बुधवार, 6 अगस्त 2008

हमारा सिविक सेंस

अभी कुछ दिनों पहले ही हम लोग नाएग्रा फाल से लौटे हैं। वहां एक दिलचस्प किस्सा हुआ। वैसे किस्सा तो क्या, मुझे ही दिलचस्प लगा और मेरे लिए लेखन का नया विषय बन गया। हुआ यूँ कि वहां ट्राम में चलते हुए जब एक जगह ट्राम रुकी तो जिनको उतरना था वो पंक्ति बना के खड़े हो गए और ट्राम के रुकने पर उतरने लगे। तभी एक व्यक्ति जिसे उस ट्राम पर चढ़ना था, चढ़ने लगा। उसे एक महिला ने टोका कि पहले उतरने वालों को उतरने दिया जाए। पीछे से किसी ने कमेन्ट भी किया "its common sense!!" मैंने मन ही मन सोचा कि ऐसा तो मेरे महान भारत में होता है। और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब देखा कि चढ़ने के लिए जल्दबाजी करने वाले सज्जन भारतीय ही थे!!!
ऐसा क्यों होता है? सोचने पर मजबूर हो गयी। क्यों हम अपने basic civic sense भूल जाते हैं?
मुझे याद है कि दिल्ली से ग्वालियर और ग्वालियर से दिल्ली आने जाने पर (नौकरी के दौरान) मेरी और सोनल (मेरी सहेली) कि हमेशा किसी न किसी से बहस होती थी। कारन होता था मूंगफली के छिलके जो लोग खाने के बाद कम्पार्टमेंट में फेंकना अपना अधिकार समझते हैं।
एक बार तो हद ही हो गयी जब इस बहस के दौरान हमें पता चला कि सामने वाला व्यक्ति डॉक्टर है। (बाद में यह भी पता चला कि उक्त सज्जन ने डाक्टरी की पढाई रशिया से की है)। हम सोचने पर मजबूर हो गए कि तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग का यह हाल है तो अनपढों को क्या बोलें?
अक्सर बस में लड़ाई होती थी कि जब धुम्रपान मना है तो कोई सिगरेट क्यूँ पी रहा है? सामने से जवाब आता था "मैडम ऑटो या टैक्सी में चला करो" या फिर कभी कभी कोई साथ दे दे और अगर वो भद्र पुरूष है तो उसे जवाब मिलता था "तेरे बाप की बस है?"
यानी कि सड़क, बस, ट्रेन मेरे बाप की नहीं है। तो मुझे क्या? खूब गन्दा करेंगे।
ऐसा एक किस्सा और याद आया बस का। सुबह सुबह दिल्ली कि बसों में खड़ा होने कि जगह मिल जाए तो बहुत है। ऐसे ही एक सुबह जब मैं office जा रही थी, तब एक स्टाप पर एक लड़की चढी। यही कोई १८-१९ साल की थी। चढ़ते साथ ही बस के बाएँ तरफ़ आ गयी जहाँ महिलाओं की सीट होती है। एक बहुत ही वृद्ध सरदारजी से जो किउस महिला सीट पर बैठे हुए थे, कहने लगी अंकल जी लेडीज सीट है, उठिए। अंकल जी चूँकि बहुत वृद्ध थे और काफ़ी देर खड़े होने के बाद उनको यह सीट मिली थी उन्होंने खड़ा होने से साफ़ इनकार कर दिया। बस मैडम को गुस्सा आ गया और अपने लेडी होने का नाजायज फायदा उठाते हुए कंडक्टर से शिकायत करने लगीं। मुझसे रहा नही गया। क्या करूँ? आदत से मजबूर हूँ। पर सुनने को खूब मिला। खैर मुझे खुशी हुई कि ना तो कंडक्टर ने, ना ही उन बूढे सरदारजी ने उसकी बातों पर गौर किया। पर मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि उस बाला में इतनी तमीज भी नहीं (मेरे आक्रामक शब्दों के लिए मुझे माफ़ करें) कि अपने दादाजी कि उम्र के व्यक्ति से कैसे बात karni चाहिए?
मुझे याद है जब हम "१९४२ अ लव स्टोरी" देखने गए थे, तब समाप्त होने पर उस फ़िल्म में जन-गन-मन था। स्कूल और माँ-डैडी की शिक्षा के कारन मैं, मेरी बहन खड़े हो गए थे और वो भी सावधान की मुद्रा में। पर हमें नही पता था की हम लोगों के आने जाने के बीच में रोड़ा बन रहे हैं। जो लोग ३ घंटे की फ़िल्म देख रहे थे, उनसे अब ३ मिनट का सब्र भी नही हो रहा था।
और अब तो हालात और पेचीदा हो गए हैं। अब अगर हम किसी को सड़क की सफाई, ट्रेन की सफाई आदि के महत्व को समझाने की कोशिश करें (और अगर समझने वाला हमारा अपना है) तो हमें सुनना पड़ता है कि विदेश क्या गयी, पूरी अँगरेज़ बन गयी। यानी कि बहुत कठिन है डगर पनघट की
घटनाएं अलग अलग हैं और शायद आपको किसी का तारतम्य समझ नही आएगा। चूँकि मैं बहुत अच्छी मंझी हुई लेखिका नहीं हूँ तो अपनी बात को interesting तरीके से कहना नही आता। पर बातों का सार आपकी समझ आ गया होगा (आप लोग तो बहुत अच्छे पाठक हैं न!!)
हमारे civic sense का क्या होता जा रहा है? किसी को अपनी बारी आने तक का सब्र नहीं है। कोई शुरुआत नही करना चाहता। मेरा मकसद मेरे भारत को नीचा दिखने का कतई नहीं है पर हाँ हम इतने पढ़े लिखे और सुलझे हुए तो हैं ही कि अपनी गलतियों को समझ सकें और ख़ास कर उन गलतियों को जिनका निदान हमारे पास है। सफाई करना और साफ़ रहना, दूसरों के समय का मूल्य समझना, पंक्ति बनाना, बेवजह कार का हार्न न बजाना यह सब कोई भ्रष्टाचार जैसी समस्या नहीं है जिसका निवारण हम अकेले नही कर सकते। कम से कम शुरुआत तो कर ही सकते हैं न!!!
तो बस एक प्रार्थना है, सिर्फ़ टिपण्णी देकर अपना फ़र्ज़ पूरा मत करिए। आज कार से बाहर कोई चीज़ फेंकते हुए, सड़क पर थूकते हुए, किसी से बस में लड़ते हुए या सिगरेट पीते हुए सिर्फ़ एक बार मुझे याद कर लीजियेगा... शायद आप अपने समाज को गन्दा करने से बच जाएँ!!
इसी आशा के साथ...........
प्रज्ञा

मेरे कथन को अन्यथा ना लें। जो मैं महसूस करती हूँ वही लिखा है। और ब्लॉग का पहला नियम भी यही है। है न??

14 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

बहुत ही ज़रूरी विषय पर प्रकाश डाला है आपने. हम भारतीयों को इस दिशा में ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है. धन्यवाद!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

पर बातों का सार आपकी समझ आ गया होगा (आप लोग तो बहुत अच्छे पाठक हैं न!!)

आपकी बातों का सार क्या हमको तो पुरी बात ही समझ आयी हुई है ! हम तो लोगों
को इतना भी निवेदन कर लेते हैं की भाई भले दूसरों की भलाई मत करो पर ख़ुद को
और ख़ुद के माहौल को तो साफ़ स्वच्छ रखो ! पर जैसे आपके पंगे होते थे वैसे ही
ताऊ के भी होते हैं ! कई तो सीधे बोलते है--ओ बुढउ .. चुप बैठ !

भगवान् बुद्ध ने कहा है की दूसरो को सुधारने की आवश्यकता नही है ! तुम ख़ुद सुधर
जावो ! दुसरे समय आने पर स्वयम ही सुधर जायेंगे ! और ये बात दिखने में छोटी
है पर नतीजे बड़े हैं ! हर आदमी ऐसा करे तो ?
खैर आज से मैं आपकी बात का भी ध्यान रखूंगा ! एक अच्छी आदत को याद
दिलाने के लिए धन्यवाद !

डॉ .अनुराग ने कहा…

आज सुबह अपने बेटे को स्कुल से लेने गया .तो एक लेडी सीडियो के बीच इस तरह खड़ी हो गयी की उतरने वाले बच्चो को परेशानी होने लगी ...मैंने उनसे विनर्म भाषा में कहा की एक तरफ खड़े हो जाइये .तो बच्चो को आसानी होगी.....उनके पति मुझे घूर कर देखने लगे.पढ़े लिखे लोग थे ....पर ये सच है की हम हिन्न्दुस्तानियो में अनुशासन की कमी है....

ज़ाकिर हुसैन ने कहा…

आज से मैं भी आपकी बात का ध्यान रखूंगा ! एक अच्छी आदत को याद
दिलाने के लिए धन्यवाद !

namrata sant ने कहा…

agar aap india ko sudharana chahti hai to yaha aa kar sudhariye,,,,, vaha rah kar aise batain karna aasan hi.yaha aa kar samaj seva kare ,,,,,,,,,,,,

Smart Indian ने कहा…

"agar aap india ko sudharana chahti hai to yaha aa kar sudhariye,,,,, vaha rah kar aise batain karna aasan hi.yaha aa kar samaj seva kare ,,,"

सलाह तो काफी अच्छी है नम्रता जी! अगर देवनागरी में होती तो हम जैसे कम-पढ़े भी अपनाने की कोशिश कर लेते. खैर मजाक बंद - सच तो यह है कि अच्छे कामों के लिए कोई जगह या मुहूर्त निश्चित नहीं होता है. ग्रंथों में कहा भी गया है -
तदैव लग्नं सुदिनं तदैव, ताराबलम चन्द्रबलम तदैव
विद्याबलं देवबलम तदैव, लक्ष्मी पतिम तेंद्रियुग्मस्मरामि

अच्छे लोग हर जगह हर समय अच्छा ही करते हैं और अच्छा ही कहते हैं और किसी के ताने से निराश भी नहीं होते हैं. रही बात आसानी की, तो आज तो ज़िंदगी बहुत ही आसान है - जब राह बहुत कठिन थी, तब भी अच्छे लोग राह से भटके नहीं, भले ही उसकी कीमत तन-मन-धन-परिवार में से कुछ भी देना पडा हो.

शायद यही फर्क होता है आम और ख़ास में.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

प्रज्ञा जी मैं तो इधर यूँ ही कुछ नए की चाह में आगया था ! पर दो फायदे हो गए ! @ नम्रता जी आप शायद मेरे शहर इंदौर से हैं ! आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई ! आप का सवाल बिल्कुल सही है ! पर आपने शायद प्रज्ञा का पूरा लेख नही पढा ! देखिए , उन्होंने लिखा है..

"मेरा मकसद मेरे भारत को नीचा दिखने का कतई नहीं है पर हाँ हम इतने पढ़े लिखे और सुलझे हुए तो हैं ही कि अपनी गलतियों को समझ सकें और ख़ास कर उन गलतियों को जिनका निदान हमारे पास है।"

अच्छाई को हर कहीं से अपनाया जा सकता है ! अगर विदेश में कोई अच्छी बात् हो रही है तो क्या हमको नही अपनानी चाहिए ? सिविक सेंस और समाज सेवा दोनों शायद अलग अलग पहलू हैं
सिविक सेंस को मैं हमारी नैतिक जिम्मेदारी मानता हूँ ! रही समाज सेवा तो अपना अपना शौक और जेब की और पैसे की उपलब्धता पर निर्भर है ! खैर आप भी अपने ब्लॉग पर कुछ लिखिए! जिससे आपके विचारों से भी लाभान्वित हो सके !
आपको हार्दिक बधाई की चलिए आपने अपनी बात तो रखी !

@ मित्र पित्स्बर्गिया .. आपके बारे में...आपका संस्कृत ज्ञान देख कर ही पता चल गया है that you are none other than a brahmin ?

شہروز ने कहा…

sense less ho gaye hain ham sab.
khuda khair kare

36solutions ने कहा…

प्रज्ञा जी शुक्रिया, बहुत बढिया लेख है, पूरी तारतम्‍यता व लयबद्धता के साथ, जो संदेश देना चाह रही है वह भी स्‍पष्‍ट हुआ है ।

अब हम आपको अवश्‍य याद रखेंगें ऐसे समय में जब 'सिविक सेंस' की अवहेलना हो रही हो । हम सबको अपना दायित्‍व तो कम से कम समझना ही होगा ।

रंजू भाटिया ने कहा…

अनुशासन और सिविक्स सेंस हीनी बहुत जरुरी है आपने बहुत सुंदर तरीके से अपनी बता कही है
कोशिश रहेगी की हम से कोई गलती न हो इस मामले में

रंजू भाटिया ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
राम त्यागी ने कहा…

very good, bahut sahi likha hai
aaap bahut aachi lekhika hai.

tere lekh padane mein bahut aacha lagaa rahataa , u r not out of touch, balki tere lekh kuch esa baya karate hai jo ham sab ke dil ko choota hai

--- keep it up
- Ram

Unknown ने कहा…

No doubt apne bahut accha likha hai. Mai last 8 months se Sweden me hu , ye pehla mauka hai jab mai apne desh se bahar aayi hu. Jab se mai yaha ayi hu ye sawal humesha mere dimag me ghumta rehta hai ki humara Bharat kab aisa banega. Baat bahut choti si hai per mahtvpurn hai hum logo me self-discipline ki bahut kami hai. Asa nahi hai ki yaha ke log humse ziyada kabil hai, per hai! hum se ziyada disciplined hai. Bus me line se cherte hai, buzorgo ko pehle cherne dete hai, road zebra crossing se hi cross kerte hai, kura dustbin me hi phekte(cahe uske liya kitni dur chal ker jana pare), station se bahar aate hi ticket peperwahi se nahi phekte, parties weekend per hi kerte hai.Yani bahut bare nahi per chote kam jo tarike se kerte hai. Apne sahi kaha hai Pragyaji, apne samaz me safai banaye rekhna, apni bari ki pratiksha kerna 'bharshtachar' jaise samsya nahi hai zinki shuruwat hum akele nahi ker sekte, hum ker sekte hai aur hum ne ker bhi di hai....... Pragyaji ki trha mera irada bhi apne desh ko nicha dikhane ka nahi hai. Mai manti hu humare desh ki kuch samsyao ka sutharikaran to bahut kathin hai. Per 'civic sense' jaisi samsya to hum apne aap me thora sa sudhar ker ke ker hi sekte hai na.

shippy Narang ने कहा…

Pragayaji, bahut hi accha lekh hai aapka, aur bahut kucch sochne par bhi majboor kar deta hai. Aisa ki ek vakaya mere saath hua tha jo main sabke saath share karna chahti hoon. Kucch din pehle main metro se apne office ki taraf jaa rahi thee, ek bahut hi smart, sunder mahila, cotton ki sari pehne hue, aankhon me gogs lagaye hue baithi thee(do wali seat par)aur main man hi man unhe dekhkar soch rahi thee ke kitni smart hai, unke saath ek ladki bhi baithi thee koi book padh rahi thee.
Agle station par hi ek maa apne do chote chote bachhon ke saath train me chadi train bilkul thasathas bhari hue thee, wo maa apne dono baccho ke saath usi seat ke paas aakar khadi ho gayee. Gode me 8 mahine ya ek saal ki ek bacchi thee, jo bheed dekhkar rone lagi, maa ne bahut chup karane ki koshish kee par bacchi chup nahi ho rahi thee tab maa khade khade hi us bacchi ko feed karane lagi aur us smart si mahila ne aur doosri ladki, jo kitab padh rahi thee, ne dekha aur phir apna chehra bahar ki taraf ghoooma liya aur mera to jaise gusse ke maare bura haal ho gaya. Maine aur ek do aur mahilaoon ne kaha bhi ke pl. seat de dijeye wo khadi ho kar feed kara rahi hain, par nahi hamari taraf ajeeb si nazaroon se dekha (jaise keh rahi badi aaye uski hamdard) aur phir bahar dekhne lagi. Aur usi waqt wo saari smartness meri nazron me zero ho gayee.

Ye to ek chota sa vakaya hai, jo ham har roz dekhte hain, kabhi bolte hain kabhi chup reh jaate hain par sochieye ke jab ham mahilayeen hi aisa karti hain to kisi purush ko kehne ka kya haque reh jaata hai ke pl. seat de dijeye.

Aur ek baat aur, main bhi likhti hoon apne blog par, par shayad maine pehli baar apne jajbatton ko kisi ke saath share kiya hai aur wo bhi isilieye ki aapke lekh ne mujhe bahut kucch sochne ke liye majboor kar diya.

Aapko dhanyawad.