अभी कुछ दिनों पहले ही हम लोग नाएग्रा फाल से लौटे हैं। वहां एक दिलचस्प किस्सा हुआ। वैसे किस्सा तो क्या, मुझे ही दिलचस्प लगा और मेरे लिए लेखन का नया विषय बन गया। हुआ यूँ कि वहां ट्राम में चलते हुए जब एक जगह ट्राम रुकी तो जिनको उतरना था वो पंक्ति बना के खड़े हो गए और ट्राम के रुकने पर उतरने लगे। तभी एक व्यक्ति जिसे उस ट्राम पर चढ़ना था, चढ़ने लगा। उसे एक महिला ने टोका कि पहले उतरने वालों को उतरने दिया जाए। पीछे से किसी ने कमेन्ट भी किया "its common sense!!" मैंने मन ही मन सोचा कि ऐसा तो मेरे
महान भारत में होता है। और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब देखा कि चढ़ने के लिए जल्दबाजी करने वाले सज्जन भारतीय ही थे!!!
ऐसा क्यों होता है? सोचने पर मजबूर हो गयी। क्यों हम अपने basic civic sense भूल जाते हैं?
मुझे याद है कि दिल्ली से ग्वालियर और ग्वालियर से दिल्ली आने जाने पर (नौकरी के दौरान) मेरी और सोनल (मेरी सहेली) कि हमेशा किसी न किसी से बहस होती थी। कारन होता था मूंगफली के छिलके जो लोग खाने के बाद कम्पार्टमेंट में फेंकना अपना अधिकार समझते हैं।
एक बार तो हद ही हो गयी जब इस बहस के दौरान हमें पता चला कि सामने वाला व्यक्ति डॉक्टर है। (बाद में यह भी पता चला कि उक्त सज्जन ने डाक्टरी की पढाई रशिया से की है)। हम सोचने पर मजबूर हो गए कि तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग का यह हाल है तो अनपढों को क्या बोलें?
अक्सर बस में लड़ाई होती थी कि जब धुम्रपान मना है तो कोई सिगरेट क्यूँ पी रहा है? सामने से जवाब आता था "मैडम ऑटो या टैक्सी में चला करो" या फिर कभी कभी कोई साथ दे दे और अगर वो भद्र पुरूष है तो उसे जवाब मिलता था "तेरे बाप की बस है?"
यानी कि सड़क, बस, ट्रेन मेरे बाप की नहीं है। तो मुझे क्या? खूब गन्दा करेंगे।
ऐसा एक किस्सा और याद आया बस का। सुबह सुबह दिल्ली कि बसों में खड़ा होने कि जगह मिल जाए तो बहुत है। ऐसे ही एक सुबह जब मैं office जा रही थी, तब एक स्टाप पर एक लड़की चढी। यही कोई १८-१९ साल की थी। चढ़ते साथ ही बस के बाएँ तरफ़ आ गयी जहाँ महिलाओं की सीट होती है। एक बहुत ही वृद्ध सरदारजी से जो किउस महिला सीट पर बैठे हुए थे, कहने लगी अंकल जी लेडीज सीट है, उठिए। अंकल जी चूँकि बहुत वृद्ध थे और काफ़ी देर खड़े होने के बाद उनको यह सीट मिली थी उन्होंने खड़ा होने से साफ़ इनकार कर दिया। बस मैडम को गुस्सा आ गया और अपने लेडी होने का नाजायज फायदा उठाते हुए कंडक्टर से शिकायत करने लगीं। मुझसे रहा नही गया। क्या करूँ? आदत से मजबूर हूँ। पर सुनने को खूब मिला। खैर मुझे खुशी हुई कि ना तो कंडक्टर ने, ना ही उन बूढे सरदारजी ने उसकी बातों पर गौर किया। पर मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि उस बाला में इतनी तमीज भी नहीं (मेरे आक्रामक शब्दों के लिए मुझे माफ़ करें) कि अपने दादाजी कि उम्र के व्यक्ति से कैसे बात karni चाहिए?
मुझे याद है जब हम "१९४२ अ लव स्टोरी" देखने गए थे, तब समाप्त होने पर उस फ़िल्म में जन-गन-मन था। स्कूल और माँ-डैडी की शिक्षा के कारन मैं, मेरी बहन खड़े हो गए थे और वो भी सावधान की मुद्रा में। पर हमें नही पता था की हम लोगों के आने जाने के बीच में रोड़ा बन रहे हैं। जो लोग ३ घंटे की फ़िल्म देख रहे थे, उनसे अब ३ मिनट का सब्र भी नही हो रहा था।
और अब तो हालात और पेचीदा हो गए हैं। अब अगर हम किसी को सड़क की सफाई, ट्रेन की सफाई आदि के महत्व को समझाने की कोशिश करें (और अगर समझने वाला हमारा अपना है) तो हमें सुनना पड़ता है कि विदेश क्या गयी, पूरी अँगरेज़ बन गयी। यानी कि बहुत कठिन है डगर पनघट की
घटनाएं अलग अलग हैं और शायद आपको किसी का तारतम्य समझ नही आएगा। चूँकि मैं बहुत अच्छी मंझी हुई लेखिका नहीं हूँ तो अपनी बात को interesting तरीके से कहना नही आता। पर बातों का सार आपकी समझ आ गया होगा (आप लोग तो बहुत अच्छे पाठक हैं न!!)
हमारे civic sense का क्या होता जा रहा है? किसी को अपनी बारी आने तक का सब्र नहीं है। कोई शुरुआत नही करना चाहता। मेरा मकसद मेरे भारत को नीचा दिखने का कतई नहीं है पर हाँ हम इतने पढ़े लिखे और सुलझे हुए तो हैं ही कि अपनी गलतियों को समझ सकें और ख़ास कर उन गलतियों को जिनका निदान हमारे पास है। सफाई करना और साफ़ रहना, दूसरों के समय का मूल्य समझना, पंक्ति बनाना, बेवजह कार का हार्न न बजाना यह सब कोई भ्रष्टाचार जैसी समस्या नहीं है जिसका निवारण हम अकेले नही कर सकते। कम से कम शुरुआत तो कर ही सकते हैं न!!!
तो बस एक प्रार्थना है, सिर्फ़ टिपण्णी देकर अपना फ़र्ज़ पूरा मत करिए। आज कार से बाहर कोई चीज़ फेंकते हुए, सड़क पर थूकते हुए, किसी से बस में लड़ते हुए या सिगरेट पीते हुए सिर्फ़ एक बार मुझे याद कर लीजियेगा... शायद आप अपने समाज को गन्दा करने से बच जाएँ!!
इसी आशा के साथ...........
प्रज्ञा
मेरे कथन को अन्यथा ना लें। जो मैं महसूस करती हूँ वही लिखा है। और ब्लॉग का पहला नियम भी यही है। है न??