बुधवार, 30 जुलाई 2008

बिना किसी शीर्षक के

बहुत बुरा समय आया है देश पर। असली बातें भूल कर लोग हिंदू-मुसलमान के चक्कर में पड़ गए हैं। दिल को बहुत दर्द होता है जब भी कोई आतंकी अपनी साजिश में कामयाब हो जाता है। सरकार को बहाना मिला विपक्ष पर चोट करने का और जनता को एक और "topic" मिला बहस का। हम जैसे लोगों को नयी कविता कहानियो का मुद्दा। उन लोगों का दर्द का अंदाजा भी नही लगा सकते जिनके अपने इन धमाकों में खो गए। कब ख़तम होगा यह सब???

आज फिर दिल पर चोट हुई है
आज फिर एक घर जला है
उस ने नहीं देखा किसी का धर्म
कहर तो बस अपने रास्ते चला है

सवेरे की रौशनी अलसाई है
दिन भी यहाँ आज थोड़ा मंद है
कल शाम यहाँ लाशें गिरी थीं
कल धमाकों में सूरज ढला है

मन्दिर की घंटियाँ बंद पड़ी हैं
अज़ान में भी आज आवाज़ नहीं है
मूक हो गए हैं मोहल्ले वाले
आज चुप रहना ही भला है

रहमान चाचा की बेगुनाह आँखे,
माफ़ी मांगती हैं उस राम से
जो बचपन से लेकर जवानी तक
इन बुजुर्ग हाथों में ही पला है...

बुधवार, 23 जुलाई 2008

तुम, मैं और हम

कभी कभी पुरानी बातों को याद करते हुए बहुत अच्छा लगता है। खास कर कि बारिश के मौसम में।
यह 'अमित' के लिए.....


सुबह तुम्हारे घर से जाने के बाद,
कुछ यादों ने 'मुझे' आ घेरा है।
आज उठा के फिर से कलम को,
कागज़ पर स्याही को उकेरा है।

बारिश ने दरवाज़े पर आहट की,
गीली मिटटी में कुछ निशान मिले।
पीछा किया जब उन कदमों का,
कुछ दूरी पर दो लोग दिखे।

बरसों पुरानी बारिश में,
वो हँसते और गाते थे।
कुछ और पास गयी तो पाया,
वो कोई और नहीं ख़ुद 'हम' ही थे।

'मेरे' होने से अनजान थे 'हम',
सपनों के महल सजाते थे।
कभी 'मैं' रूठ जाती थी,
तो कभी 'तुम' 'मुझे' मनाते थे।

यादों की उस बारिश में,
जब प्यार का सूरज आया था।
रिश्तों की खिली धूप से,
'हमने' अपना इन्द्रधनुष बनाया था।

उन सात रंगों के साथ,
चलो अब घर को आ जाऊं।
शाम को जब तुम घर लौटो,
'तुम' को 'मैं' फिर 'हम' से मिलवाऊँ।

गुरुवार, 17 जुलाई 2008

जामन के बहाने

एक साधारण सी बात है जो शायद भारत में हर घर में होती है। घर में दूध, आलू, प्याज, चीनी, चाय- पत्ती यहाँ तक की कभी कभी सब्जियों पर भी हम किराने वाले से ज्यादा पड़ोसी पर निर्भर रहते हैं। भाई हमने तो अपने अडोस पड़ोस का पूरा फायदा उठाया है इन मामलों में...
"चाचीजी आज दूध फट गया।" घर में मेहमान आयें हैं। माँ ने एक कप दूध मंगाया हैं।"
या फिर "मामीजी, आज घर में मेरी पसंद की सब्जी नहीं बनी।" एक कटोरी दाल दे दो मुझे।"
पड़ोस की चाचियाँ मामियां बहुत काम आती हैं।
अब ज़रा पड़ोस को बढ़ा दिया जाए। यानी कल्पना कीजिये कि एक कप दूध के लिए आप मोहल्ले की नहीं, इलाके की नहीं, शहर या प्रदेश की ही नहीं देश की सीमा को लाँघ जाएँ।
कैसा विचार है??
मुझे यहाँ अमेरिका में आए हुए ५ महीने हो चले हैं। जब आए थे तब गजब की सर्दी थी। २-३ महीने तक कहीं बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई थी। जब मौसम खुशनुमा हुआ, तब बेटी को लेकर पार्क जाना शुरू किया। तब कुछ लोगों से दोस्ती हुई। पता चला मेरे इस छोटे से शहर में ही करीब ५०० भारतीय, ५०-६० पाकिस्तानी और कुछ बंगलादेशी परिवार भी रहते हैं। यानी कि कुल मिलाकर अच्छा खासा देसियों का जमघट है।
धीरे धीरे लोगों से बात होने लगी। एक बार कुछ लोगों ने PICNIC पर जाने का कार्यक्रम बनाया। एक सहेली के पतिदेव नहीं आ पाये। कारण पता लगा कि उनका क्रिकेट का मैच था। थोड़ा और कुरेदने पर मालूम हुआ कि वह IOWA STATE CRICKET TEAM में हैं। अब अमेरिका में तो क्रिकेट खेला नहीं जाता। जाहिर है कि यह क्रिकेट टीम देसियों से ही मिलकर बनी है। यानी कि जब आप अपने STATE की टीम में हो तो हो सकता है आपको पाकिस्तानी या बंगलादेशी भाई के साथ अपने भारतीय भाई के विर्रुद्ध खेलना हो!! यानी यहाँ सब देसी भाई भाई हैं।
एक और वाकया बताना चाहूंगी। एक मेरी पाकिस्तानी सहेली है। उसके घर गयी तो उसने पूछा कि क्या कोई भारत जाने वाला है? उसे कुछ सामान मँगाना था जो कि हालाँकि अमेरिका में मिलता है पर ४-५ गुना बढे हुए दाम पर और कोई पकिस्तान नहीं जा रहा था। इसीलिए वह चाह रही थी कि कोई भारत से उसका सामान लेता आए। मैंने उसे उसे बातों बातों में बताया कि यहाँ तो जब भी कोई भारत जाता है तो वहां से दही जरूर लाता है ताकि यहाँ रहने वाले भारतीयों को घर का दही ज़माने के लिए जामन मिल जाए। (यहाँ कई देसी परिवार ऐसे हैं जो यहाँ का YOGHURT खाना पसंद नहीं करते।)
पलट कर उसने मुझे बताया कि उसके घर में जो दही रखा है, वह भारतीय जामन से ही जमा है!!! जो कि उसके पास NEW YORK से होता हुआ आया है।
यह सुनकर एक अनुभूति हुई। समझ नहीं आ रहा उसे क्या नाम दूँ?? सोचने पर मजबूर हो गयी कि ऐसा क्या है जो हमें अलग करता है?? हमारा खाना भी अहमद के अचार के बिना उतना ही फीका लगता है जितना उनकी चाय हल्दीराम कि भुजिया के बिना! हम नुसरत साहब को उसी अदब और चाव से सुनते हैं जितना कि वह शाहरुख़ को देखते हैं! हमने भी अना और मूरत (पाकिस्तानी सीरियल) को उतना ही सराहा है जितना उन्होंने क्यूंकि... और सात फेरे को!!!
फिर क्यों हम एक दूसरे के दुश्मन हैं?? काश इस सवाल का जवाब देश को अपनी जागीर समझने वाले ४७ के 'महान' नेता भी दे पाते।
आज एक बात मन में उठी है। क्या एक चम्मच दही जो सात समंदर पार करके आता है और सरहद पार के घरों के खाने का स्वाद बढ़ता है, उसमें हम अपने प्यार, विश्वास की चीनी नहीं मिला सकते?? जिससे हमारे दिलों की खटास कुछ तो कम हो जाए!!
एक चम्मच जामन के बहाने ही सही हम कुछ करीब तो आयें!!
बस इसी दुआ और आशा के साथ....