शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

रिप्लाई टू आल

पिछले कुछ दिनों पहले जब अपना email पढने के लिए खोला तो देखा कि एक मित्र का बहुत सारे लोगों को सन्देश आया था.. किसी एक अवसर के लिए जितने लोग आमंत्रित थे, उनको उस मित्र ने कुछ उपहार देने के लिए कुछ सुझाव दिए थे. और साथ ही बहुत विनम्रता के साथ निवेदन भी किया था कि अगर कोई बंधू उत्तर दे तो उसे "reply to all" ना करे. जिससे कि किसी को परेशानी न हो. अब हम सब ठहरे हिन्दुस्तानी!! यानी जिस बात को मना किया जाए, उसे ही करेंगे. ऐसा ही कुछ एक सज्जन ने किया. उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे एक "forwarded message" सब लोगों को भेजा. बस....... अब तो लोगों को बहुत अच्छा मसाला मिल गया अगले को पब्लिकली नीचा दिखाने का!!! उनको तो भाई ऐसी ऐसी गालियाँ पड़ी कि बस..... पर आप इसमें एक बात देखिये.... भाई को जिस बात के लिए कोसा जा रहा था, वही गलती सब कर रहे थे... यानी कि "reply to all" करके उसे धमकी दी जा रही थी कि उसने ऐसे कैसे इस सेवा का आनंद उठा लिया.. १-२ दिन तक तो हमने भी मजे लिए... फिर हमने इंसानियत (या मुसीबत ) के नाते एक बंधू को लिखा कि कम से कम आप तो सबको मत लिखो.... अब तो हमारी शामत ही आ गयी. उस भाई ने हमें जो फटकारा है कि हम क्या बताएं?? मेल पढने के बाद जो गुस्से की आग सुलगी है कि हम ही जानते हैं. (राजपूत खून अपना असर दिखा ही देता है).... पतिदेव को बताया तो वो भी हम पर बरस पड़े... कि तुम्हे क्या जरूरत थी किसी के मुंह लगने की? अपने काम से काम नहीं रख सकतीं?? वगैरह.... वगैरह..... अपने मित्रों को बताया तो उन्होंने भूल जाने कि सलाह दी... (cool down) होने कि.... बस तब से यह बात दिल में कुलबुला रही थी और हमने ठान लिया था कि अपने ब्लॉग-मित्रों के सामने ही अपना दुखडा रोयेंगे.... कम से कम कोई नसीहत तो नही मिलेगी न?? और हमारे दुखते हुए दिल पर सहानभूति (झूठी ही सही) का मलहम लगायेंगे... अब अगर कोई "forwarded message" आता है तो बस पढने के बाद माउस सीधा डिलीट बटन पर ही जाता है... जाते जाते आप लोगों को एक सलाह देना चाहेंगे.... कभी किसी से "reply to all" बात पर पंगा मत लेना.... वर्ना पब्लिक में बे-इज्जती होने से कोई नहीं बचा सकता....

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

नन्ही परी



कहते हैं बच्चे इश्वर का दूसरा रूप होते हैं. जब तक आम्या (मेरी बेटी) हमारे जीवन में नहीं आई थी, तब तक यह बात सिर्फ कहावत थी हमारे लिए. उसके आने के बाद इस बात की गहराई को महसूस किया. अब तो लगता ही नहीं की कभी ऐसा भी था की हम उसके बिना भी रह रहे थे. उसकी एक एक बात हमारे लिए किसी कोहिनूर हीरे से कम नहीं है.

उसके तीसरे जन्मदिन (११ फरवरी) के अवसर पर यह कविता बनाई थी पर ब्लॉग पर अब डाल रही हूँ.



कल की जैसे बात हो, हमारे आँगन को उसने किया गुलज़ार
हमारी ज़िन्दगी में रस घोला, पूरे घर में आ गयी जैसे बहार

दादा-दादी, नाना-नानी को मिला नया खिलौना
पापा और माँ की बाहें बनी उसका बिछौना

पल पल में रोना ही थी सिर्फ उसकी भाषा
हम सब की मनौती, हम सबकी आशा

वो दिन भर की थकन के बाद रात भर का जागना
बस उसकी एक झलक से उस थकन का भागना

उसका घुटनों पर चलना वो पहला कदम
उसकी छोटी पायल की घर भर में छम-छम

समय के साथ धीरे धीरे उसका भी बढ़ना
अपनी बात मनवाने के लिए हम सबसे लड़ना

उसकी शरारत उसकी मुस्कान
उसके गुड्डे गुडिया, मेरे घर के मेहमान

अब तो क्या घर में है होना, बताने लगी है
अपनी बातों से हमें भी अब चलाने लगी है

अब नन्ही मेरी स्कूल जाने लगी है
जैक एंड जिल की कहानी सुनाने लगी है

उसके हाथ अब रंगों को पकड़ने लगे हैं
मेरे घर की दीवारों पर अब घर बनने लगे हैं

मेरा बचपन वो वापस है लायी
मेरे घर में एक नन्ही परी है आई

शनिवार, 14 मार्च 2009

अपनी पहचान

सुबह सुबह फ़ोन की घंटी बजी। (हमारी सुबह ११ बजे के बाद ही होती है।)
हमारी ख़ास सहेली सरिता का फ़ोन था। कुछ परेशान नज़र आई। हम समझ गए कुछ दिनों के लिए कोई मसाला मिल गया है। वैसे भी भाई, सादा जीवन जीने का भी कोई मज़ा है? ना कोई रंग, न उमंग..... कितना बोर जाती है ज़िन्दगी?
खैर, सरिता ने जो हमें बताया उसे सुनकर हमारे पैरों तले ज़मीन ही खिसक गयी भाई। हालांकि हमें किसी मसाले की तलाश थी, पर यह?
हमारी एक और ख़ास सहेली रेनू अपने पति से तलाक लेने जा रही थी। बस फिर क्या था? हमने और सरिता ने तय किया की पूरी बात का पता लगा कर ही रहेंगे।
ठीक एक घंटे बाद हम दोनों रेनू के घर पर थे। हमें देखते ही खुश हो गयी वह। बहुत अच्छे से स्वागत किया हमारा। जाते ही शरबत पिलाया। हम थोड़े हैरान परेशान थे। कनखियों से सरिता को घूरा। कहीं ग़लत ख़बर तो हाथ नहीं लग गयी? एक दूसरे का हालचाल पूछने के बाद इधर उधर को बातें होती रहीं आधे घंटे तक। अब हम कुछ बोर होने लगे थे। (आज के बाद सरिता की बात का विश्वास ही नही करेंगे!!)
तभी अचानक रेनू ने कहा की उसको आज शाम को अपने वकील से मिलने जाना है। हमें और सरिता को जैसे करंट लगा। (सुना है चूहों को करंट पसंद है!)
अब हमारे हाथ बात का जरिया लग गया जिसकी तलाश में थे हम। हमने पूछा की क्यों जाना है वकील के यहाँ?
रेनू- "मैं तलाक लेने जा रही हूँ।"
"क्यों?"
"बस लगता है कि कुछ अपनी पहचान नहीं है। बहुत नीरस हो गयी ज़िन्दगी। सब खाली खाली लगता है।"
(रेनू हमें किसी पहुंचे हुए सन्यासी की तरह नज़र आने लगी )
यह हाल तो हमारा भी था... सोचते हुए अपने सर को झटका दिया......
"खाली खाली मतलब?"
"सब कुछ बेमानी सा"
(जैसे आजकल १०० का पत्ता!!)
लम्बी साँस भरते हुए रेनू बोली।
"तो इसमें तलाक लेने की क्या बात है?" अब बारी सरिता की थी।
"नहीं बस ऐसे ही..."
"ऐसे ही???" हमारा सर घूम गया (ऐसे ही तलाक तो सितारे लेते हैं। इस पर उनका सर्वाधिकार सुरक्षित है )
"मेरा मतलब है कि मैं अपने को जानना चाहती हूँ।"
"हाँ तो?? इसमें तलाक लेने कि क्या जरूरत है?" सरिता ने उपाय बताया " किसी डॉक्टर के पास चली जाओ।" जांच पड़ताल करा लो।" (डॉक्टर से उसका मतलब शायद मनोवैज्ञानिक से था )
रेनू ने थोड़ा घूर के जवाब दिया "नहीं मुझे कोई बीमारी थोड़े ही है? मैं तो भली चंगी हूँ।" बस थोड़ा आज़ादी चाहती हूँ। अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ।"
ऐ लो... घूम फिर के बात वहीँ आ गयी... तलाक क्यों??
अब हमने नाक को दूसरी तरह से पकड़ना ठीक समझा।
"क्या राजेश (रेनू के पति) का किसी और से चक्कर चल रहा है?"
"मुझे नहीं लगता.... पर तुम कभी भी इन मर्दों के बारे में नही जान सकती। कम से कम पतियों के बारे में तो बिल्कुल ही नहीं।"
(मतलब एक कारण यह भी हो सकता है )
"क्या तुम्हे कोई और पसंद आ गया है?"
"क्या मतलब है तुम्हारा? क्या मैं तुम्हे विश्वासघाती लगती हूँ??"
(काश मर्द हमारे बारे में ऐसा न सोचते हों जैसा हम उनके बारे में सोचते हैं!)
"सास ननद की कोई परेशानी?"
"उनकी कोई औकात जो मुझे कुछ करने पर मजबूर करें??"
(इस विषय में बात ना ही करें तो अच्छा है)
"तो आख़िर बात क्या है? क्या कारण है तलाक लेने का? आख़िर वकील को भी तो बताना पड़ेगा कोई कारण"
"मैं बस अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ। सुबह से शाम तक वही एक नीरस ज़िनदगी। घर, बच्चे, रसोई... ज्यादा से ज्यादा किसी के यहाँ मिलने चले जाओ बस.... यह भी कोई ज़िन्दगी है?"
"तुमने नौकरी भी तो अपनी मर्ज़ी से छोड़ी थी न? राजेश को कोई ऐतराज़ नहीं था तुम्हारे काम करने से।"
"हाँ पर सोचती हूँ कि अगर अलग रहूंगी तो अपनी पहचान बना पाऊंगी। कुछ करके दिखा सकती हूँ। किसी पर निर्भर होकर रहने कि क्या जरूरत है? अपने मन से ज़िन्दगी जियो। जब जो करना चाहो वो करो। "
"वो तो अभी भी करती हो न?"
"हाँ पर बंधा बंधा सा लगता है सब"
अब हम उसका वही रिकॉर्ड चालू नही करना चाहते थे। सो हमने पूछा "ठीक है अलग हो जाओगी तो नौकरी भी तो करोगी?"
"जरूरी नहीं है।"
"तो क्या करोगी? कैसे अपना खर्चा चलाओगी?"
"अरे.... राजेश है न? व देगा खर्चा? मुझे नौकरी करने की क्या जरूरत है?"
(रेनू को हम स्कूल के जमाने से जानते हैं। उसका पढ़ाई में कुछ ख़ास दिल नहीं लगता था। किसी तरह बी.ऐ. पास करके टाइपिस्ट की नौकरी पा ली थी )
"पर तुम तो कह रही थी कि तुम किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती"
"हाँ.... निर्भर से मेरा मतलब आर्थिक नहीं, मानसिक था" रेनू ने किसी दार्शनिक कि तरह हमें ज्ञान पेला।
ओह.... यानी सीधे सादे शब्दों में रेनू अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला छुडाना चाह रही है और अपने अधिकारों को इस्तेमाल करना चाह रही है..... ठीक है नारी मुक्ति का ज़माना है। अपनी पहचान बनने का हर किसी को अधिकार है। अगर उसने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई है तो कुछ ग़लत नही किया...
हमने सरिता को (और ख़ुद को भी!!) समझाया।
हमने रेनू को भरपूर साथ देने का वादा किया। वो बहुत खुश हुई कि उसको हम जैसी सहेलियां मिलीं। हमने भी उसका एहसान माना कि उसने हमारे चक्षु खोल दिए। आज से हम भी अपनी पहचान बनाने (कुछ अलग) की कोशिश करेंगे।
धन्यवाद रेनू और उन जैसी सभी नारियों का!! उनको कोटि कोटि प्रणाम!!

शनिवार, 24 जनवरी 2009

मन्नत

कभी कभी कितनी कश्मकश हो जाती है जीवन में? मन कुछ चाहता है पर आप किसी को बोल नही सकते। कितना औपचारिक बन जाता है सब कुछ?

आज ५ दिन हो गए, अस्पताल में ही हूँ... आशा मौसी के पास। उनको छोड़ के जाने का जी ही नहीं कर रहा। कभी नहीं सोचा था कि उनको इस हालत में देखूंगी। पर वही सब कुछ तो नहीं होता न जो हम चाहते हैं। यही ज़िन्दगी है।

आशा मौसी.... हम लोगों के लिए एक प्रेरणा, एक आदर्श... वो हमारी सगी मौसी नहीं हैं। पर सगी से कम भी भी नही हैं। कभी कभी खून के रिश्तों से ज़्यादा मजबूत दिल और प्यार के रिश्ते होते हैं। आशा मौसी हमारे पड़ोस में रहती थीं। उन दिनों अंकल-आंटी कहने का इतना रिवाज़ नहीं था। चाचा, मामा, मौसी, बुआ... बस यही संबोधन सुनने में आते थे। हमारे पास वाले घर में एक छोटा सा परिवार था। पति-पत्नी और दो बच्चे। जब हमारा स्थानांतरण हुआ, तब पिताजी को यही घर उचित लगा। कारण कि उनको अक्सर शहर के बाहर जाना पड़ता था और मैं होने वाली थी तो माँ-पिताजी ऐसे घर कि तलाश में थे जो अस्पताल से दूर भी न हो और पड़ोस भी अच्छा हो। पहली मुलाकात में ही शास्त्री जी पिताजी को अच्छे लगे। बस वो माँ-पिताजी के चाचा-चाची बन गए और मेरे और भइया के नाना-नानी। इस तरह आशा हमारी मौसी बनीं और श्याम हमारे मामा। हलाँकि श्याम हमारे मामा न होकर भइया ही थे। उनकी और मौसी की उम्र में बहुत अन्तर था।

बचपन के दिन बहुत अच्छे होते हैं। अगर इंसान का बस चले तो इस दुनिया में कोई बड़ा ही न हो। मेरा बचपन तो अपने घर से ज़्यादा आशा मौसी के घर में ही बीता है। मौसी के साथ सोना, खाना-पीना, खेलना। कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नही चलता था। यहाँ तक कि मेरा गृहकार्य भी मौसी के ही जिम्मे था। पिताजी भी निश्चिंत होकर बाहर जाते थे। माँ को बहुत सहारा था शास्त्री नाना-नानी के होने से। कौन जानता था कि अचानक ही इस सहारे को सबसे छीन लिया जाएगा। एक बहुत सामान्य दिन था। असामान्य तरीके से गुजर गया। नाना की छाती में अचानक दर्द उठा। श्याम मामा की परीक्षाएं चल रही थीं। वो सुबह जल्दी उठ कर पढ़ाई करते थे। उन्होंने ही नाना को तड़पते हुए देखा। नानी को उठाया। हमारे घर आकर पिताजी को बुलाया। जल्दी जल्दी उन्हें अस्पताल लेकर गए। पर रास्ते में ही नाना की आँखें मुंद गयीं। मैं बहुत छोटी थी पर अचानक कैसे परिवार बिखरता है, इसका एहसास कुछ कुछ हुआ था।

नाना महाविद्यालय में व्याख्याता थे। नानी ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी। श्याम मामा अभी विद्यालय में ही थे। जिम्मेदारियों ने जैसे आशा मौसी को अपने आप ही अचानक बहुत बड़ा बना दिया। हालांकि उनका स्नातक अभी पूरा नहीं हुआ था पर नाना की अच्छी छवि की वजह से उनको क्लर्क की नौकरी उसी महाविद्यालय में मिल रही थी। यह मौका मौसी ने हाथ से जाने नहीं दिया। मौसी ने नौकरी के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। धीरे धीरे ज़िन्दगी ढर्रे पर आने लगी थी। समय आगे बढ़ता रहा। आशा मौसी उस घर का बेटा बन गयी थीं। उन्होंने नानी को कभी एहसास नहीं होने दिया कि घर में किसी बात की कमी है। हमेशा घर का माहौल खुशनुमा बनाने कि कोशिश करती रहती। श्याम मामा का बड़ा भाई बन कर रहती। मामा ने भी मौसी का हमेशा मान रखा। पढ़ाई में हर दम आगे। खेल कूद के साथ साथ, घर के बाहर का काम भी करते। कभी इस बात को महसूस नहीं होने दिया कि घर में किसी बड़े पुरूष कि कमी है। मौसी ने भी बहुत लगन से पढ़ाई की। स्नातकोत्तर करने के बाद पी एच डी की और उसी महाविद्यालय में प्राचार्य बन गयी। ऐसा उस शहर के इतिहास में पहली बार हुआ था। हम सब बहुत खुश हुए थे मौसी का फोटो अखबार में देख कर। इसी बीच पिताजी की सेवानिवृति हो गयी। भइया को भी बैंक में नौकरी मिल गयी। मेरी प्यारी सी भाभी आ गयीं और मेरी भी उसी शहर में शादी हो गयी। शादी के बाद घर आना जाना जब भी होता तो आधा समय मैं आशा मौसी के साथ ही बिताती।

बस इन सब बातों में एक बात रह गयी, जो मैं अब बैठ कर सोच रही हूँ कि हो ही जाती.... वो है आशा मौसी की शादी। अपनी जिम्मेदारियों को निभाते निभाते उनकी शादी की उम्र निकल गयी। मैं नहीं जानती कि उनको इस बात का पछतावा है कि नहीं पर मुझे अवश्य बहुत दुःख है... खासकर आज उनको इस हालत में देख कर। यह बात सबसे पहले मेरे दिमाग में तब आई जब मेरी शादी होने वाली थी। माँ और भाभी बहुत व्यस्त रहती थी उन दिनों। नानी ने घर का काफ़ी काम संभाला था। एक दिन माँ मेरी विदाई को लेकर बहुत दुखी हो रही थीं, तब नानी ने कहा था -"सबसे अच्छी बात तो यह है कि तुम्हे कन्यादान करने का अवसर मिला। हर किसी के नसीब में यह मौका नहीं होता" उन्होंने अपनी आँखें छुपाने की पूरी कोशिश की थी पर मैंने उनके दर्द को महसूस कर लिया था। कितना अजीब है न?

शादी के बाद अपने घर परिवार में मग्न हो गयी मैं। फिर २ सालों बाद ही हमारा स्थानांतरण दूसरे शहर हो गया तो घर आना-जाना उतनी जल्दी जल्दी नहीं हो पाता था। पर आशा मौसी और परिवार की हर ख़बर रहती थी। श्याम मामा की शादी में गयी थी मैं। मामी बहुत अच्छी आई थीं। नानी और मौसी का बहुत ख्याल रखती थीं। माँ-पिताजी को भी पूरा मान देती थीं। मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। खुशी थी आशा मौसी की तपस्या सफल हो गयी थी। अब घर में भी कोई कमी नहीं थी और मौसी भी शहर के जाने माने लोगों में से थीं।

पर आज तक मैं नहीं समझ पायी कि ऐसा क्यों होता है?? किसी की खुशियों को क्यों नज़र लग जाती है?? खुशियाँ समेटने में जहाँ कभी कभी पूरी ज़िन्दगी लग जाती है, उनको बिखरने में एक पल भी नहीं लगता। श्याम मामा और मामी की दुर्घटना और मृत्यु की ख़बर ने मुझे हिला कर रख दिया था। ६ साल के बेटे चिराग को नानी और मौसी की गोद में छोड़ कर चले गए थे दोनों। नानी इस सदमे को नहीं झेल पायीं और कुछ महीनों बाद ही वो भी मौसी को अकेला छोड़ कर चली गयीं। सच में, उस समय मेरा मेरा बहुत मन हुआ मौसी से मिलने का पर बेटे की परीक्षायों की वजह से नहीं जा पायी। जब उनसे मिली, तब तक काफ़ी सामान्य हो गयी थीं मौसी।

नानी के जाने के बाद मौसी को बहुत परेशानी आई। उनकी उम्र भी उतनी नहीं थी की घर, नौकरी और बच्चे की देखभाल कर सकती। थोड़ा बीमार भी रहने लगी थीं। चिराग को किसी बात की कमी महसूस नहीं होने देती थीं। जो कहता, लाकर देतीं। शायद यही उनसे गलती हो गयी। शायद ज्यादा लाड-प्यार ने चिराग को थोड़ा बिगाड़ दिया था। मैं जब उससे पहली बार मिली थी तब वो १० साल का बच्चा था। पर बचपन का भोलापन उसके चहरे पर कहीं नहीं दिखता था। मौसी के कई बार कहने पर भी मेरे पैर नहीं छुए। मुझे खैर कोई बुरा भी नहीं लगा। ज़माना बदल रहा है। साथ साथ आजकल के लोगों की मान्यताएं भी। उसके बाद जब भी घर गयी, तो मौसी को पहले से अधिक कमज़ोर पाया। थोड़े थोड़े दिनों में ख़बर मिल जाती थी कि आज चिराग के स्कूल से मौसी को बुलावा आया था। प्राचार्य को बहुत मिन्नत करनी पड़ी स्कूल से ना निकालने के लिए। नक़ल करता हुआ पकड़ा गया, किसी का सर फोड़ दिया, किसी लड़की कि शिकायत आई है, किसी के भाई ने धमकी दी है......

कुछ समय पहले ही वापस पुराने शहर में आ गयी हूँ। जब से यहाँ आई हूँ, मौसी से लगातार मिलना हो जाता था। अक्सर बीमार रहने लगी थी। मुझे लगता था कि उनकी बीमारी शरीर से ज्यादा मन की थी। शायद उन्हें चिराग की चिंता खाए जाती थी। एक बार उन्होंने दबी ज़बान में मुझसे चिराग के लिए मेरी छोटी बेटी का हाथ भी माँगा था। मैं बहुत असमंजस में आ गयी थी पर मेरी बेटी की ज़िन्दगी का सवाल था। मैंने बोला था कि उससे पूछ कर बताऊंगी। इसी सोच में थी कि मौसी को क्या कहूँ कि उन्हें बुरा भी नहीं लगे। पर लगता है इश्वर ने मेरी समस्या पर अच्छे से गौर किया। मुझे कुछ कहने का मौका ही नहीं मिला। चिराग ने ही मेरी समस्या सुलझा दी। अपने पहचान की ही किसी लड़की से शादी कर ली या यूँ कहें कि शादी करनी पड़ी। लड़की के घरवालों ने डंडे के ज़ोर पर शादी करा ही दी। मौसी ने थोड़े बुझे मन से ही सही पर लता का अच्छे से स्वागत किया। उन्होंने चिराग की खुशी में ही अपनी खुशी ढूढ ली थी। कहती थी की बस अब रिटायर होने के बाद आराम करुँगी।

ऐसा आराम?? अस्पताल में??चिराग की समस्या यह थी कि उसका किसी काम में जी नहीं लगता था। कोई भी नौकरी ६ महीने से ज्यादा टिकती ही नहीं थी। पर ऐश-आराम की आदत पूरी थी। मौसी की वजह से कोई कमी कभी भी महसूस नहीं हुई। बेटा होने के बाद जिम्मेदारियां भी बढ़ गयी थीं और मौसी के रिटायर होने के बाद उनकी पेंशन में गुज़ारा करना लता को बहुत कठिन काम लगता था।

एक दिन मौसी की चीख सुन कर भइया-भाभी दौडे दौडे उनके घर गए। लता ने बताया की मौसी फिसल गयीं। वो तो उसके बेटे के मुंह से निकल गया कि दादी पापा को पैसे नहीं दे रही थीं इसीलिए पापा ने हाथ मोड़ दिया। लता ने बेटे को वहीँ थप्पड़ लगाना शुरू कर दिया। भइया-भाभी दिल पर पत्थर रख कर वापस आ गए कि कहीं मौसी के लिए और मुसीबत न हो जाए। उसके बाद तो मौसी अक्सर ही गिरने फिसलने लगीं। कभी कभी बडबडाने भी लगती। तब चिराग उनका मुंह बंद करता। "बेटे की पढ़ाई डिस्टर्ब होती है न!" लता सफाई देती। यह सब तो मुझे बहुत बाद में पता चला। मुझसे ज़्यादा नहीं सुना गया। मौसी को कहा मेरे साथ चलने के लिए। उन्होंने हँसी में टाल दिया।

काश उस दिन मैं उन्हें साथ ले ही आती तो शायद आज अस्पताल में नहीं होतीं वह। ५ दिन पहले फ़ोन आया था भइया का कि आशा मौसी को अस्पताल ले जा रहे हैं। २ दिन से घर से बाहर दिखायी नहीं दी थीं तो भाभी उनके हालचाल लेने उनके घर गयी थीं। पता लगा २ दिन से कुछ नहीं खाया था। लता ने डॉक्टर को बुलाने की जहमत नहीं उठायी। यह काम भाभी ने ही किया। डॉक्टर ने फ़ौरन अस्पताल ले जाने कि सलाह दी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं भी यहीं हूँ तबसे।

मौसी जब होश में आयीं तब कुछ टूटे-फूटे शब्दों में बताया कि उन्होंने इस महीने की पेंशन लेने से मना कर दिया था। बस उसी का नतीजा था। पहले पिटाई, फिर २ दिन तक खाना बंद। इतना कह कर वापस बेहोश हो गयीं। डॉक्टर का कहना है कि उनकी जीने की इच्छा ही ख़तम हो गयी। साथ ही उनके शरीर में बहुत कमजोरी है। दोबारा उनके होश में आने का इंतज़ार कर रहे हैं सभी। आशा मौसी के पहचान के बहुत सारे लोग आकर जा चुके हैं। मैं लता और चिराग के घडियाली आँसू देख देख कर पक चुकी हूँ। उसके बेटे से मालूम हुआ कि अगर मौसी होश में नही आयीं तो उसके पापा को बहुत मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है।

चाय की तलब लगी है। अस्पताल की कैंटीन में बैठ कर मौसी के बारे में ही बातें दिमाग में आ रही हैं। यहाँ एक छोटा सा मन्दिर भी बनाया हुआ है। शायद वहां कुछ सुकून मिले। यही सोच कर वहां जा बैठी हूँ। मेरे पास में एक लड़की भी बैठी है। अपने पापा के ठीक होने की मन्नत मांग रही है।

मेरी आँखे अपने आप बंद हो गयी हैं। हाथ भी जुड़ गए हैं। मन्नत मांग रही हूँ कि आशा मौसी ने बहुत कष्ट सह लिए। अब शान्ति से चली जाएँ। वापस इस नरक में नहीं आयें....क्या मैंने ग़लत मन्नत मांग ली है????