बुधवार, 21 मई 2008

मिटती हुई दूरियाँ

कितनी बार कहा कि नहीं हूँ मैं इसकी दीदी...... नहीं है यह मेरा छोटा भाई। " पैर पटकती हुई चली गयी श्रुति।
"इतनी सी लड़की और ऐसा गुस्सा!!!! " कसमसा के रह गयी नंदा।
"क्या किया था उसने? अभी क्या जानता है वह? २ साल का भी नही हुआ अभी तो। आने दो शेखर को। आज तो फैसला हो जाना चाहिए।"
सारा बिखराव साफ करते करते शाम हो गयी। सारे कागज़ फाड़ दिए थे गुस्से में श्रुति ने। बुरा लगा था नंदा को। कितनी अच्छी चित्रकारी करती है इस छोटी सी उम्र में। ज़रूर अपनी माँ जैसी......
"माँ..." सोचा नंदा ने। वही तो है न अब श्रुति की माँ... "क्या हुआ सौतेली है तो??"
सफ़ाई करके निवृत हुई तो झाँका श्रुति के कमरे में.... बिना खाना खाए ही सो गयी थी लड़की। उसके पास आयी। सूखे हुए आंसू की लकीर सफ़ेद हो गयी थी। ममता हो आयी नंदा को।
"श्रुति.... बेटा उठो। देखो शाम हो गयी है। इस समय नही सोते बेटा। उठो।"
बिना ना-नुकुर किए उठ गयी वह। चुपचाप चप्पल पहनी। गुसलखाने में जाके हाथ मुंह धोये और आकर अपना बस्ता खोल कर बैठ गयी गृहकार्य करने। इतने समय में एक बार भी नंदा को नहीं देखा। जैसे वह वहाँ थी ही नहीं।
.......
"क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ डॉक्टर?"
एक मीठी से आवाज़ ने मिश्री घोली डा. नंदा के कानों में।
पलटकर देखा नंदा ने।
अचंभित रह गयी वह सामने वाली शक्ल देख कर। कुछ ऐसा ही भाव उतरा सामने वाले चहरे पर भी।
"आप डा. नंदा...... नंदा वशिष्ठ???"
"माधुरी???"
"ओह नंदा तू ही है। तभी मैं कहूँ कि आते समय कौवे ने क्यों आवाज़ दी? आज पुराने परिचित से जो मिलना लिखा था। कैसी है तू?"
"ठीक हूँ। अभी अभी ही इस शहर में आयी हूँ। एक हफ्ता ही हुआ है इस अस्पताल में।"
"और देख तुझे तेरा मरीज़ भी मिल गया। मतलब मिल गयी"
और हंस दी वह।
बिल्कुल वही जिंदादिल हँसी।
"तू तो बिल्कुल नही बदली मधु। बिल्कुल वैसी की वैसी ही है। क्या अमृत खा रही है पिछले १० नहीं नहीं १३ सालों से?"
"हाँ तू भी बिल्कुल वैसी ही है। बस थोड़ी सी और पतली हो गयी और १-२ बाल सफ़ेद भी दिख रहे हैं। "
मुस्कुरा दी नंदा।
"अच्छा बता क्या परेशानी है?"
"परेशानी?"
"अरे तू अस्पताल क्यों आयी है?"
"ओह वह। चल छोड़। मैं तो ठीक भी हो गयी तुझे देख कर। अब चल मेरे साथ। "
"कहाँ?"
"कश्मीर..... अरे बाबा घर और कहाँ?"
"अभी???"
"नहीं १०-१५ साल बाद। अभी नहीं तो कब?"
"मधु.... अभी तो अस्पताल भी बंद नही हुआ। और अगर कोई मरीज़ आया और मैं नही मिली तो बेकार में परेशान होगा। "
"हाँ वह तो है। चल अच्छा मैं शाम ओ तुझे लेने आती हूँ। "
"ठीक है। "
शाम को माधुरी पहुँच गयी उसे लेने। ठीक जैसे स्कूल के लिए लेने को आया करती थी।
कार में बैठते ही बोली माधुरी "अच्छा अब सुना। कैसी है? शादी वादी नही की क्या? और बुढिया होने का इरादा है क्या?"
क्या बोलती नंदा?
खो गयी यादों में....
जितनी जल्दी अच्छा समय निकलता है, बुरा समय उतनी ही मुश्किल से कटता है। वह और रवि..... कितना खुश थे.... साथ साथ पढ़ते हुए, डाक्टरी करते हुए, आने वाले जीवन के सपने बुनते हुए.......
एक ठंडी साँस ली नंदा ने.....
"अरे क्या हुआ?? कहाँ खो गयी मैडम???" मधु उसे झिंझोड़ रही थी.... "उतरो भई कार से। घर आ गया है मेरा..."
"ओह..."
"मधु तूने तो घर बहुत अच्छा सजाया है सच... वैसे भी तेरी पसंद तो हमेशा ही जानदार होती थी।"
"अच्छा जी धन्यवाद... आपकी नज़र है, वरना यह नाचीज़ किस काबिल है?"
ढेरों बात की थी उन्होंने उस दिन.... मधु की जल्दबाजी में हुई शादी, कई जगह का ट्रान्सफर, श्रुति का आना, मधु का अधूरी पढ़ाई पूरी करना... और अब यहाँ इस शहर में पिछले २ सालों से....
"अब श्रुति भी ६ साल की हो गयी है। मैंने एक जगह नौकरी के लिए आवेदन दिया था। उसी के लिए किसी राजपत्रित अधिकारी का हस्ताक्षर चाहिए था। अब मैंने सोचा कि इस छोटे से शहर में डाक्टर के अलावा और कौन राजपत्रित अधिकारी मिलेगा? इसीलिए अस्पताल आयी थी।
"अच्छा है इसी बहाने हम मिले तो सही। तू तो ना जाने कहाँ खो गयी थी शादी के बाद? मैं भी अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी में खो गयी थी। कई सालों से घर भी नही जा पायी। और पता लगा कि तेरे पापा का भी वहाँ से ट्रान्सफर हो गया है। कोई और सूत्र ही नही था तुझसे मिलने का... खैर... देख किस्मत ने हमें फिर मिला दिया।"
"हाँ यह तो है। अब तू भी तो कुछ अपने बारे में बता न? क्या क्या किया इतने सालों तक?"
"बस स्कूल खत्म करके मेडिकल कॉलेज में आयी.... पता ही नही कैसे ५ साल निकल गए? फिर पी.जी किया.. फिर बस यहाँ वहाँ नौकरी.. और अब यहाँ.."
"और शादी??"
"..."
"क्या हुआ? शादी नही की?? रवि?? "
"...."
"क्या हुआ नंदा?? उसने तुझे धोखा दिया क्या?? मुझे तो पहले से ही पसंद नही था वह... तुझे न जाने क्या दिखता था उसमें?? मैंने तुझे पहले ही..."
"नही मधु ऐसी कोई बात नही... रवि ने मुझे कोई धोखा नही दिया..... धोखा तो मेरी किस्मत ने दिया है मुझे..."
"मतलब??"
"रवि अब इस दुनिया में नही है..."
आगे कुछ नही कह पायी नंदा....
"ओह.... पर... कब??? कैसे??"
"ह्म्म... क्या बताऊ?? बस सब कुछ सही चल रहा था.... हमारी शादी को १५ दिन ही बचे थे..... अपनी ही शादी का कार्ड बांटने जा रहा था.... एक एक्सीडेंट.... और सब खत्म..... "
माधुरी के पास कोई शब्द नही थे उसे दिलासा देने को..... अपनी इस कम बोलने वाली सहेली को कहती भी क्या??? कोई शब्द उसका दुःख कम नही कर सकता था....
माहौल बहुत भारी हो चला था.... तभी श्रुति आ गयी शोर मचाते हुए....
"मम्मी देखो मुझे फिर से पेंटिंग में प्रथम स्थान मिला है..."
"अरे वाह... मेरी प्यारी बिटिया... नंदा यह है श्रुति... बेटा नमस्ते करो. यह नंदा आंटी... नहीं मौसी है..."
"नमस्ते...." शर्माते हुए बोली श्रुति.
यह था श्रुति से प्रथम परिचय...
..............
"क्या बात है??? आज खाना नही मिलेगा क्या??"
हंसते हुए शेखर ने पूछा तो अतीत से बाहर निकली नंदा... अक्सर ही ऐसा होता है.... यह श्रुति इस तरह से दिमाग ख़राब करती है कि उसे घर की कोई सुध ही नही रहती... थक जाती है दिन भर.... अस्पताल, घर, बच्चा.... और उस पर यह लड़की.... जितना ही नंदा उसको समझने की कोशिश करती है, वह उसे उतना उलझा कर रख देती है... आखिर गलती कहाँ हुई है नंदा से?? वह तो पूरी इमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करने की कोशिश करती है... फिर भी.... हर बार यह लड़की उसे एहसास दिलाती है की वह उसकी सौतेली.....
सोचते हुए भी बुरा लगता था नंदा को...
"नंदा.. क्या बात है??? कोई परेशानी है?"
"न...नहीं बस एक केस है अस्पताल में उसी में उलझी हूँ।"
हर बार की तरह फिर नही कहा शेखर को.... सोचा क्यों परेशान करे उन्हें? आख़िर उसे ही संभालना होगा सब कुछ...
खाना खाकर लेटी तो फिर यादें पीछा करने लगी... कैसे इन यादों को पता चलता है की वह उनसे दूर जाना चाहती है?? तभी आकर उसे दबोच लेती हैं...
.................
.................
बहुत अच्छा लगा था उस दिन मधु के घर। जैसे कई बरसों बाद उसने जीना सीखा। कई बरसों बाद वह हँसी। शेखर का स्वाभाव भी बहुत अच्छा था। नंदा को लगा ही नहीं कि वह पहली बार मिली थी उनसे। और श्रुति... वह तो बस नंदा की दोस्त ही बन गयी उस दिन से... कितनी अच्छी पेंटिंग करती थी वह... उसने कहा भी मधु से। "तुने इसे बिल्कुल अपने गुण दिए है मधु। देखना तुझसे भी अच्छी पेंटिंग करेगी यह..."
मधु का सर गर्व से ऊँचा हो गया था। एक ममता भरी मुस्कान के साथ।
उस दिन के बाद अक्सर ही जाने लगी वह उनके घर.... कभी मधु के साथ तो कभी श्रुति के साथ उसके दुःख कम ही होते थे। वह भी ऊब चुकी थी अपने दुखों से...
पर दुःख.... यह पीछा क्यों नही छोड़ते उसका?? उन्हें कहाँ से पता मिल जाता है उसका???
शायद उसी की काली परछाई मधु के घर पर पड़ गयी थी...
वह दिन मधु की नौकरी का पहला दिन था.... और मधु की ज़िंदगी का आखिरी... सड़क पार करते हुए अचानक... कब, कैसे और कहाँ घट जाते हैं हादसे...
उसे आज भी याद है.. खून से लथपथ मधु का चेहरा... उससे विनती ही कर रही थी "नंदा मेरी श्रुति का ख्याल...."
ठीक से बोल भी नही पा रही थी...
"मधु कुछ नही होगा.... तू ज्यादा बोल मत.... जल्दी ही ठीक हो जायेगी तू.."
"नन्दा मु..झ्से.. वादा कर मेरी श्रुति का ख्याल रखेगी.... शेखर को संभाल लेगी न???"
"...."
"बोल न नंदा........... मेरी.......... श्रुति.......... शेखर....... नंदा बोल न......"
"हाँ मधु.... तू अब चुप रह.... ज्यादा मत बोल..."
और चुप ही हो गयी मधु.... शायद उसे तसल्ली हो गयी थी की नंदा उसके परिवार को...
कितना चुप हो गया था मधु का परिवार?? कहाँ तो बस सबके कहकहे गूंजते थे... और कहाँ यह सन्नाटा?? नंदा को उसके घर जाते हुए भी डर लगता था.... उससे यह सन्नाटा सहन नही होता था...
फिर भी जीवन तो जीना ही पड़ता है... फिर से जीने लगे थे वह लोग.... फिर से श्रुति ने पेंटिंग शुरू की.... शेखर ने अपना ऑफिस और नंदा ने अस्पताल....
ऐसे ही चल रहा था सब कि एकदिन शेखर अस्पताल आए.... घबराए हुए लग रहे थे...
बताया कि श्रुति को तेज़ बुखार है.. अपने ऑफिस में व्यस्त होने कि वजह से कई दिनों से ध्यान नही दे पा रहे थे श्रुति पर... शायद बारिश में भीग गयी थी या क्या?? कुछ जान भी नही पा रहे थे शेखर....
नंदा तुरंत आयी उनके साथ घर...
देखा तो काँप रही थी वह। फौरन उसने दवाई दी। सारी रात उसके माथे पर पट्टी रखते हुए बीती थी। सुबह कुछ कम हुआ बुखार।
अगले दिन भी उसने अस्पताल से छुट्टी ले ली थी। पता नही क्यों, पर श्रुति को इस हालत में छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था।
शायद उसी दिन से उस घर ने नंदा को बाँध लिया। पता नहीं, अकेले रहने का एहसास था या श्रुति पर ध्यान न दे पाने का अफ़सोस... उस दिन शेखर ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा और नंदा भी ना नहीं कह पाई।
एक छोटी सी औपचारिकता हुई कोर्ट में और नंदा हमेशा के लिए उस घर में आ गयी।
उसके बाद से दुनिया ही बदल गयी। किसी को अपना कहने का एहसास बरसों बाद हुआ उसे।
सब बदला बदला लग रहा था और श्रुति भी....
शायद उसने कहीं पढ़ा था या फिर किसी से सुन लिया था की सौतेली माँ बहुत सताती है। उस दिन से बस श्रुति भी बदल गयी। शेखर से भी कटी कटी रहने लगी थी। शेखर शायद समझ नहीं पाये, पर नंदा..... उसकी क्या गलती?
सोचती थी की समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। पर..... बात तो बिगड़ती ही जा रही थी। हालात तब और बिगड़े जब नंदन आया। श्रुति कभी उसे भाई नही मान सकी.....
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सोचते सोचते ही सुबह हो गयी। यह रात भी आंखो में ही कटी नंदा की........ बहुत परेशान हो चुकी है वह... शुक्र है आज इतवार है... आज तो शेखर से बात करनी ही होगी। वरना शायद बहुत देर हो जाए।
नाश्ता करने के बाद शेखर हमेशा की तरह कंप्युटर पर बैठ गए। आज श्रुति की सहेली का जन्मदिन था। वह वहाँ गयी थी।
नंदा को मौका सही लगा। शेखर के पास गयी और पता नहीं किस रौ में सारे हालात बता दिए। शेखर तो जैसे जड़ ही हो गए।
"इतने दिनों.... सालों तक तुमने बताया क्यों नहीं?"
"क्या बताती??? लगता था सब ठीक हो जाएगा अपने आप समय के साथ। पर अब मुझसे अकेले नहीं संभालता सब.... मुझे माफ़ कर दो शेखर... मैं ना तो इस घर को बचा पा रही हूँ और ना ही श्रुति को संभाल पा रही हूँ।"
"पगली..... यह सिर्फ़ तुम्हारी जिम्मेदारी थोड़े ही है। माफ़ तो तुम मुझे कर दो। मैंने ही कभी घर पर ध्यान नहीं दिया। पर अब इन हालातों का हमें मिल कर सामना करना है।"
"पर हम करेंगे क्या?"
"कुछ न कुछ तो करना ही होगा नंदा। वरना बात बिगड़ती जायेगी।अब तुम परेशान मत हो। कोई न कोई रास्ता जरूर निकल आयेगा।"
बहुत रहत मिली नंदा को। सच में कोई साथ हो तो हर परेशानी कम हो जाती है।
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"अब क्या है?" कितनी अकड़ से बात करती थी श्रुति। नंदा ने उसे अपने पास बुलाया था। उसे बताया कि उसका ट्रान्सफर हो गया है और नंदा और नंदन दोनों इस घर से जा रहे हैं।
"अच्छा.... तो??"
क्या कहती नंदा??
"बस यही बताना था बेटा। अब तुम्हे थोड़ा जिम्मेदार बनना होगा। अब पापा का भी ख्याल रखना होगा। मैं आती जाती रहूंगी...... फिर भी......."
"ठीक है। अब मैं जाऊँ?"
"ह्म्म जाओ।"
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बाहर मिलने तक नही आयी थी श्रुति। जैसे उसे कोई मतलब ही नहीं है उन दोनों से। खैर..... कर भी क्या सकती थी नंदा? शेखर को भी बुरा लगा था। फिर भी......... वो जानते थे की इस समय कुछ कहना ठीक नहीं होगा उससे। अपने आप ही सब ठीक होगा।
नंदा के जाने के बाद सबसे पहली समस्या आयी कामवाली की। खाना बनाना सबसे मुश्किल काम था। इतने सालों में शेखर की आदत भी छूट गयी थी। किसी तरह एक खानेवाली मिली।
उफ्फ्फ़ पहला कौर खाते ही श्रुति की हालत ख़राब हो गयी। कितनी मिर्च!!!! पानी के सहारे ही खाना खाया उसने। स्कूल में टिफिन भी नही छुआ। मन ही नहीं हुआ। कुछ थोड़ा बहुत दोस्तों का खाया। घर आयी तो ताला लगा था। याद आया स्कूल से आने पर नंदन खेलता मिलता था। नंदा भी दोपहर में थोड़ी देर के लिए घर आ जाती थी। उसे खाना खिला कर फिर वापस जाती थी।
अपने आप पड़ोस से लेकर ताला खोला। कपड़े बदल कर ठंडा खाना खाने बैठी। निगला नहीं गया। फिर से मिर्च!!! आधा खा के छोड़ दिया। फिर अपना होमवर्क करने बैठी। मन नहीं लग रहा था उसका। पता नहीं क्यों? वह ख़ुद आश्चर्यचकित थी। ऐसा कभी नहीं हुआ था।
शाम को पापा आए तो भी घर खाली खाली ही लग रहा था।
"शायद इस घर को 'उनकी' और नंदन की आदत हो गयी है".....
श्रुति कभी भी नंदा को माँ नही मान सकी। पता नहीं क्यों?? जबकि नंदा ने हमेशा उसके साथ दोस्ताना व्यवहार ही किया है। पहले ऐसा नहीं था। श्रुति को नंदा का साथ हमेशा अच्छा लगता था। मधु के जाने के बाद भी उसे नंदा का घर आना कभी बुरा नहीं लगा। वह तो शेखर और नंदा की शादी के बाद ही उसे लगा कि नंदा ने उसकी माँ की जगह छीन ली है और वह नंदा से कटी कटी रहने लगी।
....
"श्रुति खाना तैयार है.... खाने आ जाओ।" शेखर ने पुकारा......
आयी वह...
डाइनिंग टेबल भी खाली खाली लग रहा था।
सुबह फिर वही रूटीन। स्कूल, होमवर्क, खाना, खेलना.......
आजकल पेंटिंग में भी उसका मन नहीं लग रहा था।
नंदा का फ़ोन आता रहता था। श्रुति बात तो नहीं करती थी, पर सुनती बहुत ध्यान से थी। कहीं दूर उसका मन कहता था काश इस इतवार को 'वह' और नंदन आ जाएं। पर क्यों?? इसका जवाब नहीं था उसके पास।
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दिन निकलते जा रहे थे।
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परसों रक्षाबंधन है। उसे याद आया। नंदन का दूसरा रक्षाबंधन है यह। पहली राखी पर श्रुति ने नंदन को राखी नहीं बाँधी थी। नंदा ने कितना कहा था कि बाँध दो..... पर वह टस से मस नहीं हुई थी। शाम को शेखर ने पूछा भी था कि "नंदन ने राखी नही बाँधी???"
नंदा ने ही बात को संभाला था....
"छोटा है, खींच खींच कर निकाल दी है राखी"
श्रुति को याद आया... नंदा ने कभी भी शेखर से उसकी शिकायत नहीं की। उसे अचानक नंदा और नंदन की याद आने लगी। क्या सचमुच नंदा सौतेली है?? ऐसा कभी नहीं लगा। और क्या मधु उसको डांटती या मारती नहीं थी??? यह सारे सवाल उसके छोटे से मन में घूमने लगे। जैसे जैसे बातें याद आती, उसे अपनी ही गलती दिखायी देती गयी। नंदा ने तो उसे और उसके पापा को संभाला ही था। और नंदन तो उसे देख कर बाद हँसता ही रहता था। शायद आंखों आंखो में उसके साथ बातें करता था, खेला करता था।
शायद श्रुति किसी निर्णय पर पहुँच गयी थी।
...................
शेखर आजकल श्रुति में बदलाव देख रहे थे। वह समझ रहे थे की उसे भी नंदा और नंदन की याद आती है, उनकी तरह। नंदा का फ़ोन आते ही श्रुति किसी न किसी बहने से उनके पास ही मंडराती रहती है। पहले एक-दो बार उन्होंने उससे पूछा भी की वह बात करेगी माँ से?? उसने कोई न कोई बहाना बना कर टाल दिया। फिर उन्होंने पूछना ही बंद कर दिया। पर आखिर वह उनकी ही बेटी थी। उसमें आए हुए बदलाव को वह देख सकते थे। तो क्या यह अच्छे संकेत थे??
..................
"नंदा गुरूवार की राखी है। तुम आ जाओ।"
"देखती हूँ शेखर.... छुट्टी मिली तो जरूर आऊँगी.... वैसे भी आने के लिए राखी कोई बहाना नहीं है.... श्रुति तो नंदन को राखी बांधेगी नहीं।"
"नहीं नंदा मेरा मन कह रहा है की सब जल्दी ही ठीक हो जायेगा।"
"चलो ठीक है, आप कह रहे हो तो कोशिश कर के देख लेते हैं।"
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अगले दिन ही नंदा ने अस्पताल में छुट्टी का आवेदन दिया। उसे छुट्टी मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई। उसके अलावा ३ डाक्टर और थे। बस आवेदन देकर घर आयी और जल्दी जल्दी में समान बाँधा। नंदन को तैयार किया। जो पहली बस मिली, उससे ही घर की ओर चल दी।
"जाने श्रुति कैसे मिले?? उसे अच्छा लगे या न लगे???? इस बार भी नंदन को राखी नहीं बाँधी तो????" इन सब सवालों से घिरी हुई वह आखिर घर आ ही गयी....
उस समय श्रुति अपने कमरे में थी। शेखर ने पहले ही राखी लेकर रखी हुई थी। उन्होंने नंदा को बोला की नंदन को नहला कर तैयार कर दो। फिर श्रुति उसे राखी बांधेगी। नंदा ऐसा कुछ नहीं चाहती थी जिसमें श्रुति की मर्ज़ी ना हो। उसने आंखों आंखों में शेखर को बता दिया। शेखर ने भी ज्यादा ज़ोर नहीं दिया।
..................
नंदा किचन में व्यस्त थी। अचानक शेखर ने उसे पीछे से आकर पकड़ा। वह घूमी तो उन्होंने उसे चुप रहने का इशारा किया। और श्रुति के कमरे में धीरे से जाने को कहा। नंदा डर गयी। वह नंदन को श्रुति के कमरे में सुला के आयी थी। कहीं ऐसा तो नहीं की नंदन ने फिर कोई बदमाशी की हो और श्रुति अपना आप खो बैठी हो......... हे भगवान्........ उसका दिल धड़क गया............
डरते डरते श्रुति के कमरे में गयी..............
जो नज़ारा देखा, उससे सचमुच उसका दिल धड़क गया........... डर से नहीं........... खुशी से..........
श्रुति ने नंदन की कलाई पर राखी बाँध दी थी। और उससे चिपक कर रो रही थी। नंदन को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह तो अपनी श्रुति दीदी के बालों के साथ खेलने में व्यस्त था।
नंदा और शेखर यह देख कर समझ नहीं पा रहे थे की पहले एक-दूसरे को बधाई दें या भगवान् का शुक्रिया अदा करें????
अचानक श्रुति ने दोनों को अपने कमरे में देखा......
वह उठी और दौड़ कर नंदा से लिपट गयी...........
"माँ............" इससे आगे दोनों की हिचकियों में कोई कुछ नहीं बोल पाया।
नंदन हैरान सा देखने लगा... अचानक उसकी दीदी उसे छोड़ के कहाँ चली गयी.... प्रश्न भरी निगाहों से अपने पापा को देखने लगा....
शेखर की आंखो में भी प्रश्न थे....
वह मिटती हुई दूरियों को देख रहे थे.... और मुस्कुरा रहे थे......

1 टिप्पणी:

Smart Indian ने कहा…

बहुत हृदयस्पर्शी कहानी है. ऐसे ही लिखती रहिये. आपको बहुत आगे जाना है.