शुक्रवार, 27 जून 2008

अपने लिए....

प्रिय मैत्रेयी,
"मेरी" कहने का अधिकार नहीं है अब। कभी नहीं सोचा था कि तुम्हें इस तरह से पत्र लिखूंगा। पर कहते हैं न, मनुष्य के अन्तिम समय में वो अपने अतीत को जीने लगता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। क्या करूँ? कुछ दिनों से मेरा दिमाग मेरा साथ नहीं दे रहा। दिल तो खैर पहले ही साथ छोड़ चुका था। तुम्हारे बाद जीवन में कुछ बचा था तो बस तुम्हारी यादें। पर वो भी अब चुक गयी हैं। इससे पहले कि आँखे हमेशा के लिए मुंद जाएँ, एक बार आ जाओ। शायद कुछ यादें फिर बन जाएँ? डॉक्टर कहते हैं सिर्फ़ ५-६ महीने। पर मैं जानता हूँ कि तुमसे मिले बिना नहीं जा पाऊंगा। आजकल अपने पुश्तैनी घर में हूँ। अम्मा तो ४ साल पहले गुजर गयीं। अब अकेला ही हूँ। अगर आ सको तो देर ना करना।
तुम्हारा रंजन
जाने सुबह से कितनी ही बार पढ़ लिया पत्र को। परेशान है, हैरान है, नहीं जानती क्या भाव आए गए। सिर्फ़ अतीत झाँक रहा है। जिस अतीत को समय समय पर रौंदती चली आयी है, नहीं सोचा था कि अचानक एकदम सामने आ खड़ा होगा। क्या करे वह? उम्र के इस पड़ाव पर जबकि उसके हमव्यस्क अपने अपने नाती-पोतों में, कीर्तन भजन में व्यस्त हैं, वह अपने पहले प्यार के इस पत्र को पढ़ रही है?? सोचते हुए रौंगटे खड़े हो गए मैत्रेयी के!!
अगर मानसी ने देख लिया तो? वह भी छोड़ के चली जायेगी मानव की तरह? नहीं नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए। इस उम्र में अब और अघात नही सह पायेगी वह।
मानसी के आने का समय हो चला था। आजकल दूतावास के चक्कर काट रही थी। वीजा मिलते ही चली जायेगी वह। फिर अकेली हो जायेगी मैत्रेयी। क्या करे? मानसी को बताये सब? समझदार है, समझेगी माँ के दिल को। वह भी तो हमेशा मानसी की सहेली ही बनी है। आज उसे भी मानसी की जरूरत है।
रात को मानसी के सोने के बाद फिर एक बार पत्र पढ़ा। स्वयं ही एक चेहरा सामने आ गया, जिसे हमेशा भूलने की कोशिश करती रहती थी। उसे लगता था कि यह चेहरा उसे उसके कर्तव्य से डिगा सकता है। नहीं जानती थी कि पहला प्यार कभी नही भूल सकता कोई।
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"बिट्टो, जल्दी करो। भाई तैयार खड़ा है। उसे देर हो रही है।"
"आई अम्मा।"
भाई के साथ ही कॉलेज जाना होगा, इसी शर्त पर बाबूजी माने थे उसे कॉलेज भेजने को। बाबूजी का गुस्सा सब जानते थे और उनके आदर्श भी। आदर्श...... लड़कियों को ज्यादा लिखने पढने की जरूरत नहीं है, माँ या घर की किसी औरत को निर्णय नहीं लेने होंगे। उनका काम है घर पर आराम से बैठ कर अन्य जरूरतें पूरी करना। किसी तरह से मनाया था उसने बाबूजी को कॉलेज जाने के लिए। माँ ने भी बहुत मिन्नतें की थी कि जब तक शादी नहीं हो जाती तब तक पढ़ने में कोई हर्ज़ नहीं है। और फिर आजकल लड़के भी पढ़ी लिखी लड़की चाहते हैं। बाबूजी का कहना था कि दहेज़ हर कमी को पूरा कर सकता है। और फिर मैत्रेयी उनकी इकलौती बेटी है। उसके लिए कोई कमी नहीं। पर माँ ने किसी तरह मना ही लिया था उन्हें।
सच ही था कोई कमी नहीं थी उसे बस एक स्वतंत्रता छोड़ कर। स्कूल कॉलेज हमेशा भाइयों के संरक्षण में गयी। घर पर बाबूजी का संरक्षण। कभी कभी उसे सहेलियों के यहाँ जाने की अनुमति मिल जाती पर वहां भी लाने और ले जाने का जिम्मा किसी न किसी भाई का ही होता।
जब से कॉलेज में आयी थी, उसे लगता था कि घर के बाहर भी एक संसार है। विचारों को पर लग गए थे। अपनी छोटी छोटी बातों को काव्यमय बनाना तो उसने बचपन में ही सीखा था। जब अम्मा रसोई का काम करते हुए गुनगुनाती थी तब वह बहुत ध्यान से सुनती थी। अम्मा के पास कर काम के लिए गाना था! चाहे भूख लगी हो, या किसी देवी से रसोई को भरा पूरा रखने की मिन्नत हो, या घर में किसी को बुखार आने पर उसके ठीक होने की कामना हो, पड़ोस में किसी जचगी में गाना हो, कोई भी अवसर हो, अम्मा के पास हमेशा रेडिमेड गाना मिलता था। अम्मा से ही उसने बातों को गीतों में ढालना सीखा था। कॉलेज की पत्रिका में जब पहली बार उसने कविता लिखी तब बहुत प्रशंसा पायी थी उसने। तभी परिचय हुआ था रंजन से। उससे २ साल सीनियर था रंजन। कई पत्रिकाओं में लिखता भी था। पूरा कॉलेज उसे रंजन कवि ही कहता था। ज्यादा बड़े खानदान का नहीं था। पर अपनी योग्यता के बलबूते ही अपनी साख बनाई थी उसने। जब रंजन ने उसकी प्रशंसा की तो सकुचा गयी थी मैत्रेयी। किसी भी अनजान पुरूष से बात करने का यह पहला अवसर था। वह लड़कियों के स्कूल में पढ़ी थी। कॉलेज में किसी लड़के से मित्रता करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। बाबूजी का साया हमेशा उसके साथ चलता था। उस दिन भी घर आकर बाबूजी के सामने आने से बचती ही रही। पर रंजन इन सब बातों से अनजान था। बहुत सीधे सीधे बात कहने वाला व्यक्ति था वह। उसके बाद मैत्रेयी ने कई बार अनुभव किया कि रंजन उससे बात करने का बहाना ढूंढ़ता रहता था। हालांकि मैत्रेयी कभी भी उसे नही दर्शाती कि उसे उसकी बातों में कोई भी रूचि है, पर कहीं न कहीं उसे भी उसकी बातें अच्छी लगती थीं। धीरे धीरे उनमें औपचारिक बातचीत होने लगी। कब कैसे और कहाँ यह प्रेम में परिवर्तित हो गयी? मैत्रेयी को सोचने का अवसर ही नहीं मिला। कई देर तक दोनों बैठ कर भविष्य के सपने बुनते। उनका एक घर होता, जिसमें मैत्रेयी और रंजन रहते बिना किसी बंधन के। अक्सर दोनों बच्चों के नाम को लेकर झगड़ा कर बैठते थे। रंजन कहता कि बच्चों का नाम 'म' से रखेंगें। मैत्रेयी का कहना था कि 'र' से! तब तय होता कि एक का नाम 'र' से और दूसरे का 'म' से। समय पंख लगा कर उड़ रहा था। मैत्रेयी को पता ही नहीं चलता था कि कब दिन निकल जाता है? उसने अपनी एक अलग दुनिया बना ली थी। जहाँ सिर्फ़ प्रेम, स्वतंत्रता थी। बाबूजी उस दुनिया में नहीं थे। उनका भान तो तब हुआ जब रंजन ने उसे बताया कि उसे उसी कॉलेज में व्याख्याता का पद मिल गया है और उसने अपनी अम्मा से मैत्रेयी के बारे में बात की है। अगले महीने उसकी अम्मा मैत्रेयी के बाबूजी से बात करने जाएँगीं। मैत्रेयी ने सुना तो डर कर रह गयी। बाबूजी को वह जानती थी। वो कभी नहीं मानेंगें। उनके हिसाब से रंजन कभी भी उसे वह खुशियाँ नहीं दे पायेगा जो उसके खानदान की लड़की को मिलनी चाहिए। उसने रंजन को कहा भी पर रंजन का कहना था कि कभी न कभी तो इन सबका सामना करना ही पड़ेगा न। बात भी सच थी। क्या पता बाबूजी का दिल पिघल जाए? क्या पता वो उतने कठोर न हों जितना मैत्रेयी उन्हें समझती है? ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? मना करेंगे न? पर उसको यह अफ़सोस तो नहीं रहेगा न कि उसने कोशिश ही नहीं की।
पर मैत्रेयी क्या जानती थी कि नियति उसके साथ कुछ और ही खेल खेलना चाहती थी। रंजन की अम्मा का अपमान करके भी बाबूजी को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने मैत्रेयी का कॉलेज ही छुड़वा दिया। मैत्रेयी ने कितनी विनती की कि उसको पढ़ाई पूरी करने दो। अम्मा भी बेचारी बाबूजी को मनाती रहीं। पर बाबूजी ने तो जैसे दुर्वासा का रूप ही धारण कर लिया था। आनन फानन में उसकी शादी भी तय कर दी सुधाकर के साथ। सुधाकर के पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। बस बाबूजी को इसी बात से संतोष था। उसने कितने हाथ पैर जोड़े बाबूजी के कि अभी शादी नहीं करनी उसे। मात्र २० की ही तो थी वह! पर बाबूजी को कोई उनके निर्णय से नहीं हिला सका। आखरी बार कॉलेज गयी तो रंजन से भी नहीं मिल पायी। सुना कि वह शहर छोड़ के चला गया। कहाँ गया? किसी को नहीं पता।
विवाह करके मैत्रेयी ससुराल आ गयी। ससुर को मिलाकर ४ भाइयों का संयुक्त परिवार था। ४ ससुर, ४ सासें, जेठ-जेठानियाँ, ननदें, देवर सब मिला कर लंबा चौडा कुनबा। सुधाकर ने उसे पहले दिन ही बता दिया था कि उसे अब जिंदगी भर इन लोगों के साथ ही रहना है। अलग होने कि सपने में भी ना सोचे। सुधाकर के ३ बहनें थी। माता पिता और बहनों के बाद मैत्रेयी के बारे में सोचा जाएगा। उनके लिए माता पिता का कहा पत्थर की लकीर था। मैत्रेयी ने आने के बाद पहले ही दिन से अपने आप को परिस्तिथियों के हिसाब से ढाल लिया। जब पहली बार मायके गयी तब अम्मा की गोद में सर रखकर खूब रोई थी। पर जैसे ही बाबूजी कमरे में आए, उठकर चली गयी। उसे अपना गुस्सा दिखने का और कोई रास्ता नज़र नहीं आया। अम्मा कर भी क्या सकती थीं??
उसकी शादी के ३ साल बाद अम्मा चली गयीं। उसकी मायके से प्यार की वह डोर भी टूट गयी। अब बस राखी-भाईदूज पर एक औपचारिक चिट्ठी के साथ भाइयों को टीका भेज देती थी। बड़े भाई ने अपनी मर्जी से विवाह किया और विदेश जाकर बस गए। छोटा भी अपनी पसंद की पत्नी लाया। बाबूजी की किसी ने नहीं सुनी। छोटे भाई के बेटा होने पर जब सालों बाद मायके गयी, तब बाबूजी की हालत पर तरस आया। भाभी उनको गैरजरूरी सदस्य मानती थी घर का। बाबूजी ने आंखों आँखों में उससे क्षमा मांगी और उसने भी प्रत्युतर में बाबूजी को क्षमा कर दिया। वापस आने के १ महीने बाद उनकी मृत्यु की ख़बर आयी।
सास ससुर की सेवा, ननदों की शादी, देवरों की देखभाल और शादियाँ करते करते पता नहीं कैसे समय निकलता चला गया। पहले मानव, फिर मानसी ने उसके सूनेपन को दूर किया। सुधाकर हलाँकि कभी अपने कर्तव्य में कोताही नहीं करते थे, पर उनके लिए वह घर की एक सदस्य से ज्यादा कभी नहीं रही। मैत्रेयी कभी नहीं समझ पाई कि सुधाकर के मन में क्या है? हमेशा उनको खुश करने की कोशिश करती रहती थी पर उनके पास किसी भी भावना के लिए समय नहीं था। न ही उन्होंने मैत्रेयी से कभी कुछ माँगा न ही पूछा। मैत्रेयी ने भी नियति से समझौता कर लिया था। हाँ उसने लिखना नहीं छोड़ा था। जीवन के अनुभवों को हमेशा कुछ शब्द देती रहती थी।
सुधाकर समय समय पर उसको हिदायत देते रहते थे कि उसके केवल १ सास-ससुर या ३ ननदें ही नहीं हैं। सारा परिवार उसका है। मैत्रेयी तो उनकी सुनती थी और उस पर अमल भी करती थी। पर जैसे जैसे परिवार बढ़ रहा था, छोटे मोटे मनमुटाव भी होने लगे थे। धीरे धीरे बढ़ कर स्थिति यहाँ तक आ गयी थी कि अब सास ससुर की मृत्यु के बाद सब भाइयों के परिवार अलग हो गए थे। सुधाकर यह आघात नहीं सह पाये और मैत्रेयी को अकेला छोड़ गए। उनके जाने के बाद मानव ने व्यवसाय संभाल लिया था। मानसी तो छोटी थी। पढ़ रही थी। मैत्रेयी ने निश्चय किया था कि मानसी को खूब पढ़ाएगी। मानसी शुरू से ही उसके करीब रही थी। शायद छोटी होने के बाबजूद औरत के दिल की बात समझती थी। मानव ने अपनी पसंद से शादी की थी। मैत्रेयी ने खुशी खुशी विनीता को अपना लिया था। पर नियति अभी तक मैत्रेयी से बदला ले रही थी। विनीता स्वतंत्रता की पक्षधर थी। स्वतंत्रता से उसका मतलब मनमानी करना था और उसका मानना था कि परिवार का मतलब है वह और मानव। मानव भी विनीता के सामने मजबूर हो जाता था। जब मानव और विनीता घर छोड़ कर गए, तब मैत्रेयी बहुत अकेली हो गयी थी। पर तब मानसी ही थी जिसने उसे संभाला था।
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टन टन ............ सुबह के ६ बज गए थे। मैत्रेयी ने अपने जीवन के ४८ वर्षों का लेखा जोखा एक रात में कुछ शब्दों में कैद किया और डायरी बंद कर दी। किसके लिए?? शायद कोई नहीं है इसीलिए इस डायरी में। रंजन का पत्र भी उसने वहीँ रख दिया। मानसी को जगाना होगा। आज फिर उसे दूतावास जाना है। आज तो वीजा मिल जायेगा। मानसी ने हमेशा उसका सर गर्व से ऊँचा किया है। इंजीनियरिंग के बाद उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जा रही थी।
मानसी को १५ दिन बाद का टिकट मिल गया। १५ दिन!!! इतनी सारी तैयारी करनी होगी। बैठ के बिटिया के साथ समय गुजारे या उसको विदा करने का समान इकठ्ठा करे? पता ही नहीं चला कि १५ दिन कैसे और कहाँ निकल गए? मानव भी उसको शुभकामनाएं देने आया था। विनीता को कुछ जरूरी काम था। मानव ज्यादा रुका नहीं। मानसी ने भी नहीं कहा उसको रुकने के लिए। रात में माँ बेटी साथ ही सोये। मानसी मैत्रेयी के हाथों पर सर रखकर सोयी जैसे बचपन में सोती थी।
सुबह टैक्सी आ चुकी थी। मानसी ने मैत्रेयी को एयर पोर्ट आने से मना कर दिया था। ठीक भी था। वहां जाकर बस बाहर से विदा देनी थी मानसी को। मानसी ने जाते जाते माँ का आशीर्वाद लिया। मैत्रेयी की आँखें भर आयीं। मानसी ने उसके हाथ में एक कागज़ दिया। मैत्रेयी पहले समझ नहीं पाई, फिर सोचा की शायद बेटी ने उसे डॉक्टर की दवाइयों के साथ हिदायत दी है। बाद में पढ़ लेगी।
मानसी के जाने के बाद घर मैत्रेयी को काटने को दौड़ रहा था। हर तरफ़ बस मानसी की यादें ही फैली पड़ी थीं। कुछ देर घर को समेटना नहीं चाहती थी वह। रंजन का पत्र भी दिमाग में कौंध रहा था। पता नहीं कैसा होगा वह? शाम को बैठी तो याद आया कि मानसी ने जाते जाते उसे कागज़ पकड़ाया था। निकाल कर पढ़ने लगी। जैसे जैसे पढ़ती गयी, उसके पैरों तले धरती सरकने लगी। मानसी का पत्र था। लिखा था,
प्यारी माँ,
केवल कहने के लिए तुम्हें प्यारी नहीं कहा है। माँ तुम मुझे सबसे ज्यादा प्यारी हो। अपने बचपन से ही मैंने तुम्हें कभी परेशान नहीं देखा। हमेशा पापा के गुस्से, उनकी अवहेलना को तुम्हारे मुस्कुराते चहरे के पीछे छुपी तुम्हारी आंखों में देखा। तुम मुझे बच्ची समझती हो पर माँ मैं भी आखिर एक औरत हूँ। हमेशा सोचती थी कि पापा क्यों तुमसे ढंग से बात नहीं करते?? क्यों नहीं तुम दोनों कभी कहीं घुमने जाते हो?? क्यों नहीं तुम्हारे और पापा के बीच हँसी- ठिठोला या गिला शिकवा होता? धीरे धीरे समझ आने लगा कि पापा ऐसे ही थे। वो शायद हमसे भी ज्यादा बात ही नहीं करते थे। मैं और मानव भी उनसे जब जरूरी होता था और जितना जरूरी होता था तब और उतना ही बात करते थे। पर हमारे पास तो तुम थीं, हमारे दोस्त थे। तुम्हारे पास कौन था माँ? क्या तुम्हें कभी किसी दोस्त की कमी नहीं खली?मैं हमेशा सोचती थी कि जब मैं बड़ी हो जाऊंगी तब तुम्हारी दोस्त बनूंगी। पर मैं भूल गयी थी कि मैं चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो जाऊं, तुम्हारे लिए तो हमेशा नन्ही बच्ची ही रहूंगी न!मैं जानती हूँ माँ, पापा का जाना तुम्हें उतना नही तोड़ पाया जितना मानव का जाना। पापा तो दूसरी दुनिया में गए थे और फिर उनका होना या ना होना शायद हम तीनों के लिए कोई मायने नहीं रखता था। माँ मुझे माफ़ करना अपने स्वर्गवासी पिता के लिए ऐसे नहीं बोलना चाहिए पर क्या करूँ माँ? मैंने हमेशा तुम्हें पापा की परछाई बने देखा है और पापा!! उनके लिए तो तुम्हारा कोई अस्तित्व ही नही रहा। मैं जानती हूँ कि मानव के घर छोड़ के जाने से तुम बहुत टूट गयी थी। मानव को तुमने पाला पोसा था। बहुत आशाएं लगाईं होंगी उससे। पर उसको भी तुमने हंसकर ही विदा किया था। तुम्हें देख कर कभी कभी गुस्सा आता था। क्या तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए?? क्या तुम्हें हक जाताना नहीं आता?? फिर सोचती थी कि मैं इस लायक बनूँगी कि तुम्हें मानव और पापा की कमी महसूस नहीं होने दूँगी। माँ तुमने मुझे बहुत प्रेरणा दी है। कठिन से कठिन इम्तेहान में हमेशा मुझे उत्साहित किया है। मैं हमेशा स्तब्ध होती थी कि इतना कम पढ़ने लिखने वाली मेरी माँ कैसे मुझे पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करती है?? यह तुम्हारा आशीर्वाद और तुम्हारी तपस्या ही है जो आज मैं किसी लायक बनने जा रही हूँ । कल जब तुम बाज़ार गयीं थीं, तब मेरी नज़र तुम्हारी डायरी पर गयी। यूँ ही उत्सुकतावश उसे पढ़ना शुरू किया। हालांकि मैं जानती हूँ कि यह सही नही है। तुम्हारी डायरी बिना तुम्हारी आज्ञा के नहीं पढ़नी चाहिए। पर सच बताऊँ माँ, 1-2 कवितायें पढ़ने के बाद मुझे अच्छा लगने लगा था। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि मैं एक कम पढ़ी लिखी औरत के शब्द पढ़ रही हूँ। उस डायरी में तुम्हारा बचपन पढ़ा। सच में तुमने बहुत सहा है माँ। शायद तुमने कभी बचपन जिया ही नहीं। सीधे बुढापे को महसूस किया है। तुम्हारा जीवन पढ़ते पढ़ते मैं भगवान् को धन्यवाद दे रही थी कि मुझे इस संसार की सबसे अच्छी माँ दी है। फिर एक पत्र मिला इस डायरी से। तुम समझ गयी होगी कि किस पत्र कि बात कर रही हूँ मैं? माँ मैं तुमसे कुछ नहीं पूछूंगी। जब तुमने नहीं बताया तो जरूर ही नहीं बताना चाहोगी। बस इतना कहूँगी कि अब अपने लिए भी कुछ निर्णय लो माँ। तुमने सबकी मर्ज़ी को अपनी किस्मत बना लिया हमेशा। अब अपने बारे में सोचो। पापा नहीं रहे, मानव को भी अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। मुझे तो हमेशा तुम्हारा सहारा चाहिए पर अब मैं भी तुम्हारा संबल बनना चाहती हूँ। माँ तुम अपने लिए खुशियाँ समेटो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। आज हम सबसे ज्यादा शायद किसी और को तुम्हारी जरूरत है। किसी की अन्तिम इच्छा पूरी करो माँ। मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़कर कुछ नहीं है। तुम्हारे हर निर्णय में तुम्हारी बेटी तुम्हारे साथ है। अब तुम अकेली नहीं हो। किसी को कुछ स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है। मैं हूँ तुम्हारे साथ और हमेशा रहूंगी। तुम्हारे मुंह से "हाँ" सुनने के लिए तुम्हें पहुंचते ही फ़ोन करुँगी। तुम्हारी बेटी
मानसी
पत्र पूरा करते करते मैत्रेयी की आंखों से आंसूं रुक नहीं रहे थे। उसकी नन्ही सी बिटिया इतनी समझदार हो गयी? आज उसे लगा की जीवन की तपस्या सफल हुई है। उसे बेटी के रूप में नया दोस्त मिला है। एक नयी स्फूर्ति के साथ वह उठी। कागज़ कलम लेकर रंजन को लिखने कि वह आ रही है। उसके पास, हमेशा के लिए। कुछ अधूरे सपनों को पूरा करने। अपने सारे कर्तव्यों को निभाने के बाद। आज उसने पहली बार अपने लिए कुछ चुना है। पहली बार अपने लिए कोई निर्णय लिया है।

बुधवार, 18 जून 2008

टॉप ३ भगवान्

कल तक रामभरोसे एक आम आदमी थे। पर आज अचानक खास हो गए। हुआ यूँ कि उनके दूर के रिश्ते के चाचा स्वर्ग सिधार गए। चाचा स्वर्ग सिधार गए, वह कोई बड़ी बात नहीं, बड़ी बात तो यह है कि चाचा बहुत बड़ी ज़मीन के मालिक थे और उनके कोई वारिस नहीं था। अब रामभरोसे को ही उनकी सारी ज़मीन मिलनी थी। हालांकि रामभरोसे औए चाचा की कोई ख़ास पटती नहीं थी!!! फिर भी रामभरोसे को ज़मीन मिली और चाचा को अन्तिम क्रिया करने वाला कोई अपना। हाँ चाचा जाते जाते अपनी वसीयत में यह लिख गए कि इस ज़मीन को बेचा नहीं जा सकता। और इसका इस्तेमाल एक निश्चित अवधि तक हो जाना चाहिए। उस अवधि के बाद ज़मीन रामभरोसे के हाथ से निकल कर सरकार के पास चली जायेगी।
खैर सारा काम निपटने के बाद रामभरोसे बैठे। उनके हाथ तो लौटरी ही लगी थी। और लौटरी के साथ साथ मित्र भी एकाएक बढ़ गए थे। रामभरोसे को इस समय किसी अच्छे मित्र की सलाह की भी जरूरत थी। सोच रहे थे कि इस अचानक आई संपत्ति का कैसे उपयोग करें। पत्नी ने सलाह दी कि इस पर एक आश्रम बना दिया जाए चाचा के नाम से, जिसमें गरीब सताई हुई लडकियां और औरतें रह सकें। रामभरोसे ने पत्नी को ऐसी जलती हुई नज़र मारी कि बेचारी सीधे रसोई में ही घुसी।
सुबह शाम उनके मित्रों की मंडली बैठती। चाय पकौडी के साथ साथ कई तरह के आईडिया भी मिलते रोज़ रोज़। कोई कहता कि स्कूल खोलना चाहिए। तभी दूसरा कहता कि स्कूल में सौ झंझट है। पहले स्कूल खोलने के लिए सरकार से आज्ञा लो, यानी कि पैसा खिलाओ। फिर बच्चे ढूंढो। अब स्कूल खोलना है तो टीचर्स भी रखने होंगें। उन्हें पैसा देना होगा। यह तो घाटे का सौदा हुआ। समाजसेवा तो ठीक है पर पैसा जाएगा।
अगला प्रस्ताव आया कि अनाथ आश्रम खोल लिया जाए। इसका भी तुंरत विरोध हुआ। किसी ने कहा कि आजकल अनाथ आश्रम वाला धंधा भी घाटे का ही सौदा है। बच्चे इकट्ठे होते जाते हैं। मुफ्त की रोटियाँ तोड़ते हैं और बड़े होकर चोर उचक्के ही बनते हैं। अब चोर उचक्के ही बनाना है तो सड़क क्या बुरी चीज़ है??
इस तरह कई प्रस्ताव आए और खारिज हुए। रामभरोसे को भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। ऐसा कौन सा काम शुरू किया जाए जिसमें झंझट भी कम हो और नकद नारायण भी मिल जाए। उन्हें तो अब ज़मीन जी का जंजाल लगने लगी थी।
श्यामसुंदर रामभरोसे के बचपन के साथी थे। उनके पास आजकल कोई काम नहीं था। अतः उनके पास बहुत समय था सोचने का कि रामभरोसे की ज़मीन का कैसे इस्तेमाल किया जाए। आख़िर मित्रता भी कोई चीज़ है। वह दिन रात इसी उधेड़बुन में लगे रहते कि कैसे रामभरोसे की समस्या का समाधान किया जाए। बहुत विचार करने के बाद उन्हें समस्या का समाधान मिल गया। उन्होंने रामभरोसे को सलाह दी कि इस ज़मीन पर एक मन्दिर बनाया जाए। इससे धर्म-कर्म भी हो जायेगा और मन्दिर में आए चढावे से आमदनी भी हो जायेगी। शायद कोई सरकारी अनुदान भी मिल जाए। आख़िर चुनाव समय नजदीक आ रहा था। बस एक पुजारी रखना होगा। उसके अलावा कोई खर्चा नहीं होगा। मजदूर को भी पैसा नहीं देना होगा। आजकल तो बड़े बड़े सेठ मजदूरों को स्पोंसर कर देते है मन्दिर बनाने के लिए। आपका धेला नहीं जाता। फिर मन्दिर का उदघाटन किसी बड़े आदमी से करा लो तो मन्दिर जल्दी ही फेमस हो जाएगा।
रामभरोसे को बात जँच गयी। उन्होंने तय कर लिया कि मन्दिर ही बनेगा। अब अगली समस्या थी कि मन्दिर किसका बनेगा। इस समस्या में दम था क्यूंकि यह निश्चित करना मुश्किल था कि कौन से भगवान् के अनुयायी सबसे ज्यादा हैं जिससे कि मन्दिर को आमदनी अधिक से अधिक हो।
खैर इस समस्या को सुलझाने के लिए मित्रमंडली बैठी। पर जितने मुंह उतनी बातें! किसी को राम जंचते थे तो कोई कृष्ण का अनुयायी था। किसी के देवता हनुमान थे, तो कोई शिव का भक्त था। यानी कि फिर एक समस्या!! पत्नी ने डरते डरते कहा कि क्यों ना सारे देवी-देवता कि मूर्ति स्थापित कर दी जाए?? रामभरोसे ने इस बार पत्नी को घूरा नहीं। उन्हें भी विचार पसंद आया। उन्होंने यह प्रस्ताव मित्रों के सामने रखा। मित्रों ने भी हाँ में हाँ मिलाई। फिर भी साहब, जनतंत्र में कोई प्रस्ताव बिना विरोध के कैसे पारित हो? कुछ लोगों ने सुझाया कि अगर सारे भगवान् को रख दिया जायेगा तो मन्दिर उतना फेमस नहीं होगा। देखो न जितने भी प्रसिद्ध मन्दिर हैं किसी एक ही भगवान् के हैं। बात ठीक भी थी। मन्दिर है कोई दुकान थोड़े ही?? जहाँ विविधता देखने को मिले!! खैर तय हुआ कि किन्हीं ३ भगवानों की मूर्ति स्थापित की जायेगी।
अब घटकर केवल ३ भगवान् ही रह गए। अब प्रश्न था कि कौन से ३??? ब्रह्मा, विष्णु, महेश???? ना यह तो बहुत पुरानी सी बात हो गयी.... राम, कृष्ण, शिव..... नहीं... कौन ३???? इसका फैसला करना निहायत कठिन था। खैर तय हुआ कि वोट कर लिया जाए। जिन तीन भगवानों के नाम की चिट्ठी सबसे अधिक होगी वह टॉप ३ घोषित कर दिए जायेंगे और मन्दिर में उन्हीं को स्थान मिलेगा।
यह समाचार इन्द्र के दरबार में भी पहुँचा। अब जबकि रामभरोसे एक बड़े आदमी बन गए थे तो देवी-देवता भी उन्हें जानने लगे थे। उनकी चर्चा अक्सर होती रहती थी दरबार में। और जब से नारद जी ने यह समाचार सुनाया था कि रामभरोसे मन्दिर खोलने जा रहे हैं, तो सभी देवताओं के मन में आशा की एक लहर जाग गयी थी। क्या पता रामभरोसे की तरह किसकी लौटरी लग जाए??? हो सकता है कि उनके नाम का ही मन्दिर बन जाए!! वैसे भी कलयुग में उनके सामने कम्पटीशन था। आजकल भगवानों से ज्यादा नेताओं की पूछ हो रही थी। और जब से नारद जी ने बताया कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश का चेहरा बदल गया है। ब्रह्माजी अब थोड़ा और बूढे हो गए हैं, विष्णुजी चश्मा लगाने लगे हैं और महेश यानी शिवजी के बाल थोड़े कम हो गए हैं। और तो और माँ अन्नपूर्ण थोड़ा मुटा गयी हैं। और यह सब लक्ष्मी जी की सवारी यानी "कमल" के फूल पर विराजमान हैं तो देवी देवताओं में नेताओं का डर बैठ गया था। क्या भरोसा कब कौन नेता किस देवता का रूप धारण कर लें???
फिर एक नेता ही नहीं, अब अभिनेता और क्रिकेट खिलाड़ी भी फेमस होने लगे थे। अब उनके नाम के मन्दिर और चालिसायें बनने लगी थीं। इसीलिए सभी देवता सतर्क हो गए कि रामभरोसे को पहले ही घेर लिया जाए इससे पहले कि नेता-अभिनेता-खिलाडी इस मैदान में आयें, अपने अपने नामों की रजिस्ट्री करा ली जाए।
अगले दिन तडके ही देवता अपने अपने अभियान पर जुट गए। शिव अपने तांडव से रामभरोसे और मित्रों को खुश करने की जुगाड़ में थे तो राम के पास धनुष की कला थी। कृष्ण अपना भोलापन मक्खन से दिखाने की कोशिश कर रहे थे तो हनुमान के पास बला की ताकत थी। आख़िर रामभरोसे ने निश्चय किया कि सभी देवताओं का इंटरव्यू लिया जाए तब कहीं जाकर बात बनेगी। उन्होंने एक नोटिस निकाला कि फलां दिन इंटरव्यू है।
सब देवता इंटरव्यू की तैयारी में लग गए। इन्द्र की सभा में अब चुप्पी रहने लगी। पार्वतीजी ने शिव जी को २० प्रश्नों की सूची बना के दी। लक्ष्मी जी अब विष्णुजी को रटाने में लग गयीं। कृष्ण राधा रास भूलकर इंटरव्यू की तैयारी करते नज़र आने लगे। बेचारे हनुमानजी सीधे सरस्वतीजी की शरण में भागे। कुल मिला कर स्वर्ग का दृश्य ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई महान एग्जाम होने जा रहा हो।
खैर इंटरव्यू का दिन भी आ ही गया। रामभरोसे, श्यामसुंदर और एक और मित्र फिरौतिलाल की टीम बनी। उन्होंने कुछ प्रश्न तय किए कि कौन से किस देवता से पूछने हैं।
सबसे पहले ब्रह्मा जी का नंबर आया। ब्रह्मा जी सीधे अन्दर चले गए। यह देख कर उन तीनों की भ्रकुटि तन गयी। अरे!! यह भी कोई बात हुई भला??? ना अन्दर आने के लिए पूछना ना नमस्ते ना कुछ। सीधे सीधे कुर्सी पर बैठ गए जनाब!!! खैर सबसे पहला प्रश्न -"आपकी क्या उपलब्धियां हैं??"
ब्रह्माजी-"मैं ब्रह्मा हूँ।"
"तो??"
"मैंने सृष्टि का निर्माण किया है?"
"सृष्टि कहाँ है? उससे हमें क्या मतलब?? आप तो अपनी उपलब्धियां बताइये।"
बेचारे ब्रह्माजी निरुत्तर हो गए।
अगला नंबर शिव जी का था।
उनसे प्रश्न किया गया -"आपके कितने मन्दिर हैं?"
शिवजी ने उत्तर दिया-"बहुत हैं कभी मैंने गिने नहीं। पर कहते हैं कि भारतवर्ष में सबसे ज्यादा मन्दिर मेरे नाम के ही हैं।"
"अरे तो भी आपको संतोष नहीं है? किसी और का नंबर भी आने दो न?"
बेचारे शिव जी!!! इस एंगल से तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था!!!!
इसके बाद राम आए।
"आपने सीता को वनवास क्यूँ दिया था?"
"राज हित में। मैंने सीता को वनवास दिया था पर स्वयं महल में रहते हुए भी वनवासियों जैसा जीवन काटा। उसके बिना महल भी जंगल जैसा लगता था। मैं आप भी भूमि पर सोया, कंदमूल खाया, और....."
"बस बस!! हमने आपसे कोई एक्सप्लेनेशन नहीं माँगा। अगर हमने आपका मन्दिर बनाया तो नारी मुक्ति वाले हमारे ख़िलाफ़ हो सकते हैं।"
अब आया कृष्ण जी का नंबर।
"आपने कौरवों का साथ ना देकर पांडवों का साथ क्यों दिया?"
"क्यूंकि पांडव सत्य की राह पर थे।"
कृष्ण जी से अगला प्रश्न नहीं पूछा। सोचा कि अगर कृष्ण मन्दिर बनाया तो सिर्फ़ वही लोग आयेंगें जो सच बोलते हैं। अब ऐसे लोग तो हैं ही नहीं और हैं भी तो उनकी औकात नहीं है कि मन्दिर को कुछ दान दक्षिणा दे सकें।
अगली बारी हनुमानजी की थी।
"कहते हैं आप में बहुत शक्ति है?"
"हाँ मैं पवनपुत्र हूँ। राम भक्त हूँ। मेरे सारे कार्य मात्र राम नाम से हो जाते हैं।"
यानी कि इनमें अपनी कोई बात नहीं। इनका नंबर भी कट।
ऐसे ही सुबह से शाम हो गयी। रामभरोसे और टीम को कोई योग्य उम्मीदवार नहीं मिला जिसका मन्दिर बनाया जाए।
इसके बाद २-३ दिन और चला इंटरव्यू पर टॉप ३ भगवान् नहीं मिल सके। रामभरोसे की नियत अवधि भी समाप्त होने वाली है।
मेरी आप लोगों से विनती है कि अगर आप रामभरोसे को टॉप ३ भगवान चुनने में मदद कर सकें तो वह आपको दुआएं देंगे। हो सकता है टॉप ३ भगवानों से आपकी सिफारिश भी लगा दें। आखिरकार आजकल भगवान् रामभरोसे जैसों की बहुत सुनने लगे है!!

सोमवार, 16 जून 2008

चलो यह करते हैं!!!

मेरी पिछली पोस्ट पर आप लोगों की दुआओं के लिए धन्यवाद। अब हालांकि बाढ़ का पानी कम हुआ है पर अभी भी बाढ़ की स्तिथि बनी हुई है।
आशा है यह जल्दी ही सुधर जायेगी।
मैंने दिल्ली में अमित (मेरे पति) के साथ बहुत अच्छा समय बिताया है। यह वो समय था जब हम अपने अपने करियर को लेकर एक दूसरे का हौसला बढाते थे और साथ ही डेटिंग भी करते थे!! उसके बाद शादी के बाद कुछ समय भी हम रहे वहाँ। उसी समय को याद करते हुए ही यह कविता लिखी है। आपके विचारों का स्वागत है।
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कल तक जो थीं रोज़ की आम बातें,
अब वो कुछ ख़ास यादें बन गयीं है।
इन यादों में हम एक डुबकी लगाएं।
बिताये थे पल कल संग एक-दूसरे के,
फिर से चलो उन बातों को दोहराएं।
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'कोक-पेप्सी' से प्यास बुझती नहीं है,
'मिनरल वाटर' में सौंधी महक नहीं है।
गला सूख रहा है, पानी की है चाहत,
शायद कोई पुरानी अठन्नी पड़ी हो,
ठंडे पानी के ठेले से चलो प्यास बुझाएँ।
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'बोर' है सुनहरी रेतों का 'हाई-फाई बीच',
'लेजर-पार्कों' से भी अब मन भर गया है।
जनवरी की है देखो गुनगुनी मीठी धूप,
फुरसत भी आज कई दिनों बाद मिली है,
चलो 'इंडिया गेट' चल कर पिकनिक मनाएं।
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नहीं निगलते बनते अब 'बर्गर' और 'पिज्जा' ,
'फाइव स्टार' में भी फीका सा ही है खाना।
चलो देखें गली के उस मोड़ पर अब भी,
शायद कोई एक-आध ठेला खड़ा हो,
"चटपटी और पेशल" चाट खाकर आएं।
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'ब्रांडेड' जींस-कमीजें फीकी हैं, चुभती हैं सारी,
'डॉलर्स' के नीचे दबे कुछ 'रुपये' मिले हैं।
फुटपाथ पर काश वो बूढा बैठा हो अब भी,
तुम मुझे चटक गहरे रंग का दुपट्टा दिला दो,
फिर से उस बेचारे बूढे की "बौहनी" कराएं।
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छोड़ दो महंगी विदेशी गाड़ी को घर में,
मत बांधो ख़ुद को 'सीट बेल्ट' में आज,
ना 'ट्रैफिक' का 'टेंशन' ना 'पैट्रोल' की चिंता,
तुम अपने हाथों में बस मेरा हाथ रखना,
मुद्रिका से दिल्ली का एक चक्कर लगाएं।

रविवार, 15 जून 2008

मेरे शहर में बाढ़

बहुत कठिन समय चल रहा है। यहाँ हमारे शहर (cedar rapids, iowa, USA) में पिछले ३-४ दिनों से बाढ़ आई है। पहले पहल तो लगा कि सब सही हो जायेगा जल्दी ही। पर अब लगता है कि वाकई घबराने वाली बात है। पानी का स्तर काफ़ी ऊँचा है। इस स्टेट में पिछले ५० सालों में यह सबसे बड़ी बाढ़ है। downtown area में लोगों के घर और दफ्तर खली करा दिए गए हैं। इस क्षेत्र में इस शहर की नदी स्थित है। सिडार नाम की इस नदी के ऊपर ही इस शहर का नाम भी पड़ा है। वैसे तो यह क्षेत्र बहुत सुंदर और मनोरम है परन्तु आजकल किसी भयानक जगह से कम नहीं लगता। लगातार टीवी देखते हुए निराशा हो रही है। हालांकि हम जहाँ रहते हैं वह जगह बाढ़ से पूरी तरह सुरक्षित है पर यहाँ पानी की पूर्ति में भी कमी आने वाली है। (ऐसे समय में हम अपने बारे में सोचने से बाज नहीं आ रहे!!) यहाँ के water pump house में ४ में से ३ water pump बाढ़ की वजह से ख़राब हो चुके है क्यूंकि वह भी downtown area में ही है। अब water supply department के पास केवल २५% पानी ही बचा है। लगातार लोगों से अपील की जा रही है कि पानी का कम से कम उपयोग करें। केवल पीने और बहुत जरूरी कामों के लिए ही पानी रखें। और अच्छी बात यह है कि लोग इस अपील को मान भी रहे है। हम जैसे देसी भी!! जो भारत में भले ही अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भूल जाएं पर यहाँ पर मान रहे हैं। खैर अच्छा काम कहीं भी करो, अच्छा ही होता है।
लोग अपनी इच्छा से volunteer भी बन रहे हैं जिससे वह लोगों कि मदद कर सकें। यहाँ तक कि यहाँ के governor को भी इस काम में हिस्सा लेते हुए देख रहे हैं टीवी पर!! इन सब से हालांकि हौसला बढ़ा हुआ है। पर फिर भी डर तो है ही। मन ही मन इश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि जल्दी ही इन सब से मुक्ति दे। इस समय जबकि मैं यह ब्लॉग लिख रही हूँ, बाहर बिजली कि कड़कड़ाहट और पानी कि तेज़ आवाज़ हो रही है।
आप भी प्रार्थना कीजिये कि जल्दी ही इस प्रकोप का अंत हो।
इसी दुआ के साथ...........

बुधवार, 11 जून 2008

एक आग का दरिया है....

अजी नहीं, किसी इश्क कि बात नहीं कर रहे हम...
एक दिन इंटरनेट पर बैठे हुए नज़र पड़ी एक ब्लॉग पर। पल्लवी त्रिवेदी का ब्लॉग था और उसमे एक लेख लिखा था उसने "बेशरम की संटी"। उसमें उसने मास्टरों का कहर बताया था छात्रों के ऊपर।
पढ़ते पढ़ते होंठ मुस्कुराते चले गए। और मन में आता रहा की अरे हाँ ऐसा ही तो होता था!!!
खैर यह बात तो हुई छात्रों की। अगर मास्टरों की बात करें तो उनके लिए भी छात्र किसी खौफ से कम नहीं होते। हमने भी कुछ समय के लिए मास्टरी की है। जयपुर के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढाते थे। हर रोज़ राम का नाम लेकर कॉलेज जाते थे।
जिस दिन पहली क्लास लेनी थी, उस दिन तो लगा कि क़यामत का दिन है। कसम से कभी भी पढ़ाने के बारे में नहीं सोचा था। खैर अब जब ओखली में सर दे ही दिया था तो क्या हो सकता था।
पूरे १ साल और ५ महीने पढाया। और सच में एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ कि हमें लगा हो कि अरे इसमे क्या है? यह तो आसान सी चीज़ है। पढ़ा देंगे कैसे भी। हर क्लास के बाद लगता था कि आजकल के बच्चे भी!!!!
और इतना ही नहीं, हद तो तब होती थी जब ऐसा कोई टॉपिक फँस जाता था, जो हमने या तो पढ़ा नहीं, या फिर जानबूझ कर छोड़ दिया था। ऐसे में हमें अपने मास्टरों कि बहुत याद आती थी। बेचारे कितना चाहते थे कि हम लोग हर चीज़ पढ़ लिख जाएं। पर हमें हर टॉपिक पढ़ना अपना समय गंवाना लगता था। अब बुरे फँसे!! पता नहीं क्लास के बीच में ही कौन सा होनहार उठ कर क्या सवाल कर दे?? फिर बगलें झाँकने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रहेगा। और उसके बाद नौनिहालों की खामोश किलकारियाँ?? न बाबा सब कुछ पढ़ना पड़ता था। तब लगता था कि विद्यार्थी जीवन अति उत्तम!!
आजकल के घुड़ दौड़ के समय में कॉलेजों में नया चोचला चला है, "teacher guardian" बनाने का। यानी कि आपके पास बहुत सारे नन्हें मुन्ने सौंप दिए जाते है। आपको उनके सुबह के नहाने धोने से लेकर रात के सपनों तक का हिसाब रखना है। कोई बच्चा क्यों दुखी है? कोई पढता क्यों नहीं है? किसी को घर से क्या परेशानी है.... आदि आदि.... गोया हम मास्टर न होकर कोई "psychaterist" हो गए। खैर काम की खातिर यह भी करते थे। और उसका हिसाब किताब कॉलेज के मैनेजमेंट को देना।
कॉलेज अपना नाम ऊंचा रखने के लिए चाहता था कि उसके बच्चें ही टॉप करें। इसके लिए जरूरी हो जाता था कि उनके नंबर्स अच्छे आयें। और नंबर्स अच्छे आने के लिए क्या जरूरी होता है?? हमें तो यही पता था कि अच्छे से पढ़ना... पर नहीं इस नौकरी ने हमें सिखाया कि छात्रों के अच्छे नंबर्स के लिए जरूरी होता है मास्टरों का अच्छे से पढाना और उससे ज्यादा जरूरी आँखें बंद करके कॉपी जांचना.....
अब कैसे??? क्यों??? के फेरे में ना पडिये आप!!!!
एक किस्सा याद आ गया। एक बच्चे ने कोई शरारत कर दी। हमें भी गुस्सा आ गया। राजपूत खून है, उबल गया। हम भी उससे झूठिमूठी गुस्सा हो गए। और पूरी क्लास हमने इस "lecture" में ही निकल दी। वैसे मन ही मन हम खुश हो रहे थे, की अच्छा हुआ वरना आज भी पढाना पड़ता। उल्टे उसने हमारी मदद ही की थी। पर यह उसे तो नहीं बता सकते थे न!! काश वह यह पढ़ रहा हो। वैसे भगवन की दुआ और अपनी मेहनत से अब वह अच्छा खासा कमा रहा है। जी हाँ उसकी मेहनत और भगवन की दुआ ही है, वरना हम जैसे मास्टर तो.......
खैर हम बता रहे थे कि उसने ऐसी शरारत की कि हमारा खून खौल उठा। हमने कसम खा ली कि क्लास में या तो यह नहीं या हम नहीं.... अब बेचारा लगा माफ़ी माँगने। मन ही मन तो हम खुश हो रहे थे खुशामद करवा के पर ऊपर से गुस्सा भी दिखाना था। जब उसने कई बार माफ़ी मांगी तो हमने दार्शनिक बनते हुए उसे खूब बड़ा ज्ञान दे दिया जो हमने अपने गुरुजनों से सुना था और आखिर में उससे एक सवाल किया- "मेरी जगह अगर तुम होते तो क्या करते?"
अरे वह तो आज का नौजवान!!! तुरंत बिना देर किए बोला "मैडम माफ़ कर देता"
बस फिर क्या था? पूरी क्लास लगी हँसने। और हम अपना सा मुह लेकर रह गए। जाहिर सी बात है माफ़ी तो उसे मिल ही चुकी थी।
यानी कि हमने तो अब मास्टरी से तौबा कर ली है। हालांकि हमारे माँ और बाप दोनों मास्टर रह चुके है। और अगर उन्हें हमारे इन विचारों का पता लग गया तो ना जाने उनके दिलों पर क्या बीतेगी? पर हमने तो आपसे अपने दिल का सच कहा है।

सोमवार, 9 जून 2008

दीये जलते हैं.

भीड़ नहीं बदलती, बाज़ार नहीं बदलते।
पुराने होकर भी यहाँ सामान नहीं बदलते।
रंग रोगन से नया रूप देते है।
यहाँ तो पल पल लोग नियत बदलते हैं।

ख़ुद को नहीं खुदा को कोसते हैं।
दुआ, मन्नत काम आती है कहते हैं।
भरोसा खुदा का है ख़ुद पर यकीं नहीं।
मन्नतों से भी कभी हादसे टलते हैं??

कुछ ऐसे भी होते हैं जो दावतें लेते-देते हैं।
कुछ लोग बिन मौसम के व्रत-रोज़े रखते हैं।
किसी को मयस्सर है मखमली ज़मीन।
कुछ तो लोग धूप में नंगे पैर चलते हैं।

कौन आया कौन गया, किसको ख़बर रहती है यहाँ।
सब अपने अपने में रत रहते हैं यहाँ।
मत कर फक्र कि तू चमकता है आज तो,
यहाँ तो रोज़ ही सूरज निकल कर ढलते हैं।

खैर यह तो वक्त है, बीत ही जायेगा।
इन उम्मीदों पर कायम है इनका जहाँ।
चाहे रोएँ, चीखें, चिल्लाएं... उम्मीद नहीं छोड़ते हैं।
यहाँ तो गीली आंखों में भी सपने पलते हैं।

चाहो तो आसमान छू लो आज।
फिर भी तुम याद कल को ही करते हो।
कल को ना पकड़ो अपनी मुट्ठी में।
यहाँ तो मुट्ठी से रेत के घर फिसलते हैं।

कभी फलक, कभी चाँद तारों की बात करते हैं।
रहते हैं ज़मीन पर, आसमानों की बात करते हैं।
उनको जाकर बताओ चाँद घट जाता है एक उम्र बाद।
दीवाली पर यहाँ चाँद नही, बस दीये ही जलते हैं।