एक साधारण सी बात है जो शायद भारत में हर घर में होती है। घर में दूध, आलू, प्याज, चीनी, चाय- पत्ती यहाँ तक की कभी कभी सब्जियों पर भी हम किराने वाले से ज्यादा पड़ोसी पर निर्भर रहते हैं। भाई हमने तो अपने अडोस पड़ोस का पूरा फायदा उठाया है इन मामलों में...
"चाचीजी आज दूध फट गया।" घर में मेहमान आयें हैं। माँ ने एक कप दूध मंगाया हैं।"
या फिर "मामीजी, आज घर में मेरी पसंद की सब्जी नहीं बनी।" एक कटोरी दाल दे दो मुझे।"
पड़ोस की चाचियाँ मामियां बहुत काम आती हैं।
अब ज़रा पड़ोस को बढ़ा दिया जाए। यानी कल्पना कीजिये कि एक कप दूध के लिए आप मोहल्ले की नहीं, इलाके की नहीं, शहर या प्रदेश की ही नहीं देश की सीमा को लाँघ जाएँ।
कैसा विचार है??
मुझे यहाँ अमेरिका में आए हुए ५ महीने हो चले हैं। जब आए थे तब गजब की सर्दी थी। २-३ महीने तक कहीं बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई थी। जब मौसम खुशनुमा हुआ, तब बेटी को लेकर पार्क जाना शुरू किया। तब कुछ लोगों से दोस्ती हुई। पता चला मेरे इस छोटे से शहर में ही करीब ५०० भारतीय, ५०-६० पाकिस्तानी और कुछ बंगलादेशी परिवार भी रहते हैं। यानी कि कुल मिलाकर अच्छा खासा देसियों का जमघट है।
धीरे धीरे लोगों से बात होने लगी। एक बार कुछ लोगों ने PICNIC पर जाने का कार्यक्रम बनाया। एक सहेली के पतिदेव नहीं आ पाये। कारण पता लगा कि उनका क्रिकेट का मैच था। थोड़ा और कुरेदने पर मालूम हुआ कि वह IOWA STATE CRICKET TEAM में हैं। अब अमेरिका में तो क्रिकेट खेला नहीं जाता। जाहिर है कि यह क्रिकेट टीम देसियों से ही मिलकर बनी है। यानी कि जब आप अपने STATE की टीम में हो तो हो सकता है आपको पाकिस्तानी या बंगलादेशी भाई के साथ अपने भारतीय भाई के विर्रुद्ध खेलना हो!! यानी यहाँ सब देसी भाई भाई हैं।
एक और वाकया बताना चाहूंगी। एक मेरी पाकिस्तानी सहेली है। उसके घर गयी तो उसने पूछा कि क्या कोई भारत जाने वाला है? उसे कुछ सामान मँगाना था जो कि हालाँकि अमेरिका में मिलता है पर ४-५ गुना बढे हुए दाम पर और कोई पकिस्तान नहीं जा रहा था। इसीलिए वह चाह रही थी कि कोई भारत से उसका सामान लेता आए। मैंने उसे उसे बातों बातों में बताया कि यहाँ तो जब भी कोई भारत जाता है तो वहां से दही जरूर लाता है ताकि यहाँ रहने वाले भारतीयों को घर का दही ज़माने के लिए जामन मिल जाए। (यहाँ कई देसी परिवार ऐसे हैं जो यहाँ का YOGHURT खाना पसंद नहीं करते।)
पलट कर उसने मुझे बताया कि उसके घर में जो दही रखा है, वह भारतीय जामन से ही जमा है!!! जो कि उसके पास NEW YORK से होता हुआ आया है।
यह सुनकर एक अनुभूति हुई। समझ नहीं आ रहा उसे क्या नाम दूँ?? सोचने पर मजबूर हो गयी कि ऐसा क्या है जो हमें अलग करता है?? हमारा खाना भी अहमद के अचार के बिना उतना ही फीका लगता है जितना उनकी चाय हल्दीराम कि भुजिया के बिना! हम नुसरत साहब को उसी अदब और चाव से सुनते हैं जितना कि वह शाहरुख़ को देखते हैं! हमने भी अना और मूरत (पाकिस्तानी सीरियल) को उतना ही सराहा है जितना उन्होंने क्यूंकि... और सात फेरे को!!!
फिर क्यों हम एक दूसरे के दुश्मन हैं?? काश इस सवाल का जवाब देश को अपनी जागीर समझने वाले ४७ के 'महान' नेता भी दे पाते।
आज एक बात मन में उठी है। क्या एक चम्मच दही जो सात समंदर पार करके आता है और सरहद पार के घरों के खाने का स्वाद बढ़ता है, उसमें हम अपने प्यार, विश्वास की चीनी नहीं मिला सकते?? जिससे हमारे दिलों की खटास कुछ तो कम हो जाए!!
एक चम्मच जामन के बहाने ही सही हम कुछ करीब तो आयें!!
बस इसी दुआ और आशा के साथ....
16 टिप्पणियां:
यही जिंदगी है प्रज्ञा जी ..हम दही दूध के लें देन तो रखते है पर अपने दिल को भी इन दीवारों से परे नही जाने जाते ,शायद अब नफरत उतनी न हो ओर आगे आने वाले सालो में ओर कम हो जाये
bahut achcha laga is likh ko padhkar...mujhe lagta hai ki aam aadmi to aapas mein mohabbat hi rakhte hain.magar raajneeti ne dilo ko alag kar rakha hai.
एक चम्मच जामन के बहाने ही सही हम कुछ करीब तो आयें!!
बहुत सहीं लिखा है आपने प्रज्ञा जी । जामन के बहाने हमें भी अपना बचपन और गांव याद आ गया जब हमें भी हमारी मां इसके लिये दौडाती थी ।
doobeyji doob gaye apke lekh mein hum aaj bhi kareeb hi hain ye pardes mein ja kar mehsoos hota hai kash ise hum apne desh mein rahte hue mehsoos karen to kya baat hai
Bahut khoobsoorat baat kahi aapne. Kaash aisa sab log sochte.
एक चम्मच जामन ने जो प्यार अपने देश से दूर गए भारतियों और पाकिस्तानियों के बीच में बाँटा है ,आशा करता हूँ की वही प्यार सरहद पार भी फैले.
प्रज्ञा, आपका सवाल बहुत सही है. मानव रक्त के प्यासे कुछ तथाकथित नेताओं ने ज़मीन पर एक लकीर खींच दी और रक्तपात कम करने के लिए गांधीजी जैसे लोगों तक को इसे मानना पड़ा. मेरे अनेकों पाकिस्तानी मित्रों का मानना है कि पाकिस्तान के अलगाव का कोई भी कारण नहीं है. उनमें से तो कई को इस बात का अफ़सोस है कि उनके बाप दादे कट्टरता की उस खूनी आंधी मैं क्यों बह गए. बहुत अच्छा लिखती हो, इसे जारी रखो.
nida fazli yaad aaye:
hindu bhi maze hain,musalmaan bhi maze mein
insaan pareshaan hai,yahan bhi aur wahaan bhi
bahut achcha sansmaran hai.
शाबाश प्रज्ञा !
अगर तुम्हारे जैसे कुछ लेखक इस विषय पर और लिखना शुरू कर दें तो संकीर्ण मनोदशा को बदलने में अधिक देर नहीं लगेगी ! उम्मीद है इस विषय पर और लिखोगी !
आशीर्वाद तथा शुभकामनायें !
beshak bahut shandaar likha hai aapne. kash is baat ko dharm ki bedi main jakda har insaan samajh pata to hamaari aur aapki is dunya ka rang hi kuchh aur hota.
itni achhi rachna ke liye badhai!!!!!!!!
बहुत सुन्दर विचारोत्तेजक आलेख. यह सारी दीवारें सियासत की चालें हैं, और यह एकदम स्पष्ट हो जाता है, जब हम भारत से बाहर चले आते हैं.
ऐसे ही लिखती रहिये.
len den to chaltaa hi rahega.
sadiyaan beet gayee hain isme.
fir dene ka sukh woh bhi nirantar mil jaaye to bhai wah..........
rajesh
प्रज्ञा जी कल तो हमनै आपकी कविता पढी थी !
आज वापस आए और थारा यो पोस्ट पढ़या !
भई थमनै तो इस तरिया लिख्या सै की म्हारे
कान ताते हो गए ! जामन तैं शुरू करके यो
राजनितिज्ञा कै सर पै लठ मार दिए ! घण्णा
सुथरा काम करया सै यो तन्नैं ! इसी तरिया
लिखण की जरुरत सै ! जीती रह !
कल फ़िर आके तेरी और पिछली पोस्ट
पढेगा ताऊ ! तब तक ताऊ की राम राम !
दही जामन .बहुत दिल को छु लेने वाला लिखा है ..जब पापा आर्मी में थे तो बॉर्डर से उस पार क्या होगा कैसा होगा काश हम वहां भी जा सकते आसानी से तो कितना अच्छा होता ..लाहोर की जिन गलियों की बातें दादी नानी के मुहं से सुनी है काश वह देख पाते जैसे भारत का कोई कोना देख आते हैं ..पर यह काश काश ही रहा ..और अब जब्यः सब पढ़ रही हूँ तो लगता है बाहर तो यह सब दिवार नही रहती ..कैसे सब एक हो जाते हैं ..काश इस बात को यूँ अलग करने वाले भी समझ पाते !!
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ओह प्रज्ञा,
तुमने तो मुझे हिला दिया ।
यही ख़्याल मेरे दिल में सुलग रहे थे,
और आज यहाँ इस पोस्ट पर देख रहा हूँ ।
अपनी निगाहों और सोच में यही पैनापन बनाये रख !
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