओं के मन में आशा की एक लहर जाग गयी थी। क्या पता रामभरोसे की तरह किसकी लौटरी लग जाए??? हो सकता है कि उनके नाम का ही मन्दिर बन जाए!! वैसे भी कलयुग में उनके सामने कम्पटीशन था। आजकल भगवानों से ज्यादा नेताओं की पूछ हो रही थी। और जब से नारद जी ने बताया कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश का चेहरा बदल गया है। ब्रह्माजी अब थोड़ा और बूढे हो गए हैं, विष्णुजी चश्मा लगाने लगे हैं और महेश यानी शिवजी के बाल थोड़े कम हो गए हैं। और तो और माँ अन्नपूर्ण थोड़ा मुटा गयी हैं। और यह सब लक्ष्मी जी की सवारी यानी "कमल" के फूल पर विराजमान हैं तो देवी देवताओं में नेताओं का डर बैठ गया था। क्या भरोसा कब कौन नेता किस देवता का रूप धारण कर लें???
फिर एक नेता ही नहीं, अब अभिनेता और क्रिकेट खिलाड़ी भी फेमस होने लगे थे। अब उनके नाम के मन्दिर और चालिसायें बनने लगी थीं। इसीलिए सभी देवता सतर्क हो गए कि रामभरोसे को पहले ही घेर लिया जाए इससे पहले कि नेता-अभिनेता-खिलाडी इस मैदान में आयें, अपने अपने नामों की रजिस्ट्री करा ली जाए।
अगले दिन तडके ही देवता अपने अपने अभियान पर जुट गए। शिव अपने तांडव से रामभरोसे और मित्रों को खुश करने की जुगाड़ में थे तो राम के पास धनुष की कला थी। कृष्ण अपना भोलापन मक्खन से दिखाने की कोशिश कर रहे थे तो हनुमान के पास बला की ताकत थी। आख़िर रामभरोसे ने निश्चय किया कि सभी देवताओं का इंटरव्यू लिया जाए तब कहीं जाकर बात बनेगी। उन्होंने एक नोटिस निकाला कि फलां दिन इंटरव्यू है।
सब देवता इंटरव्यू की तैयारी में लग गए। इन्द्र की सभा में अब चुप्पी रहने लगी। पार्वतीजी ने शिव जी को २० प्रश्नों की सूची बना के दी। लक्ष्मी जी अब विष्णुजी को रटाने में लग गयीं। कृष्ण राधा रास भूलकर इंटरव्यू की तैयारी करते नज़र आने लगे। बेचारे हनुमानजी सीधे सरस्वतीजी की शरण में भागे। कुल मिला कर स्वर्ग का दृश्य ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई महान एग्जाम होने जा रहा हो।
खैर इंटरव्यू का दिन भी आ ही गया। रामभरोसे, श्यामसुंदर और एक और मित्र फिरौतिलाल की टीम बनी। उन्होंने कुछ प्रश्न तय किए कि कौन से किस देवता से पूछने हैं।
सबसे पहले ब्रह्मा जी का नंबर आया। ब्रह्मा जी सीधे अन्दर चले गए। यह देख कर उन तीनों की भ्रकुटि तन गयी। अरे!! यह भी कोई बात हुई भला??? ना अन्दर आने के लिए पूछना ना नमस्ते ना कुछ। सीधे सीधे कुर्सी पर बैठ गए जनाब!!! खैर सबसे पहला प्रश्न -"आपकी क्या उपलब्धियां हैं??"
ब्रह्माजी-"मैं ब्रह्मा हूँ।"
"तो??"
"मैंने सृष्टि का निर्माण किया है?"
"सृष्टि कहाँ है? उससे हमें क्या मतलब?? आप तो अपनी उपलब्धियां बताइये।"
बेचारे ब्रह्माजी निरुत्तर हो गए।
अगला नंबर शिव जी का था।
उनसे प्रश्न किया गया -"आपके कितने मन्दिर हैं?"
शिवजी ने उत्तर दिया-"बहुत हैं कभी मैंने गिने नहीं। पर कहते हैं कि भारतवर्ष में सबसे ज्यादा मन्दिर मेरे नाम के ही हैं।"
"अरे तो भी आपको संतोष नहीं है? किसी और का नंबर भी आने दो न?"
बेचारे शिव जी!!! इस एंगल से तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था!!!!
इसके बाद राम आए।
"आपने सीता को वनवास क्यूँ दिया था?"
"राज हित में। मैंने सीता को वनवास दिया था पर स्वयं महल में रहते हुए भी वनवासियों जैसा जीवन काटा। उसके बिना महल भी जंगल जैसा लगता था। मैं आप भी भूमि पर सोया, कंदमूल खाया, और....."
"बस बस!! हमने आपसे कोई एक्सप्लेनेशन नहीं माँगा। अगर हमने आपका मन्दिर बनाया तो नारी मुक्ति वाले हमारे ख़िलाफ़ हो सकते हैं।"
अब आया कृष्ण जी का नंबर।
"आपने कौरवों का साथ ना देकर पांडवों का साथ क्यों दिया?"
"क्यूंकि पांडव सत्य की राह पर थे।"
कृष्ण जी से अगला प्रश्न नहीं पूछा। सोचा कि अगर कृष्ण मन्दिर बनाया तो सिर्फ़ वही लोग आयेंगें जो सच बोलते हैं। अब ऐसे लोग तो हैं ही नहीं और हैं भी तो उनकी औकात नहीं है कि मन्दिर को कुछ दान दक्षिणा दे सकें।
अगली बारी हनुमानजी की थी।
"कहते हैं आप में बहुत शक्ति है?"
"हाँ मैं पवनपुत्र हूँ। राम भक्त हूँ। मेरे सारे कार्य मात्र राम नाम से हो जाते हैं।"
यानी कि इनमें अपनी कोई बात नहीं। इनका नंबर भी कट।
ऐसे ही सुबह से शाम हो गयी। रामभरोसे और टीम को कोई योग्य उम्मीदवार नहीं मिला जिसका मन्दिर बनाया जाए।
इसके बाद २-३ दिन और चला इंटरव्यू पर टॉप ३ भगवान् नहीं मिल सके। रामभरोसे की नियत अवधि भी समाप्त होने वाली है।
मेरी आप लोगों से विनती है कि अगर आप रामभरोसे को टॉप ३ भगवान चुनने में मदद कर सकें तो वह आपको दुआएं देंगे। हो सकता है टॉप ३ भगवानों से आपकी सिफारिश भी लगा दें। आखिरकार आजकल भगवान् रामभरोसे जैसों की बहुत सुनने लगे है!!

सोमवार, 16 जून 2008

चलो यह करते हैं!!!

मेरी पिछली पोस्ट पर आप लोगों की दुआओं के लिए धन्यवाद। अब हालांकि बाढ़ का पानी कम हुआ है पर अभी भी बाढ़ की स्तिथि बनी हुई है।
आशा है यह जल्दी ही सुधर जायेगी।
मैंने दिल्ली में अमित (मेरे पति) के साथ बहुत अच्छा समय बिताया है। यह वो समय था जब हम अपने अपने करियर को लेकर एक दूसरे का हौसला बढाते थे और साथ ही डेटिंग भी करते थे!! उसके बाद शादी के बाद कुछ समय भी हम रहे वहाँ। उसी समय को याद करते हुए ही यह कविता लिखी है। आपके विचारों का स्वागत है।
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कल तक जो थीं रोज़ की आम बातें,
अब वो कुछ ख़ास यादें बन गयीं है।
इन यादों में हम एक डुबकी लगाएं।
बिताये थे पल कल संग एक-दूसरे के,
फिर से चलो उन बातों को दोहराएं।
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'कोक-पेप्सी' से प्यास बुझती नहीं है,
'मिनरल वाटर' में सौंधी महक नहीं है।
गला सूख रहा है, पानी की है चाहत,
शायद कोई पुरानी अठन्नी पड़ी हो,
ठंडे पानी के ठेले से चलो प्यास बुझाएँ।
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'बोर' है सुनहरी रेतों का 'हाई-फाई बीच',
'लेजर-पार्कों' से भी अब मन भर गया है।
जनवरी की है देखो गुनगुनी मीठी धूप,
फुरसत भी आज कई दिनों बाद मिली है,
चलो 'इंडिया गेट' चल कर पिकनिक मनाएं।
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नहीं निगलते बनते अब 'बर्गर' और 'पिज्जा' ,
'फाइव स्टार' में भी फीका सा ही है खाना।
चलो देखें गली के उस मोड़ पर अब भी,
शायद कोई एक-आध ठेला खड़ा हो,
"चटपटी और पेशल" चाट खाकर आएं।
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'ब्रांडेड' जींस-कमीजें फीकी हैं, चुभती हैं सारी,
'डॉलर्स' के नीचे दबे कुछ 'रुपये' मिले हैं।
फुटपाथ पर काश वो बूढा बैठा हो अब भी,
तुम मुझे चटक गहरे रंग का दुपट्टा दिला दो,
फिर से उस बेचारे बूढे की "बौहनी" कराएं।
***********
छोड़ दो महंगी विदेशी गाड़ी को घर में,
मत बांधो ख़ुद को 'सीट बेल्ट' में आज,
ना 'ट्रैफिक' का 'टेंशन' ना 'पैट्रोल' की चिंता,
तुम अपने हाथों में बस मेरा हाथ रखना,
मुद्रिका से दिल्ली का एक चक्कर लगाएं।

रविवार, 15 जून 2008

मेरे शहर में बाढ़

बहुत कठिन समय चल रहा है। यहाँ हमारे शहर (cedar rapids, iowa, USA) में पिछले ३-४ दिनों से बाढ़ आई है। पहले पहल तो लगा कि सब सही हो जायेगा जल्दी ही। पर अब लगता है कि वाकई घबराने वाली बात है। पानी का स्तर काफ़ी ऊँचा है। इस स्टेट में पिछले ५० सालों में यह सबसे बड़ी बाढ़ है। downtown area में लोगों के घर और दफ्तर खली करा दिए गए हैं। इस क्षेत्र में इस शहर की नदी स्थित है। सिडार नाम की इस नदी के ऊपर ही इस शहर का नाम भी पड़ा है। वैसे तो यह क्षेत्र बहुत सुंदर और मनोरम है परन्तु आजकल किसी भयानक जगह से कम नहीं लगता। लगातार टीवी देखते हुए निराशा हो रही है। हालांकि हम जहाँ रहते हैं वह जगह बाढ़ से पूरी तरह सुरक्षित है पर यहाँ पानी की पूर्ति में भी कमी आने वाली है। (ऐसे समय में हम अपने बारे में सोचने से बाज नहीं आ रहे!!) यहाँ के water pump house में ४ में से ३ water pump बाढ़ की वजह से ख़राब हो चुके है क्यूंकि वह भी downtown area में ही है। अब water supply department के पास केवल २५% पानी ही बचा है। लगातार लोगों से अपील की जा रही है कि पानी का कम से कम उपयोग करें। केवल पीने और बहुत जरूरी कामों के लिए ही पानी रखें। और अच्छी बात यह है कि लोग इस अपील को मान भी रहे है। हम जैसे देसी भी!! जो भारत में भले ही अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भूल जाएं पर यहाँ पर मान रहे हैं। खैर अच्छा काम कहीं भी करो, अच्छा ही होता है।
लोग अपनी इच्छा से volunteer भी बन रहे हैं जिससे वह लोगों कि मदद कर सकें। यहाँ तक कि यहाँ के governor को भी इस काम में हिस्सा लेते हुए देख रहे हैं टीवी पर!! इन सब से हालांकि हौसला बढ़ा हुआ है। पर फिर भी डर तो है ही। मन ही मन इश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि जल्दी ही इन सब से मुक्ति दे। इस समय जबकि मैं यह ब्लॉग लिख रही हूँ, बाहर बिजली कि कड़कड़ाहट और पानी कि तेज़ आवाज़ हो रही है।
आप भी प्रार्थना कीजिये कि जल्दी ही इस प्रकोप का अंत हो।
इसी दुआ के साथ...........

बुधवार, 11 जून 2008

एक आग का दरिया है....

अजी नहीं, किसी इश्क कि बात नहीं कर रहे हम...
एक दिन इंटरनेट पर बैठे हुए नज़र पड़ी एक ब्लॉग पर। पल्लवी त्रिवेदी का ब्लॉग था और उसमे एक लेख लिखा था उसने "बेशरम की संटी"। उसमें उसने मास्टरों का कहर बताया था छात्रों के ऊपर।
पढ़ते पढ़ते होंठ मुस्कुराते चले गए। और मन में आता रहा की अरे हाँ ऐसा ही तो होता था!!!
खैर यह बात तो हुई छात्रों की। अगर मास्टरों की बात करें तो उनके लिए भी छात्र किसी खौफ से कम नहीं होते। हमने भी कुछ समय के लिए मास्टरी की है। जयपुर के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढाते थे। हर रोज़ राम का नाम लेकर कॉलेज जाते थे।
जिस दिन पहली क्लास लेनी थी, उस दिन तो लगा कि क़यामत का दिन है। कसम से कभी भी पढ़ाने के बारे में नहीं सोचा था। खैर अब जब ओखली में सर दे ही दिया था तो क्या हो सकता था।
पूरे १ साल और ५ महीने पढाया। और सच में एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ कि हमें लगा हो कि अरे इसमे क्या है? यह तो आसान सी चीज़ है। पढ़ा देंगे कैसे भी। हर क्लास के बाद लगता था कि आजकल के बच्चे भी!!!!
और इतना ही नहीं, हद तो तब होती थी जब ऐसा कोई टॉपिक फँस जाता था, जो हमने या तो पढ़ा नहीं, या फिर जानबूझ कर छोड़ दिया था। ऐसे में हमें अपने मास्टरों कि बहुत याद आती थी। बेचारे कितना चाहते थे कि हम लोग हर चीज़ पढ़ लिख जाएं। पर हमें हर टॉपिक पढ़ना अपना समय गंवाना लगता था। अब बुरे फँसे!! पता नहीं क्लास के बीच में ही कौन सा होनहार उठ कर क्या सवाल कर दे?? फिर बगलें झाँकने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रहेगा। और उसके बाद नौनिहालों की खामोश किलकारियाँ?? न बाबा सब कुछ पढ़ना पड़ता था। तब लगता था कि विद्यार्थी जीवन अति उत्तम!!
आजकल के घुड़ दौड़ के समय में कॉलेजों में नया चोचला चला है, "teacher guardian" बनाने का। यानी कि आपके पास बहुत सारे नन्हें मुन्ने सौंप दिए जाते है। आपको उनके सुबह के नहाने धोने से लेकर रात के सपनों तक का हिसाब रखना है। कोई बच्चा क्यों दुखी है? कोई पढता क्यों नहीं है? किसी को घर से क्या परेशानी है.... आदि आदि.... गोया हम मास्टर न होकर कोई "psychaterist" हो गए। खैर काम की खातिर यह भी करते थे। और उसका हिसाब किताब कॉलेज के मैनेजमेंट को देना।
कॉलेज अपना नाम ऊंचा रखने के लिए चाहता था कि उसके बच्चें ही टॉप करें। इसके लिए जरूरी हो जाता था कि उनके नंबर्स अच्छे आयें। और नंबर्स अच्छे आने के लिए क्या जरूरी होता है?? हमें तो यही पता था कि अच्छे से पढ़ना... पर नहीं इस नौकरी ने हमें सिखाया कि छात्रों के अच्छे नंबर्स के लिए जरूरी होता है मास्टरों का अच्छे से पढाना और उससे ज्यादा जरूरी आँखें बंद करके कॉपी जांचना.....
अब कैसे??? क्यों??? के फेरे में ना पडिये आप!!!!
एक किस्सा याद आ गया। एक बच्चे ने कोई शरारत कर दी। हमें भी गुस्सा आ गया। राजपूत खून है, उबल गया। हम भी उससे झूठिमूठी गुस्सा हो गए। और पूरी क्लास हमने इस "lecture" में ही निकल दी। वैसे मन ही मन हम खुश हो रहे थे, की अच्छा हुआ वरना आज भी पढाना पड़ता। उल्टे उसने हमारी मदद ही की थी। पर यह उसे तो नहीं बता सकते थे न!! काश वह यह पढ़ रहा हो। वैसे भगवन की दुआ और अपनी मेहनत से अब वह अच्छा खासा कमा रहा है। जी हाँ उसकी मेहनत और भगवन की दुआ ही है, वरना हम जैसे मास्टर तो.......
खैर हम बता रहे थे कि उसने ऐसी शरारत की कि हमारा खून खौल उठा। हमने कसम खा ली कि क्लास में या तो यह नहीं या हम नहीं.... अब बेचारा लगा माफ़ी माँगने। मन ही मन तो हम खुश हो रहे थे खुशामद करवा के पर ऊपर से गुस्सा भी दिखाना था। जब उसने कई बार माफ़ी मांगी तो हमने दार्शनिक बनते हुए उसे खूब बड़ा ज्ञान दे दिया जो हमने अपने गुरुजनों से सुना था और आखिर में उससे एक सवाल किया- "मेरी जगह अगर तुम होते तो क्या करते?"
अरे वह तो आज का नौजवान!!! तुरंत बिना देर किए बोला "मैडम माफ़ कर देता"
बस फिर क्या था? पूरी क्लास लगी हँसने। और हम अपना सा मुह लेकर रह गए। जाहिर सी बात है माफ़ी तो उसे मिल ही चुकी थी।
यानी कि हमने तो अब मास्टरी से तौबा कर ली है। हालांकि हमारे माँ और बाप दोनों मास्टर रह चुके है। और अगर उन्हें हमारे इन विचारों का पता लग गया तो ना जाने उनके दिलों पर क्या बीतेगी? पर हमने तो आपसे अपने दिल का सच कहा है।

सोमवार, 9 जून 2008

दीये जलते हैं.

भीड़ नहीं बदलती, बाज़ार नहीं बदलते।
पुराने होकर भी यहाँ सामान नहीं बदलते।
रंग रोगन से नया रूप देते है।
यहाँ तो पल पल लोग नियत बदलते हैं।

ख़ुद को नहीं खुदा को कोसते हैं।
दुआ, मन्नत काम आती है कहते हैं।
भरोसा खुदा का है ख़ुद पर यकीं नहीं।
मन्नतों से भी कभी हादसे टलते हैं??

कुछ ऐसे भी होते हैं जो दावतें लेते-देते हैं।
कुछ लोग बिन मौसम के व्रत-रोज़े रखते हैं।
किसी को मयस्सर है मखमली ज़मीन।
कुछ तो लोग धूप में नंगे पैर चलते हैं।

कौन आया कौन गया, किसको ख़बर रहती है यहाँ।
सब अपने अपने में रत रहते हैं यहाँ।
मत कर फक्र कि तू चमकता है आज तो,
यहाँ तो रोज़ ही सूरज निकल कर ढलते हैं।

खैर यह तो वक्त है, बीत ही जायेगा।
इन उम्मीदों पर कायम है इनका जहाँ।
चाहे रोएँ, चीखें, चिल्लाएं... उम्मीद नहीं छोड़ते हैं।
यहाँ तो गीली आंखों में भी सपने पलते हैं।

चाहो तो आसमान छू लो आज।
फिर भी तुम याद कल को ही करते हो।
कल को ना पकड़ो अपनी मुट्ठी में।
यहाँ तो मुट्ठी से रेत के घर फिसलते हैं।

कभी फलक, कभी चाँद तारों की बात करते हैं।
रहते हैं ज़मीन पर, आसमानों की बात करते हैं।
उनको जाकर बताओ चाँद घट जाता है एक उम्र बाद।
दीवाली पर यहाँ चाँद नही, बस दीये ही जलते हैं।

बुधवार, 21 मई 2008

मिटती हुई दूरियाँ

कितनी बार कहा कि नहीं हूँ मैं इसकी दीदी...... नहीं है यह मेरा छोटा भाई। " पैर पटकती हुई चली गयी श्रुति।
"इतनी सी लड़की और ऐसा गुस्सा!!!! " कसमसा के रह गयी नंदा।
"क्या किया था उसने? अभी क्या जानता है वह? २ साल का भी नही हुआ अभी तो। आने दो शेखर को। आज तो फैसला हो जाना चाहिए।"
सारा बिखराव साफ करते करते शाम हो गयी। सारे कागज़ फाड़ दिए थे गुस्से में श्रुति ने। बुरा लगा था नंदा को। कितनी अच्छी चित्रकारी करती है इस छोटी सी उम्र में। ज़रूर अपनी माँ जैसी......
"माँ..." सोचा नंदा ने। वही तो है न अब श्रुति की माँ... "क्या हुआ सौतेली है तो??"
सफ़ाई करके निवृत हुई तो झाँका श्रुति के कमरे में.... बिना खाना खाए ही सो गयी थी लड़की। उसके पास आयी। सूखे हुए आंसू की लकीर सफ़ेद हो गयी थी। ममता हो आयी नंदा को।
"श्रुति.... बेटा उठो। देखो शाम हो गयी है। इस समय नही सोते बेटा। उठो।"
बिना ना-नुकुर किए उठ गयी वह। चुपचाप चप्पल पहनी। गुसलखाने में जाके हाथ मुंह धोये और आकर अपना बस्ता खोल कर बैठ गयी गृहकार्य करने। इतने समय में एक बार भी नंदा को नहीं देखा। जैसे वह वहाँ थी ही नहीं।
.......
"क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ डॉक्टर?"
एक मीठी से आवाज़ ने मिश्री घोली डा. नंदा के कानों में।
पलटकर देखा नंदा ने।
अचंभित रह गयी वह सामने वाली शक्ल देख कर। कुछ ऐसा ही भाव उतरा सामने वाले चहरे पर भी।
"आप डा. नंदा...... नंदा वशिष्ठ???"
"माधुरी???"
"ओह नंदा तू ही है। तभी मैं कहूँ कि आते समय कौवे ने क्यों आवाज़ दी? आज पुराने परिचित से जो मिलना लिखा था। कैसी है तू?"
"ठीक हूँ। अभी अभी ही इस शहर में आयी हूँ। एक हफ्ता ही हुआ है इस अस्पताल में।"
"और देख तुझे तेरा मरीज़ भी मिल गया। मतलब मिल गयी"
और हंस दी वह।
बिल्कुल वही जिंदादिल हँसी।
"तू तो बिल्कुल नही बदली मधु। बिल्कुल वैसी की वैसी ही है। क्या अमृत खा रही है पिछले १० नहीं नहीं १३ सालों से?"
"हाँ तू भी बिल्कुल वैसी ही है। बस थोड़ी सी और पतली हो गयी और १-२ बाल सफ़ेद भी दिख रहे हैं। "
मुस्कुरा दी नंदा।
"अच्छा बता क्या परेशानी है?"
"परेशानी?"
"अरे तू अस्पताल क्यों आयी है?"
"ओह वह। चल छोड़। मैं तो ठीक भी हो गयी तुझे देख कर। अब चल मेरे साथ। "
"कहाँ?"
"कश्मीर..... अरे बाबा घर और कहाँ?"
"अभी???"
"नहीं १०-१५ साल बाद। अभी नहीं तो कब?"
"मधु.... अभी तो अस्पताल भी बंद नही हुआ। और अगर कोई मरीज़ आया और मैं नही मिली तो बेकार में परेशान होगा। "
"हाँ वह तो है। चल अच्छा मैं शाम ओ तुझे लेने आती हूँ। "
"ठीक है। "
शाम को माधुरी पहुँच गयी उसे लेने। ठीक जैसे स्कूल के लिए लेने को आया करती थी।
कार में बैठते ही बोली माधुरी "अच्छा अब सुना। कैसी है? शादी वादी नही की क्या? और बुढिया होने का इरादा है क्या?"
क्या बोलती नंदा?
खो गयी यादों में....
जितनी जल्दी अच्छा समय निकलता है, बुरा समय उतनी ही मुश्किल से कटता है। वह और रवि..... कितना खुश थे.... साथ साथ पढ़ते हुए, डाक्टरी करते हुए, आने वाले जीवन के सपने बुनते हुए.......
एक ठंडी साँस ली नंदा ने.....
"अरे क्या हुआ?? कहाँ खो गयी मैडम???" मधु उसे झिंझोड़ रही थी.... "उतरो भई कार से। घर आ गया है मेरा..."
"ओह..."
"मधु तूने तो घर बहुत अच्छा सजाया है सच... वैसे भी तेरी पसंद तो हमेशा ही जानदार होती थी।"
"अच्छा जी धन्यवाद... आपकी नज़र है, वरना यह नाचीज़ किस काबिल है?"
ढेरों बात की थी उन्होंने उस दिन.... मधु की जल्दबाजी में हुई शादी, कई जगह का ट्रान्सफर, श्रुति का आना, मधु का अधूरी पढ़ाई पूरी करना... और अब यहाँ इस शहर में पिछले २ सालों से....
"अब श्रुति भी ६ साल की हो गयी है। मैंने एक जगह नौकरी के लिए आवेदन दिया था। उसी के लिए किसी राजपत्रित अधिकारी का हस्ताक्षर चाहिए था। अब मैंने सोचा कि इस छोटे से शहर में डाक्टर के अलावा और कौन राजपत्रित अधिकारी मिलेगा? इसीलिए अस्पताल आयी थी।
"अच्छा है इसी बहाने हम मिले तो सही। तू तो ना जाने कहाँ खो गयी थी शादी के बाद? मैं भी अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी में खो गयी थी। कई सालों से घर भी नही जा पायी। और पता लगा कि तेरे पापा का भी वहाँ से ट्रान्सफर हो गया है। कोई और सूत्र ही नही था तुझसे मिलने का... खैर... देख किस्मत ने हमें फिर मिला दिया।"
"हाँ यह तो है। अब तू भी तो कुछ अपने बारे में बता न? क्या क्या किया इतने सालों तक?"
"बस स्कूल खत्म करके मेडिकल कॉलेज में आयी.... पता ही नही कैसे ५ साल निकल गए? फिर पी.जी किया.. फिर बस यहाँ वहाँ नौकरी.. और अब यहाँ.."
"और शादी??"
"..."
"क्या हुआ? शादी नही की?? रवि?? "
"...."
"क्या हुआ नंदा?? उसने तुझे धोखा दिया क्या?? मुझे तो पहले से ही पसंद नही था वह... तुझे न जाने क्या दिखता था उसमें?? मैंने तुझे पहले ही..."
"नही मधु ऐसी कोई बात नही... रवि ने मुझे कोई धोखा नही दिया..... धोखा तो मेरी किस्मत ने दिया है मुझे..."
"मतलब??"
"रवि अब इस दुनिया में नही है..."
आगे कुछ नही कह पायी नंदा....
"ओह.... पर... कब??? कैसे??"
"ह्म्म... क्या बताऊ?? बस सब कुछ सही चल रहा था.... हमारी शादी को १५ दिन ही बचे थे..... अपनी ही शादी का कार्ड बांटने जा रहा था.... एक एक्सीडेंट.... और सब खत्म..... "
माधुरी के पास कोई शब्द नही थे उसे दिलासा देने को..... अपनी इस कम बोलने वाली सहेली को कहती भी क्या??? कोई शब्द उसका दुःख कम नही कर सकता था....
माहौल बहुत भारी हो चला था.... तभी श्रुति आ गयी शोर मचाते हुए....
"मम्मी देखो मुझे फिर से पेंटिंग में प्रथम स्थान मिला है..."
"अरे वाह... मेरी प्यारी बिटिया... नंदा यह है श्रुति... बेटा नमस्ते करो. यह नंदा आंटी... नहीं मौसी है..."
"नमस्ते...." शर्माते हुए बोली श्रुति.
यह था श्रुति से प्रथम परिचय...
..............
"क्या बात है??? आज खाना नही मिलेगा क्या??"
हंसते हुए शेखर ने पूछा तो अतीत से बाहर निकली नंदा... अक्सर ही ऐसा होता है.... यह श्रुति इस तरह से दिमाग ख़राब करती है कि उसे घर की कोई सुध ही नही रहती... थक जाती है दिन भर.... अस्पताल, घर, बच्चा.... और उस पर यह लड़की.... जितना ही नंदा उसको समझने की कोशिश करती है, वह उसे उतना उलझा कर रख देती है... आखिर गलती कहाँ हुई है नंदा से?? वह तो पूरी इमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करने की कोशिश करती है... फिर भी.... हर बार यह लड़की उसे एहसास दिलाती है की वह उसकी सौतेली.....
सोचते हुए भी बुरा लगता था नंदा को...
"नंदा.. क्या बात है??? कोई परेशानी है?"
"न...नहीं बस एक केस है अस्पताल में उसी में उलझी हूँ।"
हर बार की तरह फिर नही कहा शेखर को.... सोचा क्यों परेशान करे उन्हें? आख़िर उसे ही संभालना होगा सब कुछ...
खाना खाकर लेटी तो फिर यादें पीछा करने लगी... कैसे इन यादों को पता चलता है की वह उनसे दूर जाना चाहती है?? तभी आकर उसे दबोच लेती हैं...
.................
.................
बहुत अच्छा लगा था उस दिन मधु के घर। जैसे कई बरसों बाद उसने जीना सीखा। कई बरसों बाद वह हँसी। शेखर का स्वाभाव भी बहुत अच्छा था। नंदा को लगा ही नहीं कि वह पहली बार मिली थी उनसे। और श्रुति... वह तो बस नंदा की दोस्त ही बन गयी उस दिन से... कितनी अच्छी पेंटिंग करती थी वह... उसने कहा भी मधु से। "तुने इसे बिल्कुल अपने गुण दिए है मधु। देखना तुझसे भी अच्छी पेंटिंग करेगी यह..."
मधु का सर गर्व से ऊँचा हो गया था। एक ममता भरी मुस्कान के साथ।
उस दिन के बाद अक्सर ही जाने लगी वह उनके घर.... कभी मधु के साथ तो कभी श्रुति के साथ उसके दुःख कम ही होते थे। वह भी ऊब चुकी थी अपने दुखों से...
पर दुःख.... यह पीछा क्यों नही छोड़ते उसका?? उन्हें कहाँ से पता मिल जाता है उसका???
शायद उसी की काली परछाई मधु के घर पर पड़ गयी थी...
वह दिन मधु की नौकरी का पहला दिन था.... और मधु की ज़िंदगी का आखिरी... सड़क पार करते हुए अचानक... कब, कैसे और कहाँ घट जाते हैं हादसे...
उसे आज भी याद है.. खून से लथपथ मधु का चेहरा... उससे विनती ही कर रही थी "नंदा मेरी श्रुति का ख्याल...."
ठीक से बोल भी नही पा रही थी...
"मधु कुछ नही होगा.... तू ज्यादा बोल मत.... जल्दी ही ठीक हो जायेगी तू.."
"नन्दा मु..झ्से.. वादा कर मेरी श्रुति का ख्याल रखेगी.... शेखर को संभाल लेगी न???"
"...."
"बोल न नंदा........... मेरी.......... श्रुति.......... शेखर....... नंदा बोल न......"
"हाँ मधु.... तू अब चुप रह.... ज्यादा मत बोल..."
और चुप ही हो गयी मधु.... शायद उसे तसल्ली हो गयी थी की नंदा उसके परिवार को...
कितना चुप हो गया था मधु का परिवार?? कहाँ तो बस सबके कहकहे गूंजते थे... और कहाँ यह सन्नाटा?? नंदा को उसके घर जाते हुए भी डर लगता था.... उससे यह सन्नाटा सहन नही होता था...
फिर भी जीवन तो जीना ही पड़ता है... फिर से जीने लगे थे वह लोग.... फिर से श्रुति ने पेंटिंग शुरू की.... शेखर ने अपना ऑफिस और नंदा ने अस्पताल....
ऐसे ही चल रहा था सब कि एकदिन शेखर अस्पताल आए.... घबराए हुए लग रहे थे...
बताया कि श्रुति को तेज़ बुखार है.. अपने ऑफिस में व्यस्त होने कि वजह से कई दिनों से ध्यान नही दे पा रहे थे श्रुति पर... शायद बारिश में भीग गयी थी या क्या?? कुछ जान भी नही पा रहे थे शेखर....
नंदा तुरंत आयी उनके साथ घर...
देखा तो काँप रही थी वह। फौरन उसने दवाई दी। सारी रात उसके माथे पर पट्टी रखते हुए बीती थी। सुबह कुछ कम हुआ बुखार।
अगले दिन भी उसने अस्पताल से छुट्टी ले ली थी। पता नही क्यों, पर श्रुति को इस हालत में छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था।
शायद उसी दिन से उस घर ने नंदा को बाँध लिया। पता नहीं, अकेले रहने का एहसास था या श्रुति पर ध्यान न दे पाने का अफ़सोस... उस दिन शेखर ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा और नंदा भी ना नहीं कह पाई।
एक छोटी सी औपचारिकता हुई कोर्ट में और नंदा हमेशा के लिए उस घर में आ गयी।
उसके बाद से दुनिया ही बदल गयी। किसी को अपना कहने का एहसास बरसों बाद हुआ उसे।
सब बदला बदला लग रहा था और श्रुति भी....
शायद उसने कहीं पढ़ा था या फिर किसी से सुन लिया था की सौतेली माँ बहुत सताती है। उस दिन से बस श्रुति भी बदल गयी। शेखर से भी कटी कटी रहने लगी थी। शेखर शायद समझ नहीं पाये, पर नंदा..... उसकी क्या गलती?
सोचती थी की समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। पर..... बात तो बिगड़ती ही जा रही थी। हालात तब और बिगड़े जब नंदन आया। श्रुति कभी उसे भाई नही मान सकी.....
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सोचते सोचते ही सुबह हो गयी। यह रात भी आंखो में ही कटी नंदा की........ बहुत परेशान हो चुकी है वह... शुक्र है आज इतवार है... आज तो शेखर से बात करनी ही होगी। वरना शायद बहुत देर हो जाए।
नाश्ता करने के बाद शेखर हमेशा की तरह कंप्युटर पर बैठ गए। आज श्रुति की सहेली का जन्मदिन था। वह वहाँ गयी थी।
नंदा को मौका सही लगा। शेखर के पास गयी और पता नहीं किस रौ में सारे हालात बता दिए। शेखर तो जैसे जड़ ही हो गए।
"इतने दिनों.... सालों तक तुमने बताया क्यों नहीं?"
"क्या बताती??? लगता था सब ठीक हो जाएगा अपने आप समय के साथ। पर अब मुझसे अकेले नहीं संभालता सब.... मुझे माफ़ कर दो शेखर... मैं ना तो इस घर को बचा पा रही हूँ और ना ही श्रुति को संभाल पा रही हूँ।"
"पगली..... यह सिर्फ़ तुम्हारी जिम्मेदारी थोड़े ही है। माफ़ तो तुम मुझे कर दो। मैंने ही कभी घर पर ध्यान नहीं दिया। पर अब इन हालातों का हमें मिल कर सामना करना है।"
"पर हम करेंगे क्या?"
"कुछ न कुछ तो करना ही होगा नंदा। वरना बात बिगड़ती जायेगी।अब तुम परेशान मत हो। कोई न कोई रास्ता जरूर निकल आयेगा।"
बहुत रहत मिली नंदा को। सच में कोई साथ हो तो हर परेशानी कम हो जाती है।
..............
"अब क्या है?" कितनी अकड़ से बात करती थी श्रुति। नंदा ने उसे अपने पास बुलाया था। उसे बताया कि उसका ट्रान्सफर हो गया है और नंदा और नंदन दोनों इस घर से जा रहे हैं।
"अच्छा.... तो??"
क्या कहती नंदा??
"बस यही बताना था बेटा। अब तुम्हे थोड़ा जिम्मेदार बनना होगा। अब पापा का भी ख्याल रखना होगा। मैं आती जाती रहूंगी...... फिर भी......."
"ठीक है। अब मैं जाऊँ?"
"ह्म्म जाओ।"
.................
बाहर मिलने तक नही आयी थी श्रुति। जैसे उसे कोई मतलब ही नहीं है उन दोनों से। खैर..... कर भी क्या सकती थी नंदा? शेखर को भी बुरा लगा था। फिर भी......... वो जानते थे की इस समय कुछ कहना ठीक नहीं होगा उससे। अपने आप ही सब ठीक होगा।
नंदा के जाने के बाद सबसे पहली समस्या आयी कामवाली की। खाना बनाना सबसे मुश्किल काम था। इतने सालों में शेखर की आदत भी छूट गयी थी। किसी तरह एक खानेवाली मिली।
उफ्फ्फ़ पहला कौर खाते ही श्रुति की हालत ख़राब हो गयी। कितनी मिर्च!!!! पानी के सहारे ही खाना खाया उसने। स्कूल में टिफिन भी नही छुआ। मन ही नहीं हुआ। कुछ थोड़ा बहुत दोस्तों का खाया। घर आयी तो ताला लगा था। याद आया स्कूल से आने पर नंदन खेलता मिलता था। नंदा भी दोपहर में थोड़ी देर के लिए घर आ जाती थी। उसे खाना खिला कर फिर वापस जाती थी।
अपने आप पड़ोस से लेकर ताला खोला। कपड़े बदल कर ठंडा खाना खाने बैठी। निगला नहीं गया। फिर से मिर्च!!! आधा खा के छोड़ दिया। फिर अपना होमवर्क करने बैठी। मन नहीं लग रहा था उसका। पता नहीं क्यों? वह ख़ुद आश्चर्यचकित थी। ऐसा कभी नहीं हुआ था।
शाम को पापा आए तो भी घर खाली खाली ही लग रहा था।
"शायद इस घर को 'उनकी' और नंदन की आदत हो गयी है".....
श्रुति कभी भी नंदा को माँ नही मान सकी। पता नहीं क्यों?? जबकि नंदा ने हमेशा उसके साथ दोस्ताना व्यवहार ही किया है। पहले ऐसा नहीं था। श्रुति को नंदा का साथ हमेशा अच्छा लगता था। मधु के जाने के बाद भी उसे नंदा का घर आना कभी बुरा नहीं लगा। वह तो शेखर और नंदा की शादी के बाद ही उसे लगा कि नंदा ने उसकी माँ की जगह छीन ली है और वह नंदा से कटी कटी रहने लगी।
....
"श्रुति खाना तैयार है.... खाने आ जाओ।" शेखर ने पुकारा......
आयी वह...
डाइनिंग टेबल भी खाली खाली लग रहा था।
सुबह फिर वही रूटीन। स्कूल, होमवर्क, खाना, खेलना.......
आजकल पेंटिंग में भी उसका मन नहीं लग रहा था।
नंदा का फ़ोन आता रहता था। श्रुति बात तो नहीं करती थी, पर सुनती बहुत ध्यान से थी। कहीं दूर उसका मन कहता था काश इस इतवार को 'वह' और नंदन आ जाएं। पर क्यों?? इसका जवाब नहीं था उसके पास।
.............
दिन निकलते जा रहे थे।
..............
परसों रक्षाबंधन है। उसे याद आया। नंदन का दूसरा रक्षाबंधन है यह। पहली राखी पर श्रुति ने नंदन को राखी नहीं बाँधी थी। नंदा ने कितना कहा था कि बाँध दो..... पर वह टस से मस नहीं हुई थी। शाम को शेखर ने पूछा भी था कि "नंदन ने राखी नही बाँधी???"
नंदा ने ही बात को संभाला था....
"छोटा है, खींच खींच कर निकाल दी है राखी"
श्रुति को याद आया... नंदा ने कभी भी शेखर से उसकी शिकायत नहीं की। उसे अचानक नंदा और नंदन की याद आने लगी। क्या सचमुच नंदा सौतेली है?? ऐसा कभी नहीं लगा। और क्या मधु उसको डांटती या मारती नहीं थी??? यह सारे सवाल उसके छोटे से मन में घूमने लगे। जैसे जैसे बातें याद आती, उसे अपनी ही गलती दिखायी देती गयी। नंदा ने तो उसे और उसके पापा को संभाला ही था। और नंदन तो उसे देख कर बाद हँसता ही रहता था। शायद आंखों आंखो में उसके साथ बातें करता था, खेला करता था।
शायद श्रुति किसी निर्णय पर पहुँच गयी थी।
...................
शेखर आजकल श्रुति में बदलाव देख रहे थे। वह समझ रहे थे की उसे भी नंदा और नंदन की याद आती है, उनकी तरह। नंदा का फ़ोन आते ही श्रुति किसी न किसी बहने से उनके पास ही मंडराती रहती है। पहले एक-दो बार उन्होंने उससे पूछा भी की वह बात करेगी माँ से?? उसने कोई न कोई बहाना बना कर टाल दिया। फिर उन्होंने पूछना ही बंद कर दिया। पर आखिर वह उनकी ही बेटी थी। उसमें आए हुए बदलाव को वह देख सकते थे। तो क्या यह अच्छे संकेत थे??
..................
"नंदा गुरूवार की राखी है। तुम आ जाओ।"
"देखती हूँ शेखर.... छुट्टी मिली तो जरूर आऊँगी.... वैसे भी आने के लिए राखी कोई बहाना नहीं है.... श्रुति तो नंदन को राखी बांधेगी नहीं।"
"नहीं नंदा मेरा मन कह रहा है की सब जल्दी ही ठीक हो जायेगा।"
"चलो ठीक है, आप कह रहे हो तो कोशिश कर के देख लेते हैं।"
.........................
अगले दिन ही नंदा ने अस्पताल में छुट्टी का आवेदन दिया। उसे छुट्टी मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई। उसके अलावा ३ डाक्टर और थे। बस आवेदन देकर घर आयी और जल्दी जल्दी में समान बाँधा। नंदन को तैयार किया। जो पहली बस मिली, उससे ही घर की ओर चल दी।
"जाने श्रुति कैसे मिले?? उसे अच्छा लगे या न लगे???? इस बार भी नंदन को राखी नहीं बाँधी तो????" इन सब सवालों से घिरी हुई वह आखिर घर आ ही गयी....
उस समय श्रुति अपने कमरे में थी। शेखर ने पहले ही राखी लेकर रखी हुई थी। उन्होंने नंदा को बोला की नंदन को नहला कर तैयार कर दो। फिर श्रुति उसे राखी बांधेगी। नंदा ऐसा कुछ नहीं चाहती थी जिसमें श्रुति की मर्ज़ी ना हो। उसने आंखों आंखों में शेखर को बता दिया। शेखर ने भी ज्यादा ज़ोर नहीं दिया।
..................
नंदा किचन में व्यस्त थी। अचानक शेखर ने उसे पीछे से आकर पकड़ा। वह घूमी तो उन्होंने उसे चुप रहने का इशारा किया। और श्रुति के कमरे में धीरे से जाने को कहा। नंदा डर गयी। वह नंदन को श्रुति के कमरे में सुला के आयी थी। कहीं ऐसा तो नहीं की नंदन ने फिर कोई बदमाशी की हो और श्रुति अपना आप खो बैठी हो......... हे भगवान्........ उसका दिल धड़क गया............
डरते डरते श्रुति के कमरे में गयी..............
जो नज़ारा देखा, उससे सचमुच उसका दिल धड़क गया........... डर से नहीं........... खुशी से..........
श्रुति ने नंदन की कलाई पर राखी बाँध दी थी। और उससे चिपक कर रो रही थी। नंदन को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह तो अपनी श्रुति दीदी के बालों के साथ खेलने में व्यस्त था।
नंदा और शेखर यह देख कर समझ नहीं पा रहे थे की पहले एक-दूसरे को बधाई दें या भगवान् का शुक्रिया अदा करें????
अचानक श्रुति ने दोनों को अपने कमरे में देखा......
वह उठी और दौड़ कर नंदा से लिपट गयी...........
"माँ............" इससे आगे दोनों की हिचकियों में कोई कुछ नहीं बोल पाया।
नंदन हैरान सा देखने लगा... अचानक उसकी दीदी उसे छोड़ के कहाँ चली गयी.... प्रश्न भरी निगाहों से अपने पापा को देखने लगा....
शेखर की आंखो में भी प्रश्न थे....
वह मिटती हुई दूरियों को देख रहे थे.... और मुस्कुरा रहे थे......

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

एक एहसास ताज़गी का

अवाक रह गयी थी रति!!!!
क्या बोल दिया यह सुमित ने ??
इतना बड़ा सच ??
उसने सपने में भी नही सोचा था की सुमित से ऐसे मिलना होगा और उसके बाद ऐसा तूफ़ान आएगा.….
इन दस सालों में भूल ही तो गयी थी वह उसे.....
हाँ याद रखने लायक कोई याद भी तो नही थी उससे जुड़ी हुई…
पर उत्सुकता हमेशा ही रही रति को उसके बारे में जानने की। उसके बारे में ही क्यों , कितने लोग थे जो ज़िंदगी में आगे निकल गए या फिर पीछे रह गए ….
रति को हमेशा ही भूले बिसरे सबकी याद आ ही जाती है.. ऐसी ही है वह। क्या करे ? और कोई काम भी तो नही है न उसे। बस पिछली बातों और लोगों को याद करना , घर का काम निपटना , पति और बेटे की देखभाल …..

…….
सुबह से ही जल्दी थी उसे आज। बारिश होने वाली है। जल्दी जल्दी बाज़ार के लिए नहीं गयी तो आफत ही आ जायेगी। फिर बैठे रहना पड़ेगा बारिश रुकने के इंतज़ार में। काम खत्म करके फटाफट कोई ऑटो पकड़े और घुस जाए किसी मॉल में। फिर होती रहे बारिश उसकी बला से।

“उफ़ ! इन मॉलों में भी कितनी भीड़ होती है आजकल ? लोगों के पास बहुत पैसा है खर्च करने को।”
यही सब सोचते हुए आगे बढ़ रही थी की अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा दिखा। फिर उसे लगा की उसका वहम है। कहाँ वह भी किसी को देख कर एकदम पहचानने की कोशिश करने लगती है। अतुल को उसकी इसी बात पर बहुत गुस्सा आता है। और उन्हें चिढाने का बहाना मिल जाता है।
पर नहीं यह तो सुमित ही है। चलो पास जाकर देख लेते हैं। अगर वह नही होगा तो क्या हुआ ? और अगर कोई और हुआ और उसने रति को ऐसे घूरते हुए देख लिया तो ???

तो क्या ? डरती है क्या वह ?? कह देगी की उसे धोखा हुआ था।
ह्म्म ज़माने ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है की लोग इन छोटी मोटी बातों पर ध्यान न दें …
रति धीरे से उस दिशा में बढ़ी।
हाँ वही है ….
इससे पहले की वह कुछ कहती , सामने वाले की नज़र ही उस पर पड़ गयी …
सामने की आंखों में पहचान का भाव उतरा …. फिर असमंजस का ..
“चलो अब शक दूर किया जाए।” रति ने सोचा।
“सुमित ??”
“रति??”
“हे भगवान्!!! तुम ही हो। मेरा अंदाज़ सही निकला। कैसे हो ? कहाँ हो ? कहाँ थे इतने दिनों तक ? यहाँ कैसे ??”
“अरे अरे ब्रेक दो भाई . इतने सवाल एक साथ??.”
कुछ संकुचा गयी वह.… “नहीं नहीं वह क्या है न की इतने दिनों … सालों बाद अचानक तुम्हें देखा तो …”
“ह्म्म समझ सकता हूँ मैं। पहले ज़रा बिल चुका दूँ फिर तुम्हारी बातों का जवाब देता हूँ ”
“ ठीक है ”
……

“बस कुछ काम से आया था इस शहर में। सोचा जाते समय घरवालों के लिए कुछ लेता चलूँ। इसीलिए यहाँ आज खरीदारी करने आ गया ”
"अच्छा किया। कहाँ रुके हो?"
"कम्पनी का गेस्ट हाउस है।"
"वापस कब जाना है?"
"परसों का टिकट मिला है।"
"अच्छा... चलो फिर तुम घर चलो। अतुल से भी मिल लेना। और घर का खाना भी खा लेना।"
"नहीं रहने दो... तुम्हें परेशानी..."
"हाँजी मुझे परेशानियाँ उठाने का शौक है। अब चलो भी। कैसी अजनबियों जैसी बातें कर रहे हो??"
"अच्छा बाबा चलो। तुम बिल्कुल नही बदली। "
"अच्छा!! मतलब तुमसे यहीं से टाटा कर लेती??"
"नहीं नहीं चलो। वरना बारिश फिर से शुरू हो जायेगी।"
......
घर जाने के बाद थोड़ा काम में उलझ गयी थी वह। खाने का समय भी हो रहा था। अतुल दिन में खाना खाने घर ही आने वाले हैं। बेटा भी आ गया था स्कूल । आते ही उसने घोषणा कर दी कि उसे आज अपने सबसे पक्के दोस्त की "बर्थ-डे पार्टी" में जाना है। और शाम को पापा को उसे वापस लेते हुए आना पड़ेगा।
"मुझे आते हुए आज देर हो जायेगी।" अतुल ने समझाना चाहा बिट्टू को।
"अच्छा है, मुझे देर तक पार्टी में रुकने को मिलेगा। वैसे भी मेरे सबसे पक्के दोस्त कि बर्थ-डे है। मुझे तो रुकना ही चाहिए न??" बिट्टू ने अपना तर्क दिया।
"हाँ तेरे पक्के दोस्त हर महीने बदलते रहते हैं"
"पापा मैं कुछ नहीं जानता। सबके पापा लेने आयेंगें। आपको भी आना होगा बस।"
"अच्छा बाबा आ जाऊंगा।"
.....

पापा बेटे के जाने के बाद वह और सुमित बैठे। ढेर सारी बातें की। पुरानी यादों को ताज़ा किया। कॉलेज के दिनों को याद किया।
उसकी और सुमित की हमेशा ही अच्छे से बात होती थी। उसे हमेशा सुमित का स्वभाव पसंद था। हंसते रहने वाला। बात बात पर चुटकुले। वह भी तो ऐसी ही थी। शायद यही बात थी कि उन दोनों को एक दूसरे का साथ भाता था। समय धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। उनके कॉलेज का भी आखरी साल आ गया। अब चिंता थी नौकरी की। हालांकि यह चिंता लड़कियों को कम ही सताती है, पर उसका हमेशा ही लक्ष्य रहा था अच्छी सी नौकरी का।
आखरी साल भी खत्म हुआ। अब सब अलग अलग दिशाओं में चले गए। ज़िंदगी आगे बढ़ती रही।
रति की भी नौकरी, शादी, बिट्टू.... जब से बिट्टू हुआ है, उसने नौकरी छोड़ दी है। कुछ समय बाद करेगी।
पर अपने दोस्तों को रति हमेशा याद करती रहती थी। कभी भी मौका मिलता था, तो पुराने कॉलेज जाती ज़रूर थी। शायद पुराने दोस्तों का कुछ पता लग सके.. पूजा, प्रिया, नीरजा, रवि, सुमित, राहुल सब कहाँ है? कैसे हैं?
कुछ लोगों से उसका सम्पर्क है। पर सुमित को तो वह पूरे दस सालों बाद देख रही है।
"बदले नहीं तुम। वैसे ही हो। मैं तो मोटी हो गयी है न?"
"हाँ थोड़ा सा "
"अच्छा सच?"
"हा हा हा " हँसी आ गयी सुमित को। " नहीं बाबा नहीं बदली तुम। अभी भी वैसी ही बातें करती हो।"
"और सुनाओ। क्या हाल है? हो कहाँ तुम आजकल? कोई सम्पर्क ही नही रहा तुमसे। किसी से मुलाक़ात हुई तुम्हारी कॉलेज के बाद?"
"हाँ कुछ लोगों से है"
"मेरा भी रोहित, पूजा से ही है। बाकी तो ना जाने कहाँ खो गए। तुम्हारा भी कुछ पता नही। और फिर हमारा वह शहर भी छूट गया। मम्मी पापा अब इसी शहर में आ गए हैं रहने।"
"अच्छा!!! कब??"
"हो गए ४-५ साल।"
"ओह तभी...."
"तभी क्या??"
"कुछ नहीं। तुम्हारे घर का फ़ोन मिला रहा था तो किसी ने उठाया नही था।"
....

"रति क्या तुमने मुझसे सम्पर्क करने की कोई कोशिश नही की?"
"हाँ की थी। पर सबकी तरह तुम्हारा भी कोई पता नही था।"
"बस??"
"और क्या??"
"नहीं कुछ नहीं।"
"कुछ नहीं?? मतलब?? ओहो सुमित तुम हमेशा पहेलियों मी ही क्यों बात करते हो?"
"रति तुम्हें कुछ नही पता?"
"क्या?"
"छोडो जाने दो।"
"क्या सुमित? अरे यार पहेलियाँ मत बुझाओ। तुम्हारी यह आदत नही गयी।"
"रति। तुम मेरे बारे में क्या सोचती थी? मेरा मतलब है..."
"क्या सोचती थी? क्या सोच सकती थी? तुम हमेशा मेरे अच्छे दोस्त रहे थे। बस पता नही कहाँ गायब हो गए थे?"
"मैं अपने आप को तुम्हारे काबिल बनने गया था रति।"
"!!!!!!!"
"हमेशा कहना चाहता था। कभी मौका नहीं मिला। मुझे पता था तुम इसी शहर में हो अपने परिवार में खुश हो। यहाँ आने के पहले मेरे मन में एक हलकी सी उम्मीद थी..... शायद तुमसे मुलाक़ात हो जाए...... बहुत सालों तक इंतज़ार किया तुम्हारा.... शायद कहीं से तुम आओ.... शायद कहीं से तुम्हारा पता मिल जाए.... फिर पूजा से पता चला तुम्हारी शादी के बारे में..... टूट गया था मैं...... गुस्सा भी आया तुम्हारे ऊपर। मेरा इंतज़ार नहीं कर सकती थी? फिर सोचा कि मेरा इंतज़ार कैसे करती तुम??? मैंने कभी तुमसे कुछ कहा ही नहीं। हमेशा सोचता था कि अपने आप को तुम्हारे काबिल बना लूँ, फिर तुमसे और तुम्हारे घरवालों से बात करूँगा... पर लगता है मैंने बहुत देर कर दी... "

"!!!!!!!"

"देखो मुझे ग़लत नही समझना। बहुत हिम्मत करके मैंने अपने दिल कि बात की है।"

"...."

"कुछ तो बोलो रति। चुप नहीं रहो। मुझे ग़लत तो नही समझ रही न?"

"पता नहीं... क्या बोलूं? समझ ही नहीं आ रहा.... ग़लत सही... कुछ भी समझ नही आ रहा.... कभी सोचा ही नही ऐसे। हम कभी ऐसे रहे ही नहीं कि ऐसा सोचूं मैं। सच सुमित मुझे बिल्कुल भी अंदाजा नही था। तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो? जैसे सब वैसे तुम, वैसी मैं.. बस इससे आगे मैं कुछ सोचती ही नही थी। ज़रूरत भी नही हुई.. और आज अचानक इतने सालो बाद.... "

"मैंने परेशान कर दिया ना?? नही करना चाहता था। बस ख़ुद को रोक नही पाया। जब कहना था, तब कुछ नहीं कहा और अब जब इसका कोई मतलब नहीं है, तो यह सब लेकर बैठ गया.... पर रति आज मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए क्या थी? मैंने हमेशा अपनी आगे कि ज़िंदगी को तुम्हारे साथ ही बिताने का सपना देखा था। मैं तुम्हें हर खुशी देना चाहता था। मैं चाहता था कि तुम्हें कभी किसी चीज़ कि कमी न हो। इसीलिए खूब पैसा कमाना चाहता था। और उसके लिए मुझे समय चाहिए था। मुझे समय भी मिला, पैसा भी मिला. बस तुम्हें खो दिया मैंने। "

"फिर अब क्यों कह रहे हो यह सब? क्या फायदा? "

"हर बात फायदे नुकसान के लिए थोड़े ही होती है रति। बस इतने सालों बाद तुम्हें देखा तो रहा नही गया। आज मैं अपनी ज़िंदगी में बहुत खुश हूँ। अच्छी बीवी है, प्यारा सा बेटा है। पैसा है। कोई कमी नहीं है। खूब खुश हूँ। बस तुम्हे देख के लगा कि यह खुशी हम दोनों साथ में बाँट सकते थे अगर मैंने समय रहते तुमसे बात कर ली होती।"

"....."

"अच्छा रति। अगर मैं उस समय तुमसे पूछता तो तुम क्या जवाब देती?"

"क्या सुमित? पता नहीं। शायद हाँ शायद ना। कुछ नहीं पता।"

"रति शायद हाँ भी कह देती न?"

"हाँ "

"बस अब इस बात को यहीं खत्म करो। मुझे खुशी है कि हो सकता है कि तुम हाँ कह देती पर दुःख है कि ऐसा हुआ नहीं।"

"...."

"कुछ मत सोचो रति। अब बोझ मत लो अपने दिल पर। हम बच्चे नहीं हैं। समझदार हो गए हैं। इन बातों से हमें फर्क नही पड़ना चाहिए ना?"

"हाँ...."
........
कहने को तो हाँ कह गयी थी रति। पर क्या सचमुच फर्क नही पड़ा था उसे?? अगर नही पड़ा था तो क्यों बार बार उसने अपना चेहरा आईने में देखने लगी थी?
अगर फर्क नही पड़ा तो क्यों वह अचानक गाने लगी??
अगर फर्क नही पड़ा तो क्यों अचानक उसको टीवी में कार्टून चैनल अच्छा लगने लगा??
अगर फर्क नही पड़ा तो क्यों आज उसका खूब सारा खाना बनाने का मन होने लगा???
क्यों? क्यों? क्यों?
......
अरे आज तो भाई मज़ा आ गया.... चिकन बना लिया तुमने??? क्यों??? अचानक?? अतुल को आश्चर्य हुआ.. कहाँ तो रति उनके पीछे पड़ी रहती है कि छोडो यह मांस खाना..... और कहाँ आज अचानक..... खैर ज्यादा पूछताछ नही कि उन्होंने। सोचा कि कहीं इसका मूड बदल गया तो?
......
मम्मी तुम बहुत अच्छी हो।
"क्यों भाई?" पूछ ही लिया अतुल ने।
"पापा मम्मी ने आज मुझे टिफिन में मैगी दी.... उसके बाद स्कूल से आने के बाद भारत के यहाँ भी छोड़ के आयी खेलने के लिए। फिर मेरे लिए क्रेयोंस भी लाई.."
"क्या बात है? आजकल तुम्हारी मम्मी बदल गयी है।"

सच ही तो है... बदल ही तो गयी है वह..
क्यों???
क्या करना??? अगर बदलाव अच्छा है तो उसकी जड़ क्या खोजनी??
खोजनी??? जड़ उसे मालूम है..
बस उसे पता चल गया है कि वह भी किसी के लिए महत्वपूर्ण है। उसे अच्छा लगा जानके कि कोई उसके बारे में सोचता था।
यह एहसास अच्छा है.... मीठा मीठा..... जैसे किशोर मन का होता है.... वह फिर उड़ने लगी है...
एक ठंडी हवा का झोंका आया और उसकी ज़िंदगी में कुछ ताज़गी डाल गया.....
बस इस एहसास को अपने ही पास रखेगी रति..... हमेशा.... यह एहसास सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका है......
मुस्कुरा दी वह..... दिल से...... सपने में..... कई सालों बाद.......
एक एहसास ताज़गी का