मेरी लेखनी
कुछ शब्दों को जोड़कर, इधर उधर से जज़्बात लाकर कुछ रचा है. ज्यादा वक्त नहीं बीता चिट्ठा जगत से मुलाकात हुए. हमेशा से मन में था. जब तकनीक मेरे एहसासों से मिली तो "मेरी लेखनी" बन गयी.आशा है आप भी इसे प्यार देंगे पर लाड चाहूंगी अनुशासन भरा ताकि अपनी कमियों को सुधार सकूं.
गुरुवार, 28 अप्रैल 2011
सब ठीक है..
गुरुवार, 14 अप्रैल 2011
बचपन बचाओ
सोमवार, 11 अप्रैल 2011
राम नवमी और राम राज का सपना
मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
मान भंग
"बस!! बहुत हो गया.. रोज़ की ही बात है। अब नहीं सहा जाता।"
पूर्णिमा ने निश्चय कर लिया।
" आर या पार। यह भी कोई जीवन है?? ना मन का खाना, न पहनना, न कहीं घुमने जाना। बस रात दिन खटते रहो ऑफिस या घर में। उस पर भी कोई क़द्र करने वाला नहीं। जब घर से चली जाऊंगी न, तब पता चलेगा सब को। अभी बैठे बैठे बहुत बातें बनाना आता है। कहते हैं न घर की मुर्गी...."
"बस बस... ज्यादा मत बोलो। अगर तुम्हारे माँ-बाप होते तो?" बीच में टोका शाश्वत ने। "मेरे माँ बाप ऐसे हर बात पर टांग नहीं अडाते। भइया भाभी को पूरी छूट है अपना जीवन जीने की।"
"अरे!! तो तुम्हें कौन सी रोक है? सारे काम तो अपने मन के ही करती हो। कभी कभी उनकी बात मान भी लोगी तो क्या बिगड़ जाएगा??"
"और अगर तुम्हारी बहन एक हफ्ते बाद आ जायेगी तो उसका क्या बिगड़ जायेगा?? अच्छा खासा प्रोग्राम बना था घूमने का... बीच में कबाब में हड्डी..."
"पूर्णिमा........." इतनी ज़ोर से चीखा शाश्वत कि माँ-बाबूजी आ गए दूसरे कमरे से।
"बस अब कुछ और कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। जिसे आना है आए, मैं ही चली जाऊंगी यहाँ से तब रहना आप सब लोग अपनों के साथ... एक मैं ही पराई हूँ न यहाँ.." रोती हुई चली गयी पूर्णिमा दूसरे कमरे में।
माँ ने समझाया शाश्वत को "अगर हम नेहा को १ हफ्ते बाद आने को कह दें, तब ठीक रहेगा। तुम और पूर्णिमा भी घूम आओगे और उसका मन भी लग जाएगा।"
"नहीं माँ कोई ज़रूरत नहीं है नेहा को कुछ कहने की. उसका कार्यक्रम बहुत पहले तय हो गया था। पूर्णिमा ने ही बीच में गोवा जाने की रट लगा दी। उसके ऑफिस के लोग जा रहे हैं। मैं और पूर्णिमा बाद में भी जा सकते हैं। तुम नेहा को कुछ मत कहो। चुपचाप जा कर सो जाओ। वह सुबह तक ठीक हो जायेगी।"
"हम्म कल ही चली जाऊंगी तब पता चलेगा। सच ही कहा था सबने यहाँ शादी मत करो। तब तो इश्क सवार था सर पर। पता नहीं क्यों मति मारी गयी थी मेरी। सच है, रिश्ता हमेशा बराबर वालों में होना चाहिए।" सोचते सोचते सो गयी थी पूर्णिमा।
पूर्णिमा और शाश्वत.....बहुत मशहूर हो चले थे कॉलेज में। सब उन्हें 'एक दूजे के लिए' कह कर पुकारते थे। हलाँकि देखा जाए तो उनके परिवारों में ज़मीन आसमान का अन्तर था। पूर्णिमा शहर के जाने माने उद्योगपति सुदर्शन लाल गुप्ता की एकलौती और मुंहलगी बेटी थी। उसके पिता की कई मिलें थी। शहर में कई दुकानें थीं। जबकि शाश्वत सीधे सादे किंतु आदर्शवादी नारायण चंद अग्रवाल का पुत्र था, जो कि उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। नारायण बाबु ने शाश्वत को कई बार इशारों में समझाया था कि पूर्णिमा से मिलना जुलना ज्यादा ठीक नहीं है। उसके घर वाले कभी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे। पर कुछ तो पूर्णिमा का प्रेम था और कुछ उसका साहस जो कि उसे पूर्णिमा से दूर ही नहीं होने देता था। यह सच था पूर्णिमा बहुत साहसी थी। या फिर कहें कि जिद्दी थी। बचपन से अब तक उसने जिस चीज़ पर हाथ रख दिया, वह उसकी हो जाती थी। यही कारण था कि जब शाश्वत का सवाल आया तो उसने किसी की नहीं सुनी। उसका कहना था कि प्रेम के आगे जाति-धर्म, रूपया-पैसा, खानदान-औकात जैसी बातें तुच्छ हैं। यहाँ तक कि उसने अपने माँ-बाप से कह दिया कि उसे उनकी जायदाद में से कुछ नहीं चाहिए। वह अपने बलबूते पर नौकरी करने के काबिल है। और शाश्वत से ही शादी करेगी।
यह बात सच थी कि पूर्णिमा बचपन से ही पढ़ाई में मेधावी रही थी। शायद यही गुण उसे शाश्वत के करीब लाया था। शाश्वत भी मेधावी होने के साथ कॉलेज की अन्य गतिविधियों में सक्रिय था। जब वह वाद विवाद में बोलने के लिए मंच पर आता था, तब सारा माहौल खामोश हो जाता था। पूर्णिमा भी उसकी ओजस्विता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उन दोनों की शादी हलाँकि परिवार वालों की उपस्थिति में हुई थी। किंतु जहाँ एक ओर शाश्वत के घर वालों में खुशी का माहौल था, वहीँ पूर्णिमा के परिवार में किसी को इस शादी से खुशी नहीं थी। उन्हें चिंता थी कि बाकी रिश्तेदारों के आगे उनकी गर्दन झुक गयी। पूर्णिमा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।
शादी के बाद कुछ दिन तो सही निकले पर उसके बाद पूर्णिमा को एहसास होने लगा कि उसके घर और ससुराल में ज़मीन आसमान का अन्तर है। उसे कई बार खीज होती थी जब देखती कि ऑफिस से आने के बाद सब उसके इन्तेज़ार में भूखे बैठे हैं। शुरू शुरू में उसने कहा कि वह लोग उसका इंतज़ार ना किया करें। उसे समय पर खाने कि आदत है। इसीलिए जब देर हो रही होती है तो वह ऑफिस की कैंटीन में खा सकती है। पर शाश्वत ने उसे बोला कि दिन का खाना तो हर कोई अलग ही खाता है इसीलिए परिवार के लोग रात का खाना साथ ही खाना पसंद करते हैं। शुरू शुरू में उसे यह बात अच्छी लगी पर धीरे धीरे यह बंधन लगने लगा। इस वजह से शाश्वत रात को बाहर खाना पसंद नहीं करता था। उसे बहुत बुरा लगता था। उसके घर तो ऐसा कुछ नहीं था। सब आज़ाद थे। जिसको जो करना है करे। शाश्वत का कहना था कि आज़ादी और लापरवाही दो अलग अलग बातें हैं। पूर्णिमा ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाती थी पर धीरे धीरे उसने फ़ोन करना शुरू कर दिया कि ऑफिस में देर हो रही है और खाने के मामले में समय की पाबन्द होने के कारण वह ऑफिस में ही खाना खा लेगी। कोई उसका इंतज़ार नहीं करे।
शाश्वत की एक बड़ी बहन थी। उनका ससुराल चेन्नई में था। दूरी ज्यादा होने के कारण वह २-३ सालों में ही आ पाती थीं मायके। जबसे उनके बच्चे बड़े हो गए थे, उन्हें उनके स्कूल का कार्यक्रम भी देखना पड़ता था। इसीलिए उनका आना बहुत कम हो पाता था। इस बार वह शाश्वत की शादी के बाद ही आ रहीं थीं। सारा घर खुश था। पूर्णिमा को भी अच्छा लग रहा था। कुछ दिनों के लिए ही सही, घर में कुछ रौनक तो होगी। वरना इस घर में तो वह अपने दोस्तों को बुलाने की, पार्टी करने की सोच भी नहीं सकती। कोई भी आयोजन हो, मन्दिर से शुरू और खीर पर ख़तम। इसी बीच उसके ऑफिस के सहयोगियों का गोवा जाने का कार्यक्रम बना। उन लोगों ने उसको भी बोला साथ चलने को। उसने बिना सोचे समझे हाँ कर दी। बाद में याद आया कि उसी समय तो दीदी आ रहीं हैं। अब मन करने में उसकी शान के खिलाफ होता। ऐसा कितनी बार हुआ कि कोई न कोई कार्यक्रम बना और बाद में उसने मना किया। इस बार उसने निश्चय किया कि चाहे कुछ हो जाए, वो जायेगी ही जायेगी। शाश्वत ने सुना तो वही हुआ जिसका डर था। बात नोंक-झोंक से शुरू हुई और अबोले पर समाप्त हुई।
अगले ही दिन उसने घोषणा की कि वह अपने मायके जा रही है। और तभी लौटेगी जब शाश्वत उसके साथ गोवा जाने को मान जाएगा। माँ-बाबूजी ने कितना रोका?? पर वह भी पूरी जिद्दी ही थी। हाँ शाश्वत के रोकने का इंतज़ार ज़रूर किया। पर ऐसा ना तो होना था, ना ही हुआ। और अगले घंटे वह अपने मायके की दहलीज़ पर खड़ी थी। माँ ने पूछा भी कि ऐसे कैसे अचानक?? कोई फ़ोन नही, कोई सूचना नहीं?? पूर्णिमा ने बता दिया कि वह रूठ कर आयी है। शायद उसे पूरा विश्वास था कि शाश्वत उसे लेने आज नहीं तो कल ज़रूर आएगा।
धीरे धीरे दिन बीतने लगे। पूर्णिमा का विश्वास कमज़ोर पड़ता जा रहा था। पर उसमें भी गज़ब का गुरूर था। उसने कोई कोशिश नहीं की शाश्वत से संपर्क करने की। उसके घरवालों का कहना था कि अगर वो झुक जाती है तो उसका कोई मान नहीं रह जाएगा ससुराल में। शुरू शुरू में तो पूर्णिमा को अच्छा लग रहा था घर में। किसी बात पर कोई रोक-टोक नहीं। ऑफिस के बाद अक्सर सहेलियों के साथ कहीं घूमने निकल जाती थी। इसी बीच गोवा वाला टूर भी हो गया। वह अकेली ही चली गयी। हालाँकि वहां जाकर उसे पछतावा हुआ कि उसे नहीं आना चाहिए था। वहां सभी जोडियों में थे। बस पूर्णिमा ही अकेली थी। सब जैसे तरस खाते थे उसपर। वह बीच टूर से ही वापस आ गई। माँ को आश्चर्य हुआ कि वह जल्द ही लौटा आई। भाभी ने भी सवालिया नज़रों से उसे देखा। पर उसने महसूस कर लिया कि भाभी की नज़रों में सवाल के साथ जवाब भी है और जवाब पता होने के कारण भाभी नज़रों में ही मुस्कुरा रही थीं। पूर्णिमा से वह मुस्कराहट सहन नहीं हुई। चुपचाप अपने कमरे में चली गयी। अब उसे हर दिन उस फ़ोन का इंतज़ार रहता जो नही आता। उसे खीज होने लगी थी अपने निर्णय पर। घर में जब भी कोई आने वाला होता, माँ किसी ना किसी बहाने से कोशिश करतीं कि पूर्णिमा उनके सामने नहीं पड़े वरना फिर अनचाहे सवालों का जवाब देना पड़ेगा। वह भी अपना ज्यादा से ज्यादा समय ऑफिस में बिताती। हालाँकि सहकर्मियों की नज़रों में भी उसे ताने, सवाल दिखते पर वहां कम से कम काम तो रहता था उन सबको भूलने के लिए। छुट्टी का दिन उसके ऊपर भारी पड़ता। सारा दिन या तो कमरे की सफाई में लगी रहती या फिर फालतू की खरीदारी करती रहती।
इसी बीच उसके घर की काम वाली ने छुट्टी मांगी। भाभी ने साफ़ इनकार कर दिया। उसने कामवाली का पक्ष लेते हुए भाभी से कहा कि उन्हें छुट्टी दे देनी चाहिए। भाभी ने खीजते हुए बोला कि वह चुपचाप ही बैठी रहे। इस घर का काम उसके घर के जैसा नहीं है कि कैसे भी चल जायेगा। रोज़ कोई न कोई आता है, चाय नाश्ता, कई काम होते हैं। वह अवाक रह गयी!! यह वही भाभी थीं जो उसे पलकों पर बैठा कर रखती थीं। उसने माँ को बोला कि भाभी को समझाए कि उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए। माँ ने कहा कि गलती भाभी की नहीं, पूर्णिमा कि है जो दूसरों के घर के मामले में बोल रही है। तब पूर्णिमा को पहली बार एहसास हुआ कि अब यह उसका घर नहीं है।
अगले दिन कामवाली ने भाभी को बोल दिया कि वह यह नौकरी नहीं कर सकती। उसकी जितनी पगार बनती हो, दे दें। पूर्णिमा ने उसको पूछा कि नौकरी क्यों छोड़ रही है??
"दीदी, मेरी ननद की शादी है। भाभी छुट्टी नही दे रहीं। तो मैं क्या करूँ?"
"अरे तो ननद की शादी है तो नौकरी छोड़नी जरूरी है? तेरे घरवाले क्या कर रहे हैं?" पूर्णिमा ने पूछा। "घर वाले सभी व्यस्त होंगे न?? मेरी एक ही ननद है। उसको ही ढंग से विदा नहीं कर पाऊंगी तो जिंदगी भर मुझे ख़राब लगेगा। वैसे भी बेटियाँ पराई ही होती हैं। अब जितने दिन बचे हैं शादी में, मैं उसके साथ हमेशा रहना चाहती हूँ. नौकरी तो और भी मिल जायेगी। ननद तो विदा होकर पता नहीं कब आयेगी??"
कुछ अन्दर से दरक गया पूर्णिमा के भीतर। एक अनपढ़ गंवार कामवाली बाई उसे जीवन का सत्य बता गयी। और वह अपनी डिग्रीयों के तले दबी हुई जिंदगी देख ही नहीं पा रही???
अगले दिन उसका खाना खाने का मन नहीं हुआ। किसी ने ज्यादा कहा भी नहीं। सब जानते थे कि उसे मनाना कोई आसान काम नहीं है और फिर सबको अपने अपने ज़रूरी काम थे। वह पानी पीने के लिए अपने कमरे से बाहर निकली तो उसके कानों में घरवालों की बातें पड़ीं।
"ऐसे कब तक चलेगा?? उसे अपने घर तो जाना ही होगा न??" माँ की आवाज़ थी।
"मैंने पहले ही कहा था कि यह लड़की उस घर में नहीं रह पाएगी। आखिर कार इतना अन्तर है हमारे और उस घर में। " पापा बोले।
"क्षमा करें पापा पर पूर्णिमा किसी भी घर में जाती तो ऐसा ही होता। गुस्सा तो नाक पर रखा रहता है। किसी की बात नहीं मानना। हमेशा अपने हिसाब से सबको चलाना।" यह भाभी थीं जो कभी उसकी बहुत अच्छी सहेली हुआ करती थीं और जिनका हिसाब वह पिछले कुछ दिनों से माँ के साथ, अपने साथ किए जा रहे बर्ताव में देख रही थी।
"मैं आज ही बात करता हूँ शाश्वत से। कुछ पैसे वैसे का नाटक है तो ले जाओ पैसे और अपनी बीवी को भी। भई हमें भी समाज में उठना बैठना है।" भइया ने अपना मत दिया।
पूर्णिमा सन्न रहा गयी। शाश्वत पर इतना घिनौना आरोप!!!! और माँ-बाबूजी भी कुछ नहीं कह रहे??आखिर उससे और नहीं सुना गया। सामने आकर बोली "आप लोगों को किसी से कुछ कहने कि ज़रूरत नहीं है। शाश्वत इतने गिरे हुए नहीं हैं कि पैसे के लिए अपनी बीवी को अलग करें। मैं ही बेवकूफ थी जो आप लोगों को अपना समझ कर यहाँ आ गयी थी। अब समझ आया कि अपना घर क्या होता है?? आप लोगों को धन्यवाद देना चाहूंगी कि आज आपने मेरा मोहभंग कर दिया। मेरी आँखें खोल दीं।"
आगे नहीं बोल पायी। सबको वहीँ छोड़ कर शाश्वत को फ़ोन करने चल दी। अपनी गलतियों की माफ़ी मांगने। उसको बोलने कि आकर उसे अपने घर ले जाए। आज उसका मिथ्या मान हमेशा के लिए भंग हो गया था।
रविवार, 6 फ़रवरी 2011
प्रमित
बहुत दिनों.. या कहूँ कि बहुत महीनों बाद आज कुछ लिखने बैठी हूँ... डर है कहीं आप लोग मुझे भूल तो नहीं गए?
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
रिप्लाई टू आल
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
नन्ही परी
कहते हैं बच्चे इश्वर का दूसरा रूप होते हैं. जब तक आम्या (मेरी बेटी) हमारे जीवन में नहीं आई थी, तब तक यह बात सिर्फ कहावत थी हमारे लिए. उसके आने के बाद इस बात की गहराई को महसूस किया. अब तो लगता ही नहीं की कभी ऐसा भी था की हम उसके बिना भी रह रहे थे. उसकी एक एक बात हमारे लिए किसी कोहिनूर हीरे से कम नहीं है.
उसके तीसरे जन्मदिन (११ फरवरी) के अवसर पर यह कविता बनाई थी पर ब्लॉग पर अब डाल रही हूँ.
कल की जैसे बात हो, हमारे आँगन को उसने किया गुलज़ार
हमारी ज़िन्दगी में रस घोला, पूरे घर में आ गयी जैसे बहार
दादा-दादी, नाना-नानी को मिला नया खिलौना
पापा और माँ की बाहें बनी उसका बिछौना
पल पल में रोना ही थी सिर्फ उसकी भाषा
हम सब की मनौती, हम सबकी आशा
वो दिन भर की थकन के बाद रात भर का जागना
बस उसकी एक झलक से उस थकन का भागना
उसका घुटनों पर चलना वो पहला कदम
उसकी छोटी पायल की घर भर में छम-छम
समय के साथ धीरे धीरे उसका भी बढ़ना
अपनी बात मनवाने के लिए हम सबसे लड़ना
उसकी शरारत उसकी मुस्कान
उसके गुड्डे गुडिया, मेरे घर के मेहमान
अब तो क्या घर में है होना, बताने लगी है
अपनी बातों से हमें भी अब चलाने लगी है
अब नन्ही मेरी स्कूल जाने लगी है
जैक एंड जिल की कहानी सुनाने लगी है
उसके हाथ अब रंगों को पकड़ने लगे हैं
मेरे घर की दीवारों पर अब घर बनने लगे हैं
मेरा बचपन वो वापस है लायी
मेरे घर में एक नन्ही परी है आई