शनिवार, 14 मार्च 2009

अपनी पहचान

सुबह सुबह फ़ोन की घंटी बजी। (हमारी सुबह ११ बजे के बाद ही होती है।)
हमारी ख़ास सहेली सरिता का फ़ोन था। कुछ परेशान नज़र आई। हम समझ गए कुछ दिनों के लिए कोई मसाला मिल गया है। वैसे भी भाई, सादा जीवन जीने का भी कोई मज़ा है? ना कोई रंग, न उमंग..... कितना बोर जाती है ज़िन्दगी?
खैर, सरिता ने जो हमें बताया उसे सुनकर हमारे पैरों तले ज़मीन ही खिसक गयी भाई। हालांकि हमें किसी मसाले की तलाश थी, पर यह?
हमारी एक और ख़ास सहेली रेनू अपने पति से तलाक लेने जा रही थी। बस फिर क्या था? हमने और सरिता ने तय किया की पूरी बात का पता लगा कर ही रहेंगे।
ठीक एक घंटे बाद हम दोनों रेनू के घर पर थे। हमें देखते ही खुश हो गयी वह। बहुत अच्छे से स्वागत किया हमारा। जाते ही शरबत पिलाया। हम थोड़े हैरान परेशान थे। कनखियों से सरिता को घूरा। कहीं ग़लत ख़बर तो हाथ नहीं लग गयी? एक दूसरे का हालचाल पूछने के बाद इधर उधर को बातें होती रहीं आधे घंटे तक। अब हम कुछ बोर होने लगे थे। (आज के बाद सरिता की बात का विश्वास ही नही करेंगे!!)
तभी अचानक रेनू ने कहा की उसको आज शाम को अपने वकील से मिलने जाना है। हमें और सरिता को जैसे करंट लगा। (सुना है चूहों को करंट पसंद है!)
अब हमारे हाथ बात का जरिया लग गया जिसकी तलाश में थे हम। हमने पूछा की क्यों जाना है वकील के यहाँ?
रेनू- "मैं तलाक लेने जा रही हूँ।"
"क्यों?"
"बस लगता है कि कुछ अपनी पहचान नहीं है। बहुत नीरस हो गयी ज़िन्दगी। सब खाली खाली लगता है।"
(रेनू हमें किसी पहुंचे हुए सन्यासी की तरह नज़र आने लगी )
यह हाल तो हमारा भी था... सोचते हुए अपने सर को झटका दिया......
"खाली खाली मतलब?"
"सब कुछ बेमानी सा"
(जैसे आजकल १०० का पत्ता!!)
लम्बी साँस भरते हुए रेनू बोली।
"तो इसमें तलाक लेने की क्या बात है?" अब बारी सरिता की थी।
"नहीं बस ऐसे ही..."
"ऐसे ही???" हमारा सर घूम गया (ऐसे ही तलाक तो सितारे लेते हैं। इस पर उनका सर्वाधिकार सुरक्षित है )
"मेरा मतलब है कि मैं अपने को जानना चाहती हूँ।"
"हाँ तो?? इसमें तलाक लेने कि क्या जरूरत है?" सरिता ने उपाय बताया " किसी डॉक्टर के पास चली जाओ।" जांच पड़ताल करा लो।" (डॉक्टर से उसका मतलब शायद मनोवैज्ञानिक से था )
रेनू ने थोड़ा घूर के जवाब दिया "नहीं मुझे कोई बीमारी थोड़े ही है? मैं तो भली चंगी हूँ।" बस थोड़ा आज़ादी चाहती हूँ। अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ।"
ऐ लो... घूम फिर के बात वहीँ आ गयी... तलाक क्यों??
अब हमने नाक को दूसरी तरह से पकड़ना ठीक समझा।
"क्या राजेश (रेनू के पति) का किसी और से चक्कर चल रहा है?"
"मुझे नहीं लगता.... पर तुम कभी भी इन मर्दों के बारे में नही जान सकती। कम से कम पतियों के बारे में तो बिल्कुल ही नहीं।"
(मतलब एक कारण यह भी हो सकता है )
"क्या तुम्हे कोई और पसंद आ गया है?"
"क्या मतलब है तुम्हारा? क्या मैं तुम्हे विश्वासघाती लगती हूँ??"
(काश मर्द हमारे बारे में ऐसा न सोचते हों जैसा हम उनके बारे में सोचते हैं!)
"सास ननद की कोई परेशानी?"
"उनकी कोई औकात जो मुझे कुछ करने पर मजबूर करें??"
(इस विषय में बात ना ही करें तो अच्छा है)
"तो आख़िर बात क्या है? क्या कारण है तलाक लेने का? आख़िर वकील को भी तो बताना पड़ेगा कोई कारण"
"मैं बस अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ। सुबह से शाम तक वही एक नीरस ज़िनदगी। घर, बच्चे, रसोई... ज्यादा से ज्यादा किसी के यहाँ मिलने चले जाओ बस.... यह भी कोई ज़िन्दगी है?"
"तुमने नौकरी भी तो अपनी मर्ज़ी से छोड़ी थी न? राजेश को कोई ऐतराज़ नहीं था तुम्हारे काम करने से।"
"हाँ पर सोचती हूँ कि अगर अलग रहूंगी तो अपनी पहचान बना पाऊंगी। कुछ करके दिखा सकती हूँ। किसी पर निर्भर होकर रहने कि क्या जरूरत है? अपने मन से ज़िन्दगी जियो। जब जो करना चाहो वो करो। "
"वो तो अभी भी करती हो न?"
"हाँ पर बंधा बंधा सा लगता है सब"
अब हम उसका वही रिकॉर्ड चालू नही करना चाहते थे। सो हमने पूछा "ठीक है अलग हो जाओगी तो नौकरी भी तो करोगी?"
"जरूरी नहीं है।"
"तो क्या करोगी? कैसे अपना खर्चा चलाओगी?"
"अरे.... राजेश है न? व देगा खर्चा? मुझे नौकरी करने की क्या जरूरत है?"
(रेनू को हम स्कूल के जमाने से जानते हैं। उसका पढ़ाई में कुछ ख़ास दिल नहीं लगता था। किसी तरह बी.ऐ. पास करके टाइपिस्ट की नौकरी पा ली थी )
"पर तुम तो कह रही थी कि तुम किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती"
"हाँ.... निर्भर से मेरा मतलब आर्थिक नहीं, मानसिक था" रेनू ने किसी दार्शनिक कि तरह हमें ज्ञान पेला।
ओह.... यानी सीधे सादे शब्दों में रेनू अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला छुडाना चाह रही है और अपने अधिकारों को इस्तेमाल करना चाह रही है..... ठीक है नारी मुक्ति का ज़माना है। अपनी पहचान बनने का हर किसी को अधिकार है। अगर उसने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई है तो कुछ ग़लत नही किया...
हमने सरिता को (और ख़ुद को भी!!) समझाया।
हमने रेनू को भरपूर साथ देने का वादा किया। वो बहुत खुश हुई कि उसको हम जैसी सहेलियां मिलीं। हमने भी उसका एहसान माना कि उसने हमारे चक्षु खोल दिए। आज से हम भी अपनी पहचान बनाने (कुछ अलग) की कोशिश करेंगे।
धन्यवाद रेनू और उन जैसी सभी नारियों का!! उनको कोटि कोटि प्रणाम!!