गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

सब ठीक है..

"हेल्लो"
"हाँ हेल्लो माँ"
"हाँ बेटा कैसी हो?"
"मैं अच्छी हूँ.. आप लोग कैसे हो?"
"हम सब ठीक हैं.. सब ठीक चल रहा है.."
"पापा कैसे हैं?"
"ठीक हैं.. बस कल गिर गए थे... थोडा घुटने में दर्द है.. वैसे सब ठीक है.."
"कहाँ??? कैसे???"
"अरे मुन्नू को लेकर पार्क गए थे.. तो वहीँ पैर फिसल गया.."
"तो अकेले लेकर गए थे?? सुजाता नहीं थी???"
"सुजाता काम छोड़ गयी... तुम्हारी भाभी से खटपट हो गयी... "
"तो भाभी लेकर जाती... पापा क्यों ले गए?" 
"उसकी कल देर तक मीटिंग थी... इसीलिए वो घर पर नहीं थी उस वक्त.."
"भैया भाई कैसे हैं?? कैसा चल रहा है??"
"सब ठीक हैं.. भैया की कंपनी बंद होने वाली है... तो उसका थोडा टेंशन चल रहा है.."
"अच्छा!!"
"हाँ... तुम सुनाओ तुम कैसी हो?? यहाँ तो सब ठीक ही है...."
"मैं अच्छी हूँ... बस बच्चों की तबियत थोड़ी ऐसे ही चल रही है... बाकी सब ठीक है.."
"क्यों?? क्या हुआ??"
"गुडिया को कल स्कूल में चोट लग गयी थी... झूले से गिर पड़ी थी तो माथा फूट गया... ३ टाँके आये और रिंकू को सर्दी हो रखी है तो खांसी झुखाम... वैसे अब सब ठीक है.."
"अच्छा!!! और राकेश जी??"
"वो भी ठीक हैं... कल पड़ोस में लड़ाई हो गयी उनकी... तो मारापीटी हो गयी थी... पुलिस केस बन गया था.. बच्चों की तबियत ठीक नहीं थी और पडोसी तेज आवाज़ में गाने बजाने कर रहे थे... २-३ घंटे पुलिस स्टेशन में लग गए... अब ठीक है.."
"हम्म... और ससुराल वाले कैसे हैं तुम्हारे?? "
"ठीक हैं सब... बस थोडा बुढ़ापे की रोज़मर्रा की बातें... अच्छा पिंकी का रिश्ता देखा कहीं और??"
"हाँ देख रहे हैं १-२ जगह बात चल रही है... बस यह काम हो जाए तो जिम्मेदारियों से मुक्त हों... और तो सब कुछ ही सही है..  "
"और?? सब कैसा है??"
"बस सब ठीक है... तुम ठीक हो??"
"हाँ सब ठीक है... चलो फिर रखें??"
"हाँ चलो बच्चों का ख्याल रखना... बाकी सब बढ़िया..."
"ओके सब बढ़िया.. नमस्ते "
"नमस्ते"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

बचपन बचाओ

"बच्चों का बचपन मत छीनिए. उन्हें जीने दीजिये. लम्बी कूद के चक्कर में उनकी छोटी छोटी उछालों को मत रोकिये. अपनी हसरतें बच्चों पर थोपना बाल मजदूरी से भी बुरा है.."
तालियों के शोर से सारा पंडाल गडगडा उठा. 
उसकी ओजस्वी वाणी सुनकर सभी भावविभोर हो उठे. उनमे बहुत लोग थे जो वाकई में अपने को कुसूरवार महसूस कर रहे थे. सब ने मन ही मन अपने बच्चों से माफ़ी मांगी...

बहुत थक गयी थी वो. सारा दिन जुलूस में निकल गया था. 
"बचपन बचाओ" अभियान में कई दिनों से जुटी हुई थी. अब घर जाकर थोडा आराम करेगी.


"मेरी गुडिया वापस करो.. " 
"नहीं यह मेरी है.. तुम अपनी से खेलो "
दोनों बेटियों का शोर दरवाज़े ही सुने दे रहा था. 
उसका सर दर्द से फटा जा रहा था. 
तभी मम्मी मम्मी करती दोनों बेटियों ने उसे घेर लिया और शुरू हो गयी शिकायतों का पुलिंदा लेकर.. 
"मेरी गुडिया, मेरे खिलोने, मेरे कपडे..." न जाने क्या क्या...
चटाक.........
छोटी के नन्हे गालों पर उसकी पाँचों उँगलियों की छाप आ गयी...
"तुम लोग थोड़ी देर चुप नहीं रह सकती?? जब देखो तब कूदती रहती हो.. कब तमीज़ सीखोगी?? 
होमवर्क हो गया??"
......
"चुप क्यों हो?"
"नहीं "
"क्यों नहीं?"
......
"डांस क्लास का क्या हुआ?"
......
"मैंने कुछ पूछा!!!"
कांपते हुए बड़ी ने कहा "मुझे डांस करना अच्छा नहीं लगता.."
"क्यों?"
....
"पता है!! कितनी महँगी है वो टीचर? इतना पैसा खर्च करके तुम लोगों को किसी लायक बनाने की कोशिश कर रही हूँ और तुम हो कि सब बेकार.... ज़िन्दगी में क्या करोगे आगे?? अभी से नहीं सोचोगे तो आगे सोचने का भी मौका नहीं मिलेगा...."
उसके हाथ से "बचपन बचाओ" अभियान के लेख गिरं कर उड़ने लगे थे...

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

राम नवमी और राम राज का सपना



वो खून कहो किस मतलब का जिसमे उबल का नाम नहीं
वो खून कहो किस मतलब का आ सके जो देश के काम नहीं

स्कूल में जब "गोपाल प्रसाद व्यास जी" की यह कविता पढ़ते थे तब सोचते थे कि पता नहीं वो लोग कैसे होंगे जिन्होंने देश की आज़ादी में भाग लिया या जो उस आन्दोलन के गवाह बने. फिर जैसे जैसे बड़े होते गए, जीवन की दौड़ धूप में ये पंक्तियाँ अपना महत्व कमती गयीं. रोज़मर्रा की बातों में कभी याद ही नहीं रहा कि कभी जोश में ऐसा  भी सोचा था कि अगर गुलामी के दौरान हम होते तो शायद यह कर सकते थे... वह कर सकते थे...

अचानक जैसे तूफ़ान आया.. कम से कम मेरे लिए तो तूफ़ान ही है... बर्बादी का नहीं, एक नयी हवा का नए जोश का तूफ़ान... और ज़रा गौर कीजिये.. इस नए जोशीले तूफ़ान का नाम ७१ वर्षीय अन्ना हजारे है..
सच कहूँ तो मैंने उनका नाम कभी नहीं सुना था.. पर आज मैं उनकी उतनी ही इज्ज़त करती हूँ जितनी भगत सिंह, नेताजी, आज़ाद, महात्मा गाँधी जैसे महान आत्माओं की...

भ्रष्टाचार मुक्त भारत.... यह वो सपना है जो पता नहीं कितनो ने देखा होगा.. कईयों ने सपना देखने से पहले ही आँखे बंद कर ली... कईयों ने सोचा और दुसरे ही पल हँसे कि यह क्या सोचा? पर एक आदमी ने कोशिश की और नतीजा!!! सारा भारत एक तरफ और कुछ नेता एक तरफ..  

मेरे एक दोस्त ने कहा कि महात्मा की क्रांति में हम नहीं थे.. पर इस क्रांति का हम हिस्सा बन सकते हैं.. तो क्यों नहीं? और कौन नहीं चाहता कि हमारा देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो? सच है जब हम विश्व कप जितने पर जश्न मनाने के लिए एक हो सकते हैं तो अपने देश कि सफाई के लिए क्यों नहीं? 
ज़रूरी नहीं कि केवल अनशन ही एक मार्ग है अन्ना का साथ देने का... हम इस लौ को बुझने नहीं दे यह भी हमारा साथ होगा उस व्यक्ति के लिए... 

आप सभी को राम नवमी कि हार्दिक शुभ कामनाये... आशा करती हूँ कि इस राम नवमी पर राम राज होने का जो बीज अन्ना ने बोया है, वो बड़े से बड़ा पेड़ बने और हम सब सच्चाई से कह सके "मेरा भारत महान"


मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

मान भंग

"बस!! बहुत हो गया.. रोज़ की ही बात है। अब नहीं सहा जाता।"


पूर्णिमा ने निश्चय कर लिया।


" आर या पार। यह भी कोई जीवन है?? ना मन का खाना, न पहनना, न कहीं घुमने जाना। बस रात दिन खटते रहो ऑफिस या घर में। उस पर भी कोई क़द्र करने वाला नहीं। जब घर से चली जाऊंगी न, तब पता चलेगा सब को। अभी बैठे बैठे बहुत बातें बनाना आता है। कहते हैं न घर की मुर्गी...."


"बस बस... ज्यादा मत बोलो। अगर तुम्हारे माँ-बाप होते तो?" बीच में टोका शाश्वत ने। "मेरे माँ बाप ऐसे हर बात पर टांग नहीं अडाते। भइया भाभी को पूरी छूट है अपना जीवन जीने की।"


"अरे!! तो तुम्हें कौन सी रोक है? सारे काम तो अपने मन के ही करती हो। कभी कभी उनकी बात मान भी लोगी तो क्या बिगड़ जाएगा??"


"और अगर तुम्हारी बहन एक हफ्ते बाद आ जायेगी तो उसका क्या बिगड़ जायेगा?? अच्छा खासा प्रोग्राम बना था घूमने का... बीच में कबाब में हड्डी..."


"पूर्णिमा........." इतनी ज़ोर से चीखा शाश्वत कि माँ-बाबूजी आ गए दूसरे कमरे से।


"बस अब कुछ और कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। जिसे आना है आए, मैं ही चली जाऊंगी यहाँ से तब रहना आप सब लोग अपनों के साथ... एक मैं ही पराई हूँ न यहाँ.." रोती हुई चली गयी पूर्णिमा दूसरे कमरे में।


माँ ने समझाया शाश्वत को "अगर हम नेहा को १ हफ्ते बाद आने को कह दें, तब ठीक रहेगा। तुम और पूर्णिमा भी घूम आओगे और उसका मन भी लग जाएगा।"


"नहीं माँ कोई ज़रूरत नहीं है नेहा को कुछ कहने की. उसका कार्यक्रम बहुत पहले तय हो गया था। पूर्णिमा ने ही बीच में गोवा जाने की रट लगा दी। उसके ऑफिस के लोग जा रहे हैं। मैं और पूर्णिमा बाद में भी जा सकते हैं। तुम नेहा को कुछ मत कहो। चुपचाप जा कर सो जाओ। वह सुबह तक ठीक हो जायेगी।"


"हम्म कल ही चली जाऊंगी तब पता चलेगा। सच ही कहा था सबने यहाँ शादी मत करो। तब तो इश्क सवार था सर पर। पता नहीं क्यों मति मारी गयी थी मेरी। सच है, रिश्ता हमेशा बराबर वालों में होना चाहिए।" सोचते सोचते सो गयी थी पूर्णिमा।


पूर्णिमा और शाश्वत.....बहुत मशहूर हो चले थे कॉलेज में। सब उन्हें 'एक दूजे के लिए' कह कर पुकारते थे। हलाँकि देखा जाए तो उनके परिवारों में ज़मीन आसमान का अन्तर था। पूर्णिमा शहर के जाने माने उद्योगपति सुदर्शन लाल गुप्ता की एकलौती और मुंहलगी बेटी थी। उसके पिता की कई मिलें थी। शहर में कई दुकानें थीं। जबकि शाश्वत सीधे सादे किंतु आदर्शवादी नारायण चंद अग्रवाल का पुत्र था, जो कि उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। नारायण बाबु ने शाश्वत को कई बार इशारों में समझाया था कि पूर्णिमा से मिलना जुलना ज्यादा ठीक नहीं है। उसके घर वाले कभी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे। पर कुछ तो पूर्णिमा का प्रेम था और कुछ उसका साहस जो कि उसे पूर्णिमा से दूर ही नहीं होने देता था। यह सच था पूर्णिमा बहुत साहसी थी। या फिर कहें कि जिद्दी थी। बचपन से अब तक उसने जिस चीज़ पर हाथ रख दिया, वह उसकी हो जाती थी। यही कारण था कि जब शाश्वत का सवाल आया तो उसने किसी की नहीं सुनी। उसका कहना था कि प्रेम के आगे जाति-धर्म, रूपया-पैसा, खानदान-औकात जैसी बातें तुच्छ हैं। यहाँ तक कि उसने अपने माँ-बाप से कह दिया कि उसे उनकी जायदाद में से कुछ नहीं चाहिए। वह अपने बलबूते पर नौकरी करने के काबिल है। और शाश्वत से ही शादी करेगी।


यह बात सच थी कि पूर्णिमा बचपन से ही पढ़ाई में मेधावी रही थी। शायद यही गुण उसे शाश्वत के करीब लाया था। शाश्वत भी मेधावी होने के साथ कॉलेज की अन्य गतिविधियों में सक्रिय था। जब वह वाद विवाद में बोलने के लिए मंच पर आता था, तब सारा माहौल खामोश हो जाता था। पूर्णिमा भी उसकी ओजस्विता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उन दोनों की शादी हलाँकि परिवार वालों की उपस्थिति में हुई थी। किंतु जहाँ एक ओर शाश्वत के घर वालों में खुशी का माहौल था, वहीँ पूर्णिमा के परिवार में किसी को इस शादी से खुशी नहीं थी। उन्हें चिंता थी कि बाकी रिश्तेदारों के आगे उनकी गर्दन झुक गयी। पूर्णिमा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।


शादी के बाद कुछ दिन तो सही निकले पर उसके बाद पूर्णिमा को एहसास होने लगा कि उसके घर और ससुराल में ज़मीन आसमान का अन्तर है। उसे कई बार खीज होती थी जब देखती कि ऑफिस से आने के बाद सब उसके इन्तेज़ार में भूखे बैठे हैं। शुरू शुरू में उसने कहा कि वह लोग उसका इंतज़ार ना किया करें। उसे समय पर खाने कि आदत है। इसीलिए जब देर हो रही होती है तो वह ऑफिस की कैंटीन में खा सकती है। पर शाश्वत ने उसे बोला कि दिन का खाना तो हर कोई अलग ही खाता है इसीलिए परिवार के लोग रात का खाना साथ ही खाना पसंद करते हैं। शुरू शुरू में उसे यह बात अच्छी लगी पर धीरे धीरे यह बंधन लगने लगा। इस वजह से शाश्वत रात को बाहर खाना पसंद नहीं करता था। उसे बहुत बुरा लगता था। उसके घर तो ऐसा कुछ नहीं था। सब आज़ाद थे। जिसको जो करना है करे। शाश्वत का कहना था कि आज़ादी और लापरवाही दो अलग अलग बातें हैं। पूर्णिमा ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाती थी पर धीरे धीरे उसने फ़ोन करना शुरू कर दिया कि ऑफिस में देर हो रही है और खाने के मामले में समय की पाबन्द होने के कारण वह ऑफिस में ही खाना खा लेगी। कोई उसका इंतज़ार नहीं करे।


शाश्वत की एक बड़ी बहन थी। उनका ससुराल चेन्नई में था। दूरी ज्यादा होने के कारण वह २-३ सालों में ही आ पाती थीं मायके। जबसे उनके बच्चे बड़े हो गए थे, उन्हें उनके स्कूल का कार्यक्रम भी देखना पड़ता था। इसीलिए उनका आना बहुत कम हो पाता था। इस बार वह शाश्वत की शादी के बाद ही आ रहीं थीं। सारा घर खुश था। पूर्णिमा को भी अच्छा लग रहा था। कुछ दिनों के लिए ही सही, घर में कुछ रौनक तो होगी। वरना इस घर में तो वह अपने दोस्तों को बुलाने की, पार्टी करने की सोच भी नहीं सकती। कोई भी आयोजन हो, मन्दिर से शुरू और खीर पर ख़तम। इसी बीच उसके ऑफिस के सहयोगियों का गोवा जाने का कार्यक्रम बना। उन लोगों ने उसको भी बोला साथ चलने को। उसने बिना सोचे समझे हाँ कर दी। बाद में याद आया कि उसी समय तो दीदी आ रहीं हैं। अब मन करने में उसकी शान के खिलाफ होता। ऐसा कितनी बार हुआ कि कोई न कोई कार्यक्रम बना और बाद में उसने मना किया। इस बार उसने निश्चय किया कि चाहे कुछ हो जाए, वो जायेगी ही जायेगी। शाश्वत ने सुना तो वही हुआ जिसका डर था। बात नोंक-झोंक से शुरू हुई और अबोले पर समाप्त हुई।


अगले ही दिन उसने घोषणा की कि वह अपने मायके जा रही है। और तभी लौटेगी जब शाश्वत उसके साथ गोवा जाने को मान जाएगा। माँ-बाबूजी ने कितना रोका?? पर वह भी पूरी जिद्दी ही थी। हाँ शाश्वत के रोकने का इंतज़ार ज़रूर किया। पर ऐसा ना तो होना था, ना ही हुआ। और अगले घंटे वह अपने मायके की दहलीज़ पर खड़ी थी। माँ ने पूछा भी कि ऐसे कैसे अचानक?? कोई फ़ोन नही, कोई सूचना नहीं?? पूर्णिमा ने बता दिया कि वह रूठ कर आयी है। शायद उसे पूरा विश्वास था कि शाश्वत उसे लेने आज नहीं तो कल ज़रूर आएगा।


धीरे धीरे दिन बीतने लगे। पूर्णिमा का विश्वास कमज़ोर पड़ता जा रहा था। पर उसमें भी गज़ब का गुरूर था। उसने कोई कोशिश नहीं की शाश्वत से संपर्क करने की। उसके घरवालों का कहना था कि अगर वो झुक जाती है तो उसका कोई मान नहीं रह जाएगा ससुराल में। शुरू शुरू में तो पूर्णिमा को अच्छा लग रहा था घर में। किसी बात पर कोई रोक-टोक नहीं। ऑफिस के बाद अक्सर सहेलियों के साथ कहीं घूमने निकल जाती थी। इसी बीच गोवा वाला टूर भी हो गया। वह अकेली ही चली गयी। हालाँकि वहां जाकर उसे पछतावा हुआ कि उसे नहीं आना चाहिए था। वहां सभी जोडियों में थे। बस पूर्णिमा ही अकेली थी। सब जैसे तरस खाते थे उसपर। वह बीच टूर से ही वापस आ गई। माँ को आश्चर्य हुआ कि वह जल्द ही लौटा आई। भाभी ने भी सवालिया नज़रों से उसे देखा। पर उसने महसूस कर लिया कि भाभी की नज़रों में सवाल के साथ जवाब भी है और जवाब पता होने के कारण भाभी नज़रों में ही मुस्कुरा रही थीं। पूर्णिमा से वह मुस्कराहट सहन नहीं हुई। चुपचाप अपने कमरे में चली गयी। अब उसे हर दिन उस फ़ोन का इंतज़ार रहता जो नही आता। उसे खीज होने लगी थी अपने निर्णय पर। घर में जब भी कोई आने वाला होता, माँ किसी ना किसी बहाने से कोशिश करतीं कि पूर्णिमा उनके सामने नहीं पड़े वरना फिर अनचाहे सवालों का जवाब देना पड़ेगा। वह भी अपना ज्यादा से ज्यादा समय ऑफिस में बिताती। हालाँकि सहकर्मियों की नज़रों में भी उसे ताने, सवाल दिखते पर वहां कम से कम काम तो रहता था उन सबको भूलने के लिए। छुट्टी का दिन उसके ऊपर भारी पड़ता। सारा दिन या तो कमरे की सफाई में लगी रहती या फिर फालतू की खरीदारी करती रहती।


इसी बीच उसके घर की काम वाली ने छुट्टी मांगी। भाभी ने साफ़ इनकार कर दिया। उसने कामवाली का पक्ष लेते हुए भाभी से कहा कि उन्हें छुट्टी दे देनी चाहिए। भाभी ने खीजते हुए बोला कि वह चुपचाप ही बैठी रहे। इस घर का काम उसके घर के जैसा नहीं है कि कैसे भी चल जायेगा। रोज़ कोई न कोई आता है, चाय नाश्ता, कई काम होते हैं। वह अवाक रह गयी!! यह वही भाभी थीं जो उसे पलकों पर बैठा कर रखती थीं। उसने माँ को बोला कि भाभी को समझाए कि उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए। माँ ने कहा कि गलती भाभी की नहीं, पूर्णिमा कि है जो दूसरों के घर के मामले में बोल रही है। तब पूर्णिमा को पहली बार एहसास हुआ कि अब यह उसका घर नहीं है।


अगले दिन कामवाली ने भाभी को बोल दिया कि वह यह नौकरी नहीं कर सकती। उसकी जितनी पगार बनती हो, दे दें। पूर्णिमा ने उसको पूछा कि नौकरी क्यों छोड़ रही है??


"दीदी, मेरी ननद की शादी है। भाभी छुट्टी नही दे रहीं। तो मैं क्या करूँ?"


"अरे तो ननद की शादी है तो नौकरी छोड़नी जरूरी है? तेरे घरवाले क्या कर रहे हैं?" पूर्णिमा ने पूछा। "घर वाले सभी व्यस्त होंगे न?? मेरी एक ही ननद है। उसको ही ढंग से विदा नहीं कर पाऊंगी तो जिंदगी भर मुझे ख़राब लगेगा। वैसे भी बेटियाँ पराई ही होती हैं। अब जितने दिन बचे हैं शादी में, मैं उसके साथ हमेशा रहना चाहती हूँ. नौकरी तो और भी मिल जायेगी। ननद तो विदा होकर पता नहीं कब आयेगी??"


कुछ अन्दर से दरक गया पूर्णिमा के भीतर। एक अनपढ़ गंवार कामवाली बाई उसे जीवन का सत्य बता गयी। और वह अपनी डिग्रीयों के तले दबी हुई जिंदगी देख ही नहीं पा रही???


अगले दिन उसका खाना खाने का मन नहीं हुआ। किसी ने ज्यादा कहा भी नहीं। सब जानते थे कि उसे मनाना कोई आसान काम नहीं है और फिर सबको अपने अपने ज़रूरी काम थे। वह पानी पीने के लिए अपने कमरे से बाहर निकली तो उसके कानों में घरवालों की बातें पड़ीं।


"ऐसे कब तक चलेगा?? उसे अपने घर तो जाना ही होगा न??" माँ की आवाज़ थी।


"मैंने पहले ही कहा था कि यह लड़की उस घर में नहीं रह पाएगी। आखिर कार इतना अन्तर है हमारे और उस घर में। " पापा बोले।


"क्षमा करें पापा पर पूर्णिमा किसी भी घर में जाती तो ऐसा ही होता। गुस्सा तो नाक पर रखा रहता है। किसी की बात नहीं मानना। हमेशा अपने हिसाब से सबको चलाना।" यह भाभी थीं जो कभी उसकी बहुत अच्छी सहेली हुआ करती थीं और जिनका हिसाब वह पिछले कुछ दिनों से माँ के साथ, अपने साथ किए जा रहे बर्ताव में देख रही थी।


"मैं आज ही बात करता हूँ शाश्वत से। कुछ पैसे वैसे का नाटक है तो ले जाओ पैसे और अपनी बीवी को भी। भई हमें भी समाज में उठना बैठना है।" भइया ने अपना मत दिया।


पूर्णिमा सन्न रहा गयी। शाश्वत पर इतना घिनौना आरोप!!!! और माँ-बाबूजी भी कुछ नहीं कह रहे??आखिर उससे और नहीं सुना गया। सामने आकर बोली "आप लोगों को किसी से कुछ कहने कि ज़रूरत नहीं है। शाश्वत इतने गिरे हुए नहीं हैं कि पैसे के लिए अपनी बीवी को अलग करें। मैं ही बेवकूफ थी जो आप लोगों को अपना समझ कर यहाँ आ गयी थी। अब समझ आया कि अपना घर क्या होता है?? आप लोगों को धन्यवाद देना चाहूंगी कि आज आपने मेरा मोहभंग कर दिया। मेरी आँखें खोल दीं।"


आगे नहीं बोल पायी। सबको वहीँ छोड़ कर शाश्वत को फ़ोन करने चल दी। अपनी गलतियों की माफ़ी मांगने। उसको बोलने कि आकर उसे अपने घर ले जाए। आज उसका मिथ्या मान हमेशा के लिए भंग हो गया था।

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

प्रमित


बहुत दिनों.. या कहूँ कि बहुत महीनों बाद आज कुछ लिखने बैठी हूँ... डर है कहीं आप लोग मुझे भूल तो नहीं गए?
खैर, इन महीनों में काफी कुछ बदल गया है.. मेरा आखरी लेख अब २ पतझड़, २ सर्दियाँ, १ बसंत और १ गर्मी जितना पुराना हो चुका है.
पिछले साल शुरुआत में पता लगा कि हमारे घर एक नया मेहमान आने वाला है और साल जाते जाते १३ अक्टूबर २०१० को हमें "प्रमित" के रूप में एक सुन्दर, अमूल्य तोहफा दे गया. "आम्या" दीदी बन गयी और मैं और "अमित" एक बार फिर मम्मा-पापा!!



मेरी नन्ही गुड़िया अब दीदी बन कर रौब जमाती है
भैया को कब दुद्दू पीना हमें वो बताती है
उसको अब गुड्डे गुड़िया अपने नहीं भाते हैं
क्यूंकि वो नन्हे "ईचू" जैसे आँखें नहीं घुमाते हैं

दादा-दादी, नाना-नानी फिर से बने दादा-दादी, नाना-नानी
रोज़ सोचते हैं कब शुरू हो नन्हे की नन्ही नन्ही शैतानी
बुआ-फूफा, मौसी-मौसा कर रहे हैं इंतज़ार
आंखे बिछाए बैठे हैं लिए ढेरों ढेरों प्या

प्रमित को हम लोग घर में ईचू कहते हैं. आशा है आप सब लोगों का आशीर्वाद और शुभकामनायें उसे हमेशा मिलती रहेंगी. मैं अब कोशिश करुँगी कि अपने ब्लॉग जगत के साथियों से फिर से जुड़ सकूँ.
कोशिश करुँगी जल्दी मिलने की....

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

रिप्लाई टू आल

पिछले कुछ दिनों पहले जब अपना email पढने के लिए खोला तो देखा कि एक मित्र का बहुत सारे लोगों को सन्देश आया था.. किसी एक अवसर के लिए जितने लोग आमंत्रित थे, उनको उस मित्र ने कुछ उपहार देने के लिए कुछ सुझाव दिए थे. और साथ ही बहुत विनम्रता के साथ निवेदन भी किया था कि अगर कोई बंधू उत्तर दे तो उसे "reply to all" ना करे. जिससे कि किसी को परेशानी न हो. अब हम सब ठहरे हिन्दुस्तानी!! यानी जिस बात को मना किया जाए, उसे ही करेंगे. ऐसा ही कुछ एक सज्जन ने किया. उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे एक "forwarded message" सब लोगों को भेजा. बस....... अब तो लोगों को बहुत अच्छा मसाला मिल गया अगले को पब्लिकली नीचा दिखाने का!!! उनको तो भाई ऐसी ऐसी गालियाँ पड़ी कि बस..... पर आप इसमें एक बात देखिये.... भाई को जिस बात के लिए कोसा जा रहा था, वही गलती सब कर रहे थे... यानी कि "reply to all" करके उसे धमकी दी जा रही थी कि उसने ऐसे कैसे इस सेवा का आनंद उठा लिया.. १-२ दिन तक तो हमने भी मजे लिए... फिर हमने इंसानियत (या मुसीबत ) के नाते एक बंधू को लिखा कि कम से कम आप तो सबको मत लिखो.... अब तो हमारी शामत ही आ गयी. उस भाई ने हमें जो फटकारा है कि हम क्या बताएं?? मेल पढने के बाद जो गुस्से की आग सुलगी है कि हम ही जानते हैं. (राजपूत खून अपना असर दिखा ही देता है).... पतिदेव को बताया तो वो भी हम पर बरस पड़े... कि तुम्हे क्या जरूरत थी किसी के मुंह लगने की? अपने काम से काम नहीं रख सकतीं?? वगैरह.... वगैरह..... अपने मित्रों को बताया तो उन्होंने भूल जाने कि सलाह दी... (cool down) होने कि.... बस तब से यह बात दिल में कुलबुला रही थी और हमने ठान लिया था कि अपने ब्लॉग-मित्रों के सामने ही अपना दुखडा रोयेंगे.... कम से कम कोई नसीहत तो नही मिलेगी न?? और हमारे दुखते हुए दिल पर सहानभूति (झूठी ही सही) का मलहम लगायेंगे... अब अगर कोई "forwarded message" आता है तो बस पढने के बाद माउस सीधा डिलीट बटन पर ही जाता है... जाते जाते आप लोगों को एक सलाह देना चाहेंगे.... कभी किसी से "reply to all" बात पर पंगा मत लेना.... वर्ना पब्लिक में बे-इज्जती होने से कोई नहीं बचा सकता....

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

नन्ही परी



कहते हैं बच्चे इश्वर का दूसरा रूप होते हैं. जब तक आम्या (मेरी बेटी) हमारे जीवन में नहीं आई थी, तब तक यह बात सिर्फ कहावत थी हमारे लिए. उसके आने के बाद इस बात की गहराई को महसूस किया. अब तो लगता ही नहीं की कभी ऐसा भी था की हम उसके बिना भी रह रहे थे. उसकी एक एक बात हमारे लिए किसी कोहिनूर हीरे से कम नहीं है.

उसके तीसरे जन्मदिन (११ फरवरी) के अवसर पर यह कविता बनाई थी पर ब्लॉग पर अब डाल रही हूँ.



कल की जैसे बात हो, हमारे आँगन को उसने किया गुलज़ार
हमारी ज़िन्दगी में रस घोला, पूरे घर में आ गयी जैसे बहार

दादा-दादी, नाना-नानी को मिला नया खिलौना
पापा और माँ की बाहें बनी उसका बिछौना

पल पल में रोना ही थी सिर्फ उसकी भाषा
हम सब की मनौती, हम सबकी आशा

वो दिन भर की थकन के बाद रात भर का जागना
बस उसकी एक झलक से उस थकन का भागना

उसका घुटनों पर चलना वो पहला कदम
उसकी छोटी पायल की घर भर में छम-छम

समय के साथ धीरे धीरे उसका भी बढ़ना
अपनी बात मनवाने के लिए हम सबसे लड़ना

उसकी शरारत उसकी मुस्कान
उसके गुड्डे गुडिया, मेरे घर के मेहमान

अब तो क्या घर में है होना, बताने लगी है
अपनी बातों से हमें भी अब चलाने लगी है

अब नन्ही मेरी स्कूल जाने लगी है
जैक एंड जिल की कहानी सुनाने लगी है

उसके हाथ अब रंगों को पकड़ने लगे हैं
मेरे घर की दीवारों पर अब घर बनने लगे हैं

मेरा बचपन वो वापस है लायी
मेरे घर में एक नन्ही परी है आई