शनिवार, 24 जनवरी 2009

मन्नत

कभी कभी कितनी कश्मकश हो जाती है जीवन में? मन कुछ चाहता है पर आप किसी को बोल नही सकते। कितना औपचारिक बन जाता है सब कुछ?

आज ५ दिन हो गए, अस्पताल में ही हूँ... आशा मौसी के पास। उनको छोड़ के जाने का जी ही नहीं कर रहा। कभी नहीं सोचा था कि उनको इस हालत में देखूंगी। पर वही सब कुछ तो नहीं होता न जो हम चाहते हैं। यही ज़िन्दगी है।

आशा मौसी.... हम लोगों के लिए एक प्रेरणा, एक आदर्श... वो हमारी सगी मौसी नहीं हैं। पर सगी से कम भी भी नही हैं। कभी कभी खून के रिश्तों से ज़्यादा मजबूत दिल और प्यार के रिश्ते होते हैं। आशा मौसी हमारे पड़ोस में रहती थीं। उन दिनों अंकल-आंटी कहने का इतना रिवाज़ नहीं था। चाचा, मामा, मौसी, बुआ... बस यही संबोधन सुनने में आते थे। हमारे पास वाले घर में एक छोटा सा परिवार था। पति-पत्नी और दो बच्चे। जब हमारा स्थानांतरण हुआ, तब पिताजी को यही घर उचित लगा। कारण कि उनको अक्सर शहर के बाहर जाना पड़ता था और मैं होने वाली थी तो माँ-पिताजी ऐसे घर कि तलाश में थे जो अस्पताल से दूर भी न हो और पड़ोस भी अच्छा हो। पहली मुलाकात में ही शास्त्री जी पिताजी को अच्छे लगे। बस वो माँ-पिताजी के चाचा-चाची बन गए और मेरे और भइया के नाना-नानी। इस तरह आशा हमारी मौसी बनीं और श्याम हमारे मामा। हलाँकि श्याम हमारे मामा न होकर भइया ही थे। उनकी और मौसी की उम्र में बहुत अन्तर था।

बचपन के दिन बहुत अच्छे होते हैं। अगर इंसान का बस चले तो इस दुनिया में कोई बड़ा ही न हो। मेरा बचपन तो अपने घर से ज़्यादा आशा मौसी के घर में ही बीता है। मौसी के साथ सोना, खाना-पीना, खेलना। कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नही चलता था। यहाँ तक कि मेरा गृहकार्य भी मौसी के ही जिम्मे था। पिताजी भी निश्चिंत होकर बाहर जाते थे। माँ को बहुत सहारा था शास्त्री नाना-नानी के होने से। कौन जानता था कि अचानक ही इस सहारे को सबसे छीन लिया जाएगा। एक बहुत सामान्य दिन था। असामान्य तरीके से गुजर गया। नाना की छाती में अचानक दर्द उठा। श्याम मामा की परीक्षाएं चल रही थीं। वो सुबह जल्दी उठ कर पढ़ाई करते थे। उन्होंने ही नाना को तड़पते हुए देखा। नानी को उठाया। हमारे घर आकर पिताजी को बुलाया। जल्दी जल्दी उन्हें अस्पताल लेकर गए। पर रास्ते में ही नाना की आँखें मुंद गयीं। मैं बहुत छोटी थी पर अचानक कैसे परिवार बिखरता है, इसका एहसास कुछ कुछ हुआ था।

नाना महाविद्यालय में व्याख्याता थे। नानी ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी। श्याम मामा अभी विद्यालय में ही थे। जिम्मेदारियों ने जैसे आशा मौसी को अपने आप ही अचानक बहुत बड़ा बना दिया। हालांकि उनका स्नातक अभी पूरा नहीं हुआ था पर नाना की अच्छी छवि की वजह से उनको क्लर्क की नौकरी उसी महाविद्यालय में मिल रही थी। यह मौका मौसी ने हाथ से जाने नहीं दिया। मौसी ने नौकरी के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। धीरे धीरे ज़िन्दगी ढर्रे पर आने लगी थी। समय आगे बढ़ता रहा। आशा मौसी उस घर का बेटा बन गयी थीं। उन्होंने नानी को कभी एहसास नहीं होने दिया कि घर में किसी बात की कमी है। हमेशा घर का माहौल खुशनुमा बनाने कि कोशिश करती रहती। श्याम मामा का बड़ा भाई बन कर रहती। मामा ने भी मौसी का हमेशा मान रखा। पढ़ाई में हर दम आगे। खेल कूद के साथ साथ, घर के बाहर का काम भी करते। कभी इस बात को महसूस नहीं होने दिया कि घर में किसी बड़े पुरूष कि कमी है। मौसी ने भी बहुत लगन से पढ़ाई की। स्नातकोत्तर करने के बाद पी एच डी की और उसी महाविद्यालय में प्राचार्य बन गयी। ऐसा उस शहर के इतिहास में पहली बार हुआ था। हम सब बहुत खुश हुए थे मौसी का फोटो अखबार में देख कर। इसी बीच पिताजी की सेवानिवृति हो गयी। भइया को भी बैंक में नौकरी मिल गयी। मेरी प्यारी सी भाभी आ गयीं और मेरी भी उसी शहर में शादी हो गयी। शादी के बाद घर आना जाना जब भी होता तो आधा समय मैं आशा मौसी के साथ ही बिताती।

बस इन सब बातों में एक बात रह गयी, जो मैं अब बैठ कर सोच रही हूँ कि हो ही जाती.... वो है आशा मौसी की शादी। अपनी जिम्मेदारियों को निभाते निभाते उनकी शादी की उम्र निकल गयी। मैं नहीं जानती कि उनको इस बात का पछतावा है कि नहीं पर मुझे अवश्य बहुत दुःख है... खासकर आज उनको इस हालत में देख कर। यह बात सबसे पहले मेरे दिमाग में तब आई जब मेरी शादी होने वाली थी। माँ और भाभी बहुत व्यस्त रहती थी उन दिनों। नानी ने घर का काफ़ी काम संभाला था। एक दिन माँ मेरी विदाई को लेकर बहुत दुखी हो रही थीं, तब नानी ने कहा था -"सबसे अच्छी बात तो यह है कि तुम्हे कन्यादान करने का अवसर मिला। हर किसी के नसीब में यह मौका नहीं होता" उन्होंने अपनी आँखें छुपाने की पूरी कोशिश की थी पर मैंने उनके दर्द को महसूस कर लिया था। कितना अजीब है न?

शादी के बाद अपने घर परिवार में मग्न हो गयी मैं। फिर २ सालों बाद ही हमारा स्थानांतरण दूसरे शहर हो गया तो घर आना-जाना उतनी जल्दी जल्दी नहीं हो पाता था। पर आशा मौसी और परिवार की हर ख़बर रहती थी। श्याम मामा की शादी में गयी थी मैं। मामी बहुत अच्छी आई थीं। नानी और मौसी का बहुत ख्याल रखती थीं। माँ-पिताजी को भी पूरा मान देती थीं। मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। खुशी थी आशा मौसी की तपस्या सफल हो गयी थी। अब घर में भी कोई कमी नहीं थी और मौसी भी शहर के जाने माने लोगों में से थीं।

पर आज तक मैं नहीं समझ पायी कि ऐसा क्यों होता है?? किसी की खुशियों को क्यों नज़र लग जाती है?? खुशियाँ समेटने में जहाँ कभी कभी पूरी ज़िन्दगी लग जाती है, उनको बिखरने में एक पल भी नहीं लगता। श्याम मामा और मामी की दुर्घटना और मृत्यु की ख़बर ने मुझे हिला कर रख दिया था। ६ साल के बेटे चिराग को नानी और मौसी की गोद में छोड़ कर चले गए थे दोनों। नानी इस सदमे को नहीं झेल पायीं और कुछ महीनों बाद ही वो भी मौसी को अकेला छोड़ कर चली गयीं। सच में, उस समय मेरा मेरा बहुत मन हुआ मौसी से मिलने का पर बेटे की परीक्षायों की वजह से नहीं जा पायी। जब उनसे मिली, तब तक काफ़ी सामान्य हो गयी थीं मौसी।

नानी के जाने के बाद मौसी को बहुत परेशानी आई। उनकी उम्र भी उतनी नहीं थी की घर, नौकरी और बच्चे की देखभाल कर सकती। थोड़ा बीमार भी रहने लगी थीं। चिराग को किसी बात की कमी महसूस नहीं होने देती थीं। जो कहता, लाकर देतीं। शायद यही उनसे गलती हो गयी। शायद ज्यादा लाड-प्यार ने चिराग को थोड़ा बिगाड़ दिया था। मैं जब उससे पहली बार मिली थी तब वो १० साल का बच्चा था। पर बचपन का भोलापन उसके चहरे पर कहीं नहीं दिखता था। मौसी के कई बार कहने पर भी मेरे पैर नहीं छुए। मुझे खैर कोई बुरा भी नहीं लगा। ज़माना बदल रहा है। साथ साथ आजकल के लोगों की मान्यताएं भी। उसके बाद जब भी घर गयी, तो मौसी को पहले से अधिक कमज़ोर पाया। थोड़े थोड़े दिनों में ख़बर मिल जाती थी कि आज चिराग के स्कूल से मौसी को बुलावा आया था। प्राचार्य को बहुत मिन्नत करनी पड़ी स्कूल से ना निकालने के लिए। नक़ल करता हुआ पकड़ा गया, किसी का सर फोड़ दिया, किसी लड़की कि शिकायत आई है, किसी के भाई ने धमकी दी है......

कुछ समय पहले ही वापस पुराने शहर में आ गयी हूँ। जब से यहाँ आई हूँ, मौसी से लगातार मिलना हो जाता था। अक्सर बीमार रहने लगी थी। मुझे लगता था कि उनकी बीमारी शरीर से ज्यादा मन की थी। शायद उन्हें चिराग की चिंता खाए जाती थी। एक बार उन्होंने दबी ज़बान में मुझसे चिराग के लिए मेरी छोटी बेटी का हाथ भी माँगा था। मैं बहुत असमंजस में आ गयी थी पर मेरी बेटी की ज़िन्दगी का सवाल था। मैंने बोला था कि उससे पूछ कर बताऊंगी। इसी सोच में थी कि मौसी को क्या कहूँ कि उन्हें बुरा भी नहीं लगे। पर लगता है इश्वर ने मेरी समस्या पर अच्छे से गौर किया। मुझे कुछ कहने का मौका ही नहीं मिला। चिराग ने ही मेरी समस्या सुलझा दी। अपने पहचान की ही किसी लड़की से शादी कर ली या यूँ कहें कि शादी करनी पड़ी। लड़की के घरवालों ने डंडे के ज़ोर पर शादी करा ही दी। मौसी ने थोड़े बुझे मन से ही सही पर लता का अच्छे से स्वागत किया। उन्होंने चिराग की खुशी में ही अपनी खुशी ढूढ ली थी। कहती थी की बस अब रिटायर होने के बाद आराम करुँगी।

ऐसा आराम?? अस्पताल में??चिराग की समस्या यह थी कि उसका किसी काम में जी नहीं लगता था। कोई भी नौकरी ६ महीने से ज्यादा टिकती ही नहीं थी। पर ऐश-आराम की आदत पूरी थी। मौसी की वजह से कोई कमी कभी भी महसूस नहीं हुई। बेटा होने के बाद जिम्मेदारियां भी बढ़ गयी थीं और मौसी के रिटायर होने के बाद उनकी पेंशन में गुज़ारा करना लता को बहुत कठिन काम लगता था।

एक दिन मौसी की चीख सुन कर भइया-भाभी दौडे दौडे उनके घर गए। लता ने बताया की मौसी फिसल गयीं। वो तो उसके बेटे के मुंह से निकल गया कि दादी पापा को पैसे नहीं दे रही थीं इसीलिए पापा ने हाथ मोड़ दिया। लता ने बेटे को वहीँ थप्पड़ लगाना शुरू कर दिया। भइया-भाभी दिल पर पत्थर रख कर वापस आ गए कि कहीं मौसी के लिए और मुसीबत न हो जाए। उसके बाद तो मौसी अक्सर ही गिरने फिसलने लगीं। कभी कभी बडबडाने भी लगती। तब चिराग उनका मुंह बंद करता। "बेटे की पढ़ाई डिस्टर्ब होती है न!" लता सफाई देती। यह सब तो मुझे बहुत बाद में पता चला। मुझसे ज़्यादा नहीं सुना गया। मौसी को कहा मेरे साथ चलने के लिए। उन्होंने हँसी में टाल दिया।

काश उस दिन मैं उन्हें साथ ले ही आती तो शायद आज अस्पताल में नहीं होतीं वह। ५ दिन पहले फ़ोन आया था भइया का कि आशा मौसी को अस्पताल ले जा रहे हैं। २ दिन से घर से बाहर दिखायी नहीं दी थीं तो भाभी उनके हालचाल लेने उनके घर गयी थीं। पता लगा २ दिन से कुछ नहीं खाया था। लता ने डॉक्टर को बुलाने की जहमत नहीं उठायी। यह काम भाभी ने ही किया। डॉक्टर ने फ़ौरन अस्पताल ले जाने कि सलाह दी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं भी यहीं हूँ तबसे।

मौसी जब होश में आयीं तब कुछ टूटे-फूटे शब्दों में बताया कि उन्होंने इस महीने की पेंशन लेने से मना कर दिया था। बस उसी का नतीजा था। पहले पिटाई, फिर २ दिन तक खाना बंद। इतना कह कर वापस बेहोश हो गयीं। डॉक्टर का कहना है कि उनकी जीने की इच्छा ही ख़तम हो गयी। साथ ही उनके शरीर में बहुत कमजोरी है। दोबारा उनके होश में आने का इंतज़ार कर रहे हैं सभी। आशा मौसी के पहचान के बहुत सारे लोग आकर जा चुके हैं। मैं लता और चिराग के घडियाली आँसू देख देख कर पक चुकी हूँ। उसके बेटे से मालूम हुआ कि अगर मौसी होश में नही आयीं तो उसके पापा को बहुत मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है।

चाय की तलब लगी है। अस्पताल की कैंटीन में बैठ कर मौसी के बारे में ही बातें दिमाग में आ रही हैं। यहाँ एक छोटा सा मन्दिर भी बनाया हुआ है। शायद वहां कुछ सुकून मिले। यही सोच कर वहां जा बैठी हूँ। मेरे पास में एक लड़की भी बैठी है। अपने पापा के ठीक होने की मन्नत मांग रही है।

मेरी आँखे अपने आप बंद हो गयी हैं। हाथ भी जुड़ गए हैं। मन्नत मांग रही हूँ कि आशा मौसी ने बहुत कष्ट सह लिए। अब शान्ति से चली जाएँ। वापस इस नरक में नहीं आयें....क्या मैंने ग़लत मन्नत मांग ली है????

7 टिप्‍पणियां:

राम त्यागी ने कहा…

बहुत सही मन्नत मांगी, दुनिया स्वार्थी है ..इसमें कोई दो राय नही और तुमने उसका व्याखान बखूबी किया है.
फिर से कहूँगा बहुत अच्छा लिखती है यार प्रज्ञा तू

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत लाजवाब पोस्ट लिखी जी आपने. इतने दिनो की कमी तो पूरी नही हुई पर हां आपकी शैली मे पढना बेहद अच्छा लगा.

आप काफ़ी अंतराल के बाद लिख रही हैं, उम्मीद् करते हैं अब आपका लेखन से नियमित पढने को मिलेगा.

रामराम.

Smart Indian ने कहा…

प्रज्ञा,
वापसी का स्वागत है. कहानी दिल को छू गयी. ऐसे ही लिखती रहो!

Pragya ने कहा…

इस अपनेपन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद....
इसी हौसले की हमेशा जरूरत रहेगी. मैंने भी अपने blog को बहुत miss किया. कुछ कामों की वजह से थोड़े समय के लिए चुप बैठना पड़ा पर अब कोशिश करुँगी कि निरंतरता बनी रहे.

shivani ने कहा…

grt pragya!!!
..maine aaj hi tumhari kahani padi...shuruat lagi ki haan story kuch suni suni hai jaise ki movie main dekhte hain ..per jaise jaise age badhte gai interest badhta gaya..aur subse jada dill ko choone wala sentence "kya maine sahi mannat mangi?" laga..
padhne ke baad ankhen gili ho gaii.
tum itna acha likhtee ho..tumhare article ham jaise logon ko "atma" se jode rakhte hain nahi to is bhagti duniyan main hum jaise log bah jaaen...
thanks for reminding us the beats of heart and soul......:)

ilesh ने कहा…

बहुत ही उम्दा....सचाई को उजागर करती हुई कहानी...काश कही कोई इसे पढ़कर...खुद मे कोई सुधार लाए....बदलते रिश्तो के दौर मे कही किसी चिराग के दिल मे चिराग की रोशनी आ जाए.....बधाई.....प्रग्याज़ी हमे आपकी लेखनी बेहद पसंद आई....

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आपको और आपके परिवार को होली पर्व की हार्दिक बधाई और घणी रामराम.